प्रस्तुत है त्रपिष्ठ आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण अध्यात्मवादी सारे संसार को प्रभुमय देखते हैं निर्भरा भक्ति की व्याख्या इसी प्रकार हो सकती है निर्भरा भक्ति में सबसे पहली आवश्यक चीज है विश्वास l आत्मबोध, आत्मभक्ति, आत्मशक्ति यह अनुभव कराती है कि हमारे अन्दर ब्रह्मत्व विद्यमान है जिस प्रकार ब्रह्म में सृष्टि को स्रष्टा रूप में रचने की इच्छा होती है उसी प्रकार हम मनुष्य में भी छोटी सी सृष्टि को रचने की इच्छा होती है | हम अपने मनुष्यत्व को पहचानते हुए संसार सागर में तैरते हैं तो तैरते समय तैरने का आनन्द और तट पर आकर तैर कर सफलतापूर्वक वापस आने का आनन्द मिलता है परमात्मा है कि नहीं है यह दुविधा रहती है | असन्नेव सभवति । असद्ब्रह्मेति वेद चेत् । अस्ति ब्रह्मेति चेद् वेद । सन्तमेनं ततो विदुरिति ॥ तैत्तिरीय उपनिषद् 6 वां अनुवाक दर्शन शास्त्र में दो मत हैं आस्तिक नास्तिक आचार्य जी ने स्वामी विवेकानन्द और अलवर के महाराजा मंगल सिंह से संबन्धित एक अत्यन्त रोचक प्रसंग बताया l जब एक चित्र में श्रद्धा हो जाती है तो हमारे जन्मदाता परमात्मा में भी श्रद्धा होगी ही आचार्य जी ने 7 नवम्बर 1966 की दिल दहलाने वाली घटना बताई | (आचार्य जी 1 जुलाई 1966 को अध्यापक हो गये थे) आम जनमानस राष्ट्र के लिए कैसे चिन्तन करे हमें अध्यात्म और संसार के लिए परिश्रम करना है और इसके लिए हमें अपना शरीर और मन ठीक रखना है | रामलला के प्रधानाचार्य पं काली शंकर जी से संबन्धित क्या बात थी आदि जानने के लिए सुनें |