वह बच्ची 'रमा' थी, जिसे छोटी उम्र में ही गांव के सबसे धनाढ्य परिवार के बेटे से ब्याह दिया गया था। विवाह के बाद कुछ ही महीने बीते थे कि उसके पति की अकस्मात मृत्यु हो गई। समाज का नियम था कि पति की मृत्यु के साथ उसकी संगिनी को भी सती होना पड़ता था, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो। रमा को "मैं तेरी संगिनी हूं," ये शब्द अब उसे अभिशाप लगने लगे थे।
गांव के लोग, धर्म और समाज की आड़ लेकर, रमा के सती दहन की तैयारी कर रहे थे। चारों ओर ढोल-नगाड़ों की आवाज और शोरगुल था,सूरज की आखिरी किरणें आसमान में हल्की सी नारंगी रोशनी बिखेर रही थीं, लेकिन रमा की दुनिया में अंधेरा घिर चुका था। रमा हवन कुंड के सामने ज़मीन पर बैठी थी, उसकी आंखें लाल और सूजी हुई थीं, जैसे कई दिनों से रो रही हो। उसके सिर के बाल मुंड दिए गए थे, अब उसका सिर नंगा था—सभी उसके चारों ओर बैठे लोग उसकी ओर देख रहे थे, लेकिन किसी की निगाहों में उसके लिए सहानुभूति नहीं थी। उसके नन्हे हाथों की कलाई पर टूटी हुई चूड़ियों के गहरे खरोंचें थे, जो उसे उसके बिछड़े पति की याद दिला रही थीं, एक ऐसा पति जिसे उसने ठीक से कभी जाना भी नहीं था।
हवन के चारों ओर बैठे समाज के लोग, पुरोहित, और गाँव के मुखिया मंत्रोच्चार कर रहे थे। रमा का दिल धड़क रहा था, मानो कोई तूफान उसके भीतर मच रहा हो। लेकिन रमा की मासूमियत से परे कोई भी उसकी पीड़ा को समझने को तैयार नहीं था। सभी मानते थे कि सती होने से वह अपने पति के साथ अमर हो जाएगी, और समाज में उसका सम्मान बढ़ेगा।
पंडित (मंत्र पढ़ते हुए):
"धर्म के विधान में यही लिखा है। पति के साथ पत्नी को भी देह त्याग कर सती होना चाहिए। यही तुम्हारा कर्तव्य है, बिटिया।"
रमा की आंखों में आंसू भर आए। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उसके साथ क्या होने वाला है। वह डरी-सहमी खड़ी हुई।
रमा (कांपते हुए):
"माँ... मुझे डर लग रहा है। मैं नहीं जाऊंगी वहां, माँ!"
गंगा बाई आगे बढ़ती है। रमा की बात सुनते ही उसके कलेजे में एक टीस उठती है। वह रमा को अपने पास खींच लेती है।
समाज के नेताओं और पुरोहितों ने गंगा बाई पर भारी दबाव डाला। "ये तो विधि का विधान है," उन्होंने कहा। "तुम्हारी बहू सती होकर पुण्य प्राप्त करेगी, तुम्हारे परिवार की प्रतिष्ठा बनी रहेगी।"
गंगा बाई (सख्त स्वर में):
"रमा कहीं नहीं जाएगी! ये छोटी बच्ची है। इसे क्यों सती बना रहे हो? क्या यही धर्म है, जो एक मासूम जान लेता है?"
समाज के लोग चौंकते हैं। पंडित का चेहरा तमतमा जाता है।
पंडित (गुस्से में):
"गंगा, तुझे धर्म का अपमान करने का हक नहीं है! ये विधि का विधान है। ये तुम्हारी बहू अब सती बनकर अपने पति के साथ स्वर्ग जाएगी।"
गंगा बाई का चेहरा सख्त हो जाता है। वह समाज के सामने पूरी हिम्मत से खड़ी होती है।
गंगा बाई (कड़क आवाज में):
"कौन सा धर्म? कौन सा विधान? ये बच्ची जानती भी नहीं कि शादी क्या होती है, पति क्या होता है। उसे क्या समझ सती प्रथा की? तुम लोग धर्म की आड़ में एक बच्ची की हत्या करने पर तुले हो। मैं इसे मरने नहीं दूंगी।"
रमा गंगा बाई के आँचल में छिप जाती है, उसकी छोटी-छोटी उंगलियां कसकर गंगा बाई की साड़ी पकड़ लेती हैं।
गांव का मुखिया (गुस्से में):
"गंगा, तू पागल हो गई है! अगर रमा सती नहीं हुई, तो पूरे गांव में तुम्हारे परिवार की नाक कट जाएगी। लोग तुम्हें दोष देंगे!"
गंगा बाई (आंखों में आंसू और गुस्से के साथ):
"नाक से बढ़कर एक बच्ची की जान है! क्या तुम अपनी बेटियों को भी यही सिखाओगे? क्या धर्म में इंसानियत की कोई जगह नहीं? मैं अपने बेटे को खो चुकी हूं, लेकिन अब और नहीं खोऊंगी।"
मुखिया और बाकी लोग अब खामोश हो जाते हैं। गांव की कुछ महिलाएं धीरे-धीरे गंगा बाई की तरफ आती हैं, उनके चेहरों पर सहमति और साहस दिखने लगता है। गंगा बाई ने ठोस आवाज़ में उत्तर दिया, "क्या तुम सबको अपनी बेटियों की कोई परवाह नहीं? क्या ये तुम्हारे लिए भी सही होगा कि एक सात साल की बच्ची को आग के हवाले कर दिया जाए? मैं अपने बेटे को खो चुकी हूं, पर मैं अपनी बहू को यूं मरने नहीं दूंगी।"
समाज के लोग चुप हो गए, लेकिन उनमें गुस्सा उमड़ पड़ा। कुछ ने गंगा बाई को धमकाया, तो कुछ ने उसे पाखंडी कहा। गंगा बाई के साहस ने सभी को हिला दिया था, और धीरे-धीरे कुछ महिलाएं भी उसके साथ खड़ी होने लगीं। वे भी अपने दिलों में इस क्रूर प्रथा के प्रति विरोध महसूस करने लगीं थीं, लेकिन पहले कभी अपनी आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं कर पाई थीं।
गंगा बाई ने रमा को अपने आंचल में छिपा लिया। रमा अब थोड़ी सहज हो गई थी। वह गंगा बाई की ओर देखती है और पहली बार हल्की सी मुस्कान देती है। उसकी मासूम आंखों में चमक लौट आती है, मानो उसने जीवन फिर से पा लिया हो।
रमा (धीरे से):
"माँ, अब मुझे डर नहीं लगता।" गंगा बाई उसकी पेशानी पर एक चुम्बन देती है।
गंगा बाई (भावुक होकर):
"अब कभी डरने की जरूरत नहीं, बेटी। तुम मेरी संगिनी हो, और मैं हमेशा तुम्हारे साथ खड़ी रहूंगी।"