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11 साधना

20 अगस्त 2023

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 11 साधना

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     योगसत्र का समापन दिवस आते-आते यशस्विनी ने सभी साधकों को ध्यान चक्रों के विषय में भी विस्तार से जानकारी दी थी। नए साधनों के लिए पहले पहल तो योग केवल एक कौतूहल था लेकिन जब यशस्विनी ने योग में अंतर्निहित दार्शनिक, आध्यात्मिक और स्वास्थ्य संबंधी सिद्धांतों की विशद विवेचना की तो उन्हें लगा कि वाकई भारतीय ज्ञान-विज्ञान की गहराई और उपयोगिता का दूसरा कोई जोड़ नहीं है।

  शाम के योग अभ्यास की अवधि सीमित होती थी….. लगभग आधा घंटा और इसके बाद प्रश्न उत्तर और जिज्ञासा समाधान सत्र लंबा चलता था जब यशस्विनी ने साधकों को मानव शरीर के चक्र की अवधारणा के बारे में बताया तो उन्हें पहले पहल तो विश्वास ही नहीं हुआ।

" साधकों आप लोगों ने नदियों का संगम देखा है?"

" हां योगिनी जी"

" तो आपने ठीक- ठीक ध्यान दिया होगा कि संगम की जो जगह होती है उसका आकार कैसा होता है।"

"योगिनी जी संभवतः वह जगह उथल-पुथल वाली होती है और  गोलाकार परिधि में घूमती है।"

" हां सही अनुमान लगाया आपने। इसी तरह जब शरीर के कुछ प्रमुख बिंदुओं पर रक्त और अन्य पदार्थ भंवर बनाते हैं तो ये चक्र कहलाते हैं। यूं तो शरीर में 144 चक्र होते हैं लेकिन सात चक्र प्रमुख माने जाते हैं।वैसे तो इन्हें चक्र कहा जाता है पर वास्तव में ये त्रिकोण आकार में परिभ्रमण करती हैं।"

" योगिनी जी मानव शरीर के वे सात बिंदु या चक्र कौन-कौन से हैं?"

" वे हैं- मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र।"

     अनेक साधकों के लिए यह बिल्कुल नई जानकारी थी। उन्होंने पूछना शुरू किया- इन चक्रों का महत्व क्या है? इस पर यशस्विनी में विस्तार से समझाया कि शरीर में ये चक्र हैं और संतुलित हैं तो जीवन का प्रवाह अत्यंत अनुकूल है। इन चक्रों में असंतुलन से ही मनुष्य के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में विसंगति आती है।

" दीदी इन चक्रों का क्रम क्या है? क्या सहस्रार से शुरुआत होती है?"

" नहीं शुरुआत मूलाधार से होती है और इसीलिए चक्रों की ऊर्जा का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होता है और ज्यों-ज्यों हम ऊपर के चक्रों में पहुंचते हैं,त्यों-त्यों हमारी साधना और आत्म उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता जाता है और सहस्त्रार चक्र में पहुंचते ही जैसे हम आत्मानंद में डूब जाते हैं।"

" दीदी लोग प्रायः आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाते हैं जो दोनों भौहों के मध्य में है क्या ऐसा करना उचित है?"

" नहीं मेरी दृष्टि में शुरुआत मूलाधार चक्र से ही होनी चाहिए और फिर हम इनसे निवृत होते हुए ऊपर की ओर बढ़ें।"

"दीदी जरा इसे उदाहरण देकर समझाइए न"

"हां चलो मैं इसे एक कहानी के रूप में स्पष्ट करती हूं।"

" धनीराम एक सामान्य व्यक्ति हैं। उन्होंने योग साधना का निश्चय किया। वे अपने जीवन के प्रारंभिक भोग आलस्य और आराम की प्रधानता से तंग आ गए हैं क्योंकि उनकी ऊर्जा मूलाधार चक्र के आसपास ही केंद्रित है और अटकी हुई है। सामान्यता धनीराम जैसे लोग इसी चक्र के आसपास अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। इस चक्र के सकारात्मक प्रभाव को जगाने के लिए आचरण और नियमों की शुद्धता का पालन करते हुए गुरु के निर्देश पर धनीराम ने ध्यान साधना शुरू की और धीरे-धीरे उनके भीतर वीरता और आनंद की भावनाएं जाग्रत होने लगीं। धनीराम ने अपनी रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से के आसपास मूलाधार चक्र की सक्रियता को महसूस किया। दूसरे चक्र स्वाधिष्ठान चक्र के प्रभाव में मनुष्य केवल आमोद प्रमोद मनोरंजन आदि तक ही सीमित रहता है।यह चक्र जाग्रत हो जाए तो हमारे मन में बात - बात पर उठने वाली अवज्ञा, अविश्वास, आलस्य आदि दुर्गुणों का नाश हो जाएगा । कई दिनों की साधना के बाद धनीराम ने भी अपने जीवन में लिंगमूल से चार अंगुल ऊपर स्थित छह पंखुड़ियों वाले इस चक्र को महसूस किया। मणिपुर चक्र नाभि के मूल में स्थित होती है।दस कमल पंखुड़ियों वाले इसे चक्र के कारण लोगों में काम करने की धुन सवार होती है यह लोग बड़े महत्वाकांक्षी होते हैं ।धनीराम ने कई दिनों की साधना के बाद इस चक्र को जाग्रत किया और आत्म शक्ति और आत्म बल को प्राप्त किया। कई दिनों की साधना के बाद धनीराम जब अनाहत चक्र में पहुंचे तो उन्होंने अपने भीतर सृजनशीलता को अनुभव किया और उन्होंने कविताएं लिखने और कुछ नया सृजन करने के बारे में प्रयास शुरू किया।उनका यह चक्र जाग्रत हुआ उनके भीतर से चिंता, अविश्वास, अविवेक जैसी अनेक भावनाएं समाप्त होती गईं और उनके भीतर आत्मविश्वास, चारित्रिक दृढ़ता और भावनात्मक संतुलन का गुण बढ़ता गया।"

" दीदी अनाहत चक्र की स्थिति शरीर में कहां पर होती है?"

" साधकों हृदय के बीचो- बीच इसका स्थान है। इसकी स्थिति रीढ़ की हड्डी पर होती है।"

यशस्विनी के विवरण और रोहित द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे स्लाइडों के माध्यम से साधकों ने जैसे एक व्यक्ति के योग साधना और आत्मबल में ऊपर उठने की प्रक्रिया को अपने सामने जीवंत होते हुए देखा और महसूस किया।

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  यशस्विनी ने धनीराम की कहानी बताते हुए विशुद्ध चक्र में उनके पहुंचने पर होने वाले परिवर्तनों को बताया कि किस तरह यहां तक पहुंचते-पहुंचते धनीराम को स्वयं में आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण की अनुभूति हुई।मानो वे ईश्वर से साक्षात्कार के लिए उद्यत हों।

" जब धनीराम ध्यान की अनेक दिनों की साधना के बाद आज्ञा चक्र में पहुंचे तो जैसे यहां आकर इड़ा और पिंगला नाड़ियों के मिलन से सुषुम्ना सेतु का मार्ग खुला और कुंडलिनी जागरण की आहट सुनाई दी। यहां आकर वे बौद्धिक रूप से भी अत्यंत संवेदनशील और विचारवान हो उठे।उनका स्वयं पर नियंत्रण स्थापित हुआ।"

" साधकों सहस्रार चक्र पर पहुंचने के लिए उन्हें लंबी साधना करनी पड़ी। आचार- विचार, आहार - व्यवहार आदि की शुद्धता के साथ-साथ जब ओम मंत्र का जाप करते हुए वे सहस्त्रार चक्र तक पहुंचे, तो उन्होंने मस्तिष्क के सबसे ऊपरी हिस्से पर स्थित चक्र की जागरण अवस्था को महसूस किया और हजार पंखुड़ियों वाले इस कमल के प्रभाव को महसूस किया।मानो वे संसार व सांसारिक बंधनों, बाधाओं से भी ऊपर आनंदमय जगत में स्थिर हो गए हों।"

 

" दीदी! आप क्या हमारे रोहित महोदय की कहानी सुना रही हैं?"

 

साधकों का ऐसा अनुमान लगता देखकर यशस्विनी खिलखिला कर हंस पड़ी और रोहित झेंप गए क्योंकि जब उन्होंने बहुत ध्यान से यशस्विनी का यह व्याख्यान और प्रदर्शन देखा तो वे मन ही मन स्व-आकलन कर रहे थे।रोहित मुश्किल से पहले या दूसरे चक्र तक ही केंद्रित थे।  उन्हें तीसरे चक्र के प्रभाव की अनुभूति भी कभी-कभी होती थी। अपनी आध्यात्मिक भावना, सज्जनता, ईमानदारी और मेहनत के कारण ही वे अनजाने ही इस दूसरे और तीसरे चक्र तक पहुंच पाए थे।

       एक साधक ने पूछा-" दीदी आपने योग की सभी विधियों व प्रविधियों की जानकारी दी लेकिन आप यह बताइए कि यह इतना गूढ़ व जटिल विज्ञान और अध्यात्म है कि साधारण मनुष्य इसे कैसे सीख सकता है और इसका पालन कैसे कर सकता है?

     यशस्विनी ने प्रत्युत्तर दिया, "आपने सही कहा। हमारे देश में अनेक योग गुरु और संस्थान सक्रिय हैं जो योग को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं तथापि मेरा ऐसा मानना है कि आजकल केवल आसन और प्राणायाम की विधियों पर ही जोर दिया जा रहा है। वास्तव में योग का अर्थ अंततः परमात्मा से स्वयं को जोड़ना है और हमारे मनोभावों में परिवर्तन एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के विकास में ही योग की सार्थकता है। मैं यही करने की कोशिश कर रही हूं….।"

"और दीदी इसका अत्यंत कठिन होना……"

" मैं आपके इसी प्रश्न पर आ रही हूं। वास्तव में योग भारत की प्राचीन विद्या है और पहले यह अत्यंत प्रचलित थी। जनमानस में लोकप्रिय होने के कारण और सार्वजनिक तथा निजी जीवन में इसका अभ्यास लगातार होते रहने के कारण यह लोगों के लिए सहज और आसान था। आज के समय में जब लोगों का ध्यान केवल भौतिकता के संसाधनों को जुटाने की ओर है ऐसे में वे अध्यात्म और योग से दूर होते जा रहे हैं। अब उनका मतलब केवल फिटनेस तक सीमित है ।वे योग को भी केवल वहां तक अपनाना चाहते हैं,जहां तक यह उनके फिटनेस और अगर युवाओं की बात की जाए तो बॉडी बिल्डिंग में मदद करे। इसके आगे वे योग की कोई महत्ता नहीं समझते। समस्या यही है।एक उदाहरण देना चाहती हूं कि सूर्य नमस्कार का प्रचलन बढ़ाने के लिए सरकारों को इसके लिए विशेष दिन तय कर अभ्यास सत्र आयोजित करना पड़ता है।वहीं शरीर के विभिन्न चक्रों के बारे में  एक सामान्य साधक  सोच ही नहीं सकता है। नाड़ियों की गूढ़ संरचना की क्या बात की जाए?

   

        "दीदी इन अभ्यास विधियों के करने में क्या सावधानी बरतनी चाहिए?"

" इसकी एकमात्र सावधानी यह है कि बिना इन आसनों योग विधियों, प्राणायाम,विभिन्न चक्रों के भली प्रकार ज्ञान हुए बिना इनका अभ्यास गलत है और यह भी योग्य गुरु की उपस्थिति और उनके मार्गदर्शन में ही किया जाना चाहिए। अन्यथा इनका लाभ होने के स्थान पर प्रतिकूल प्रभाव भी हो सकता है।"

    साधकों के मन में अनेक जिज्ञासाएं थीं लेकिन यशस्विनी ने कहा कि अब आप लोगों के आराम करने का समय हो रहा है।

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      प्रश्न उत्तर और जिज्ञासा समाधान सत्र का विसर्जन हुआ। श्री कृष्ण प्रेमालय के इस बड़े हॉल में ओम की समवेत ध्वनि के साथ जैसे साधकों ने अपने भीतर झांकने और प्रत्येक धमनी, शिरा और नाड़ियों को झंकृत करने की कोशिश की। श्री कृष्ण प्रेमालय परिसर में ही इन 50 साधकों के आवास की व्यवस्था है। श्री कृष्ण प्रेमालय एक तरह से योग आश्रम भी है लेकिन जैसा कि महेश बाबा ने नियम बना रखा है कि वे केवल प्रवचन, भाषण और उपदेश की गतिविधियों के स्थान पर वे 60% समय रचनात्मक और सेवा के कार्यों के लिए तय रखना चाहते हैं।शेष 40 प्रतिशत फोकस चर्चाओं, वार्ता उपदेशों पर केंद्रित होना चाहिए। अगर हम लोग केवल उपदेश देते रह जाएं। स्वयं आचरण में उसे न उतारें तो हम आम लोगों से यह कैसे कह सकते हैं कि नर की सेवा ही नारायण की सेवा है।…. अनाथालय की स्थापना और परिवार में सभी को खो चुके बच्चों की परवरिश…. इसके अलावा प्रत्येक शनिवार और रविवार को शहर में स्थित सभी वृद्ध आश्रमों में जाकर वहां के लोगों से मिलना जुलना और उनके लिए विभिन्न चीजों का प्रबंध करना यह महेश बाबा का प्रिय कार्य था।

     शाम को राधा कृष्ण मंदिर में भोग अर्पण के बाद भंडारा भी चलता था जिसमें आश्रम की आवश्यकता के अनुसार और यहां साधनों की उपलब्धता के अनुसार जितना भोजन बन सकता था, वह प्रतिदिन बांके बिहारी के दरबार में पहुंच जाने वाले लगभग 100 से 150 गरीब लोगों या अन्य ऐसे व्यक्ति जो उस दिन भोजन ग्रहण नहीं कर पाए हों, उनके लिए पर्याप्त रहता था। अब इसे विधि का विधान कहिए या भगवान बांके बिहारी जी की कृपा कि कोई भी भूखा,मंदिर के रात्रि प्रसाद ग्रहण के समय पहुंचने पर भूखे पेट वापस न लौटता था और सभी आश्रम के स्वयंसेवक इस कार्य को बड़े मनोयोग से पूरा करते थे। महेश बाबा इसी तरह ठंड के दिनों में फुटपाथ पर सोये ठिठुरते लोगों को या तो आश्रय प्रदान करने की कोशिश करते  या उन तक गर्म कपड़े आदि की व्यवस्था करते। यशस्विनी भी इन सभी कार्यों में व्यस्तता के बाद भी समय निकालकर सहायता प्रदान किया करती थी ।

 

योगेंद्र

 

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रचनाएँ
यशस्विनी:देह से आत्मा तक
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लेखक की कलम से….✍️      हमारे समाज में प्रेम को लेकर अनेक वर्जनाएं हैं। कुछ मनुष्य शारीरिक आकर्षण और दैहिक प्रेम को ही प्रेम मानते हैं,तो कुछ हृदय और आत्मा में इसकी अनुभूति और इससे प्राप्त होने वाली दिव्यता को प्रेम मानते हैं।कुछ लोग देह से यात्रा शुरू कर आत्मा तक पहुंचते हैं।      प्रेम मनुष्य के जीवन का एक ऐसा अनूठा एहसास है,जिससे अंतस् में एक साथ हजारों पुष्प खिल उठते हैं।यह लघु उपन्यास "यशस्विनी:देह से आत्मा तक" अपने जीवन में समाज के लिए कुछ कर गुजरने की अभिलाषा से अनुप्राणित यशस्विनी नामक युवती की गाथा है।उसमें सौंदर्य और बुद्धि का मणिकांचन मेल है। वह प्रगतिशील है।उसमें प्रतिभा है,भावना है,संवेदना है,प्रेम है।उसे हर कदम पर अपने धर्मपिता और उनके साथ-साथ एक युवक रोहित का पूरा सहयोग मिलता है।दोनों के रिश्तों में एक अजीब खिंचाव है, आकर्षण है और मर्यादा है….और कभी इस मर्यादा की अग्नि परीक्षा भी होती है।क्या आत्मा तक का यह सफर केवल देह से गुजरता है या फिर प्रेम, संवेदनाएं और दूसरों के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने वाली भावना का ही इसमें महत्व है….इस 21वीं सदी में भी स्त्रियों की स्थिति घर से बाहर अत्यंत सतर्कता, सुरक्षा और सावधानी बरतने वाली ही बनी हुई है।यह व्यक्तिगत प्रेम और अपने कर्तव्य के बीच संतुलन रखते हुए जीवन पथ पर आने वाले संघर्षों के सामने हथियार नहीं डालने और आगे बढ़ते रहने की भी कहानी है।          समाज की विभिन्न समस्याओं और मानवता के सामने आने वाले बड़े संकटों के समाधान में अपनी प्रभावी भूमिका निभाने का प्रयत्न करने वाले इन युवाओं के अपने सपने हैं,अपनी उम्मीदें हैं।इन युवाओं के पास संवेदनाओं से रहित पाषाण भूमि में भी प्रेम के पुष्पों को खिलाने और सारी दुनिया में उस एहसास को बिखेरने के लिए अपनी भावभूमि है।प्रेम की इस गाथा में मीठी नोकझोंक है,तो कभी आंसुओं के बीच जीवन की मुस्कुराहट है। कभी देह और सच्चे प्रेम के बीच का अंतर्द्वंद है,तो आइए आप भी सहयात्री बनिए, यशस्विनी और रोहित के इस अनूठे सफर में..... और आगे क्या - क्या होता है,और कौन-कौन से नए पात्र हैं..... यह जानने के लिए इस लघु उपन्यास "यशस्विनी: देह से आत्मा तक" के प्रकाशित होने वाले भागों को कृपया अवश्य पढ़ते रहिए …. ✍️🙏 (आवरण चित्र freepik .com से साभार) डॉ. योगेंद्र पांडेय
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