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एक अन्य साधक ने पूछा:-योग की कौन-कौन सी प्रमुख विधियां हैं? यशस्विनी:-योग
के चार पथ या मार्ग हैं।राज योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा ज्ञान योग। योग का अर्थ ही
है योग करना या जोड़ना और योग की सभी विधियां हमें आत्मा को परमात्मा से जोड़ने में
सहायक हैं।
प्रश्न :-क्या मैं इन बीस दिनों में योग साधना सीख जाऊंगा?
यशस्विनी:- सीखना आपके ऊपर है ।मैं इस बात को सुनिश्चित नहीं कर
सकती, इसलिए कोई आश्वासन भी नहीं दे सकती कि आप 20 दिनों के इस योग शिविर में संपूर्ण
योग सीख जाएंगे।मुख्य रूप से हम यहां राजयोग अर्थात अष्टांगिक योग और उसमें भी विशेष
रूप से प्राणायाम व आसनों की विधियों को सीखने का प्रयास करेंगे।
भगवा रंग के योग पेंट्स
और योग कुर्ते में सभी साधक एक साथ ज्ञान मुद्रा में बैठकर यशस्विनी और रोहित से संवाद
कर रहे थे।
यशस्विनी ने कहा- सबसे
पहले हम आंखें बंद कर चुपचाप बैठने और चित्त में निर्विकार होने का प्रयास करेंगे।
मैं जानती हूं कि यह कठिन है लेकिन हमें शुरुआत तो करनी होगी।
पूर्व दिशा से सूर्य
की प्रथम रश्मियों के योग सभागार में फैलने के साथ ही जैसे पूरा वातावरण स्वर्णिम आभा
से दीप्त हो उठा। सूर्य का यह प्रकाश जैसे सारे साधकों को एक ही रंग से सराबोर कर रहा
था और यही प्रकाश इस सभागार में क्या बल्कि पूरी दुनिया में समाया हुआ है। हम मनुष्य
हैं कि इस ईश्वरीय प्रकाश की एकता को सभी जड़ चेतन प्राणियों में एक सा महसूस नहीं
कर पाते और कई तरह के विभेद की रेखाएं खींच लेते हैं।इससे आधुनिक दुनिया की अनेक समस्याएं
उठ खड़ी होती हैं।
जब साधक प्रार्थना
में मग्न थे तो माइक से अनायास यशस्विनी के मुख से एक सुंदर मंगल कामना के बोल झरने
लगे:-
हे ईश्वर,
प्रातः
नयी सुबह
लिए आभा स्वर्णिम
बिखरी हैं किरणें
सूर्य की कण-कण में।
तम
दूर करो
हमारे अंतस् से
खुले ज्ञान चक्षु हमारे
पहुँचें आप के भावलोक में।
एक
तत्व है
सारे जग में
प्रेम हो कण-कण,
जग बँधे इस डोर में।
जग
यह, बने
लोक आनंद का,
पीड़ा रहित हों मानव,
सब जीव हों नित सुख में।
सारे साधक आंखें
बंद कर ध्यान लगाने का पहला प्रयास कर रहे थे लेकिन अनेक साधनों के शरीर हिल-डुल रहे
थे। कुछ साधकों की आंखें बार-बार खुल और बंद हो रही थीं। यह देख कर मुस्कुराते हुए
यशस्विनी ने माइक से कहा-
…….. होने दीजिए मन में जितने विचार आते हैं आने दीजिए…. आज हम प्रारंभ
कर रहे हैं ।एक दिन में चित्त शांत नहीं होगा। इसके लिए घंटों, महीनों और कभी-कभी सालों
की साधना भी कम पड़ जाती है……….।
यशस्विनी ने मंच
पर अपनी दाई और देखा …..रोहित की आंखें बंद हैं…….और चेहरे पर संतुष्टि के भाव …..जैसे
योग और ध्यान को सीखने का पूरे मन से प्रयास कर रहे हैं …….वह सोचने लगी हो सकता है
रोहित जी योग में बहुत ऊपर उठ गए हों………
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साधकों के मन में योग को लेकर अनेक जिज्ञासाएँ थीं।प्रारंभिक अभ्यास
में ही यशस्विनी ने साधकों को प्राणायाम का अभ्यास कराया ।भस्त्रिका कपालभाति से लेकर
उज्जाई प्राणायाम, उद्गीथ प्राणायाम आदि सभी प्राणायाम साधकों ने मन से सीखे। यशस्विनी
ने जब श्वास निश्वास की प्रक्रिया के लिए पूरक, कुंभक रेचक और बाह्य कुंभक की अवधारणा
समझाई तो साधक चमत्कृत रह गए। हर कहीं अनुशासन है।हमारे जीवन की भागदौड़ के कारण हमारे
श्वांसों की गति भी अनियंत्रित है। अगर हम प्राणायाम के माध्यम से श्वांसों की साधना
करना सीख जाए तो मन की चंचलता समेत अनेक विकारों का बड़ी आसानी से निदान हो सकता है।
मंच से बैठे-बैठे ही यशस्विनी साधकों पर बराबर
निगाह रखती और किसी के द्वारा गलती करने पर या अनावश्यक हिलने डुलने और चंचलता दिखाने
पर वह मंच से ही उसे टोक देती। सही तरह से योगाभ्यास करने वाले साधकों को यशस्विनी
शाबाशी भी देती।
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योग सत्र की समाप्ति के बाद यशस्विनी फिर से एक बार
साधकों की जिज्ञासाओं का समाधान करती। यह सत्र योग अभ्यास के दौरान पूछे जाने वाले
प्रश्नों के अतिरिक्त होता। इस समय साधक खुलकर अपने मन की बात रखते और यशस्विनी उनकी
बातें सुनकर उनका समाधान करती।रोहित भी उनके साथ बराबर बना रहता और वह भी चर्चा में
अपने विचार रखते जाते।
आज के योग सत्र की समाप्ति के बाद रोहित और यशस्विनी
ने शाम के सत्र के बारे में चर्चा की। बातों ही बातों में यशस्विनी ने रोहित से पूछा,
" रोहित आप अपनी साधना में कहां तक पहुंचे हैं?"
" जी, मैंने ऐसा अभी कोई लक्ष्य बनाया नहीं है कि मैं अपनी
कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर लूंगा। न ही ध्यान के विभिन्न चक्रों पर संकेंद्रण कर
रहा हूं। केवल ध्यान की अतल गहराइयों में डूबने की कोशिश करता हूं।"
" क्या आपको इसमें आशातीत सफलता मिली है?"
"नहीं अभी तक तो नहीं और आशातीत सफलता से मेरा मतलब केवल मन
के उस महाआनंद को प्राप्त करने से है, कहते हैं; जिसके प्राप्त हो जाने के बाद कुछ
और पाना शेष नहीं रहता है।"
यह सुनकर संतुष्टि में अपना सिर हिलाते हुए यशस्विनी
ने कहा- कोशिश तो मेरी भी यही है। बस मन में एक तड़प है। …..आनंद के उस सूत्र को प्राप्त
करने की…... और मेरा जीवन तो एक तरह से कान्हा
जी को समर्पित रहा है…. रोहित, मन में बड़ी अभिलाषा है एक क्षण को बस उनके दर्शन हो
जाए और फिर जैसे मेरे हृदय की सारी कलुषता तिरोहित हो जाएगी और एक आनंद साम्राज्य में
मैं साधिकार प्रवेश कर जाऊंगी। शायद बांके बिहारी जी के उसी क्षण के दर्शन या उस दर्शन
की अनुभूति को हृदय में ही कर लेने को ही मैं तड़प रही हूं लेकिन भगवान ने अब तक कृपा
नहीं की है…..
मन ही मन रोहित ने कहा……. मैं भी तो उसी आनंद
साम्राज्य में डूबना चाहता हूं जहाँ प्रवेश करने के बाद एक अनाहत नाद चलते रहता है
और एक अजपा जाप….. हमारे तमाम संसारी कर्मों को करते समय भी हमारे हृदय में गुंजायमान
रहता है और हम खुद के नहीं रहते। ईश्वर को समर्पित देह हो जाते हैं। हाँ…..हम खुद के
नहीं रहते भगवान के हो जाते हैं,भगवान के स्वयंसेवक हो जाते हैं।
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यह याद करते-करते अचानक रोहित का मन हल्की ग्लानि
से भर उठा। अभी योग सत्र के दौरान 15 से 20 मिनट पूर्व ध्यान मुद्रा में यशस्विनी को
देखकर जैसे रोहित अपनी सुध-बुध खो बैठे थे…... कितनी अपूर्व कांति है यशस्विनी के चेहरे
पर….. जैसे असीम शांति का कोई दीपक जल उठा
हो,जिसकी पवित्र लौ को बस निहारते ही रहें…. जब यशस्विनी कुछ कहती हैं तो ऐसा लगता
है कि दिशाएं मधुरता से खनक उठती हों... कितना निर्दोष,निर्मल सुदर्शन व्यक्तित्व…..
अम्लान इतना कि धरती पर चंद्र की प्रतिमूर्ति लेकिन आसमानी चंद्र की तरह हल्के धब्बों
से भी पूर्णतः रहित……. सम्मोहन संभवतः यशस्विनी जी की आंखों में है इसलिए इच्छा यही
होती है कि बस उन्हें देखते ही रहें……. यह ऐसा अनिंद्य सौंदर्य है कि जैसे मेरे भीतर
की सारी कलुषता समाप्त हो गई है तो क्या….. यशस्विनी जी की और मैं आकृष्ट हो रहा हूं…...क्या
मैं अपने मार्ग से भटक जाऊंगा?... कहीं मेरा लक्ष्य केवल और केवल यशस्विनी जी ही न
रह जाएं…. ऐसा सोचते हुए यशस्विनी से जैसे ही रोहित ने अपनी नजरें हटानी चाही... अचानक
ध्यानमग्न यशस्विनी की आंखें खुली और रोहित को अपनी ओर यूं एकटक देखते पाकर उसे भी
हल्की सी झेंप हुई….
"अरे-अरे आप किन खयालों में खो गए रोहित
जी? क्या योगाभ्यास करते समय मुझसे कुछ गड़बड़ हो गई?"
" नहीं-नहीं आप से कोई गड़बड़ हो ही नहीं सकती है… बात यह है
यशस्विनी कि आजकल ध्यान में विचलन बहुत हो रहा है…."
" ओह….किसी ने तपस्या भंग तो नहीं कर दी आपकी…?"
यशस्विनी से यह अप्रत्याशित वाक्य सुनकर रोहित
झेंप गए लेकिन उसने तत्काल कहा-
"न----नहीं…. ऐसी कोई बात नहीं है बस जरा मैं तार्किक अधिक
हूं…"
" …. तो जीवन को इतना सोच-सोच कर मत जिएँ रोहित, बस इसे एक
बहती नदी की तरह सदा प्रवाहमान समझें और आनंद लें जीवन का….."
(क्रमशः)