आखिर तुम चुप क्यों हो?
सुगंध के घर में बरसों से बंद पड़े, पीछे के कमरे में (जो घर के बेकार हो चुके सामान से भरा पड़ा था कि ना जाने कब किस सामान की ज़रूरत पढ़ जाये?) बस वहीं छोटी–छोटी अधूरी श्वास लेती हवा में इधर-उधर टंगी थी कुछ चुप्पियाँ.. सुगंध जब भी उस कमरे के बंद दरवाज़े के सामने से गुजरती तब वह..वह ना रहती बल्कि एक लंबी चुप्पी बन जाती.उसकी माँ कभी नहीं चाहती थी कि वह उस कमरे में जाये पर सुंगध जब भी स्कूल से लौटती तो माँ को उसी बंद दरवाजे वाले कमरे से निकलते हुए देखती… पर सुगंध के लिए माँ की कोशिश होती कि वह उस कमरे में ना जा पाये.कहते हैं कि जिस काम की मनाही हो मन उसी काम के पीछे भागता है तो सुंगध के साथ भी ऐसा ही कुछ था.वह कमरा ना जाने क्यों? उसे अपनी ओर खींचता.जब बहुत छोटी थी तब से वह माँ को उसमें जाते देखती पर वह जाने की कोशिश करती तो माँ उसे जाने नहीं देती और कहती-
‘सुन ... उसमें छिपकली और साँप रहते हैं बेटा”
“तो माँ आप क्यों जाती हो उसमें....”वह माँ से गुस्सा होकर अपने बिस्तर पर औंधी लेट जाती फिर माँ बहुत प्यार से उसका माथा सहलाती और कहती-
“पता है मैं क्यों जाती हूँ उस बंद दरवाजे वाले कमरे में!”
“हाँ बताओ?”
सुगंध माँ की यह बात सुनकर हरबार एकदम से उठकर बैठ जाती .
“सु वहाँ मैं तेरे लिए सपनें रखने जाती हूँ, जब तू बड़ी हो जायेगी,तब वहाँ जो संदूक रखा है ना उसमें से निकाल लेना पर बड़े होने से पहले वहाँ बिल्कुल मत जाना,नहीं तो सारे सपनें भाग जायेंगे” माँ ये कहकर सुगंध को अपनी गोद में छिपा लेती
उस दिन माँ घर में ना थी. सुगंध घर में अकेली.. जब वह ज्यादा छोटी थी तब माँ उसे अकेली ना छोड़ती. अब पन्द्रह की हो गई है पर फिर भी उसकी मां हेलीकॉप्टर की तरह उसके ऊपर मंडराती रहती है. सुंगध के सिवा उसकी माँ का कोई नहीं है. पापा के तो बहुत है… पर पापा रात तक घर लौट आते हैं. माँ को इस पर ही तसल्ली है. तो हाँ सुंगध उस दिन घर में बिल्कुल अकेली थी. पहले तो कमरे का ख्याल ही न था. स्कूल का ढेर सारा काम जो था.. स्कूल का ढेर सारा काम उसके सिर पर चमगादड़ की तरह लटका हुआ था पर काम तो पूरा करना ही था. वह बाथरुम की तरफ बढ़ी उसे काम पूरा करने के लिए हर तरह के दबाव से मुक्त जो होना था. वह जैसे ही दबाव से बाहर आई उसकी नज़र उस बंद दरवाजे वाले कमरे के उढ़के हुए दरवाज़े पर पड़ी. बहुत समय से सुंगध ने अपने मन में चल रही खलबली को फिर से मचलते हुए देखा तो उसने धीमे से उसके दरवाज़े को भीतर की ओर धकेल दिया.. उसमें रोशनी बहुत कम रहती थी पर जितनी थी वह उसके आश्चर्य और डरी हुई आंखों की पुतलियों के लिए काफी थी. सुगंध ने वहां रखी चीजों को उलटना –पुलटना शुरू किया कुछ इसी तरह जैसे किसी की डायरी के पन्ने पलटते हैं. वह चीजों को शब्दों की तरह खोलने की कोशिश करती पर उसके किशोर दिमाग़ की अपनी सीमाएं थी. माँ की एक साड़ी चुपचाप एक कोने में पड़ी थी कुछ टूटी चप्पल.. एक पुराना संदूक..संदूक को देखते ही सुंगध का मन जिज्ञासा से भर गया. यह वही संदूक था जिसके लिए माँ उससे कहती थी कि उसके सपनें रखे हैं.
वह संदूक खोलने लगी कि एक छिपकली रेंगती हुई संदूक पर चढ़कर बैठ गयी.सुगंध को थोड़ा भय लगा पर आज ना जाने क्यों? वह उसे देखकर भागी नहीं वहीं डटी रही.हालांकि छिपकली कॉकरोच उसके दोस्त कभी न थे वह उनसे डरती थी पर इस कमरे का तिलिस्म ही कुछ ऐसा था कि वह छिपकली को भगाने के लिए दीवार के सहारे खड़ी डंडी को उठाकर भगाने में व्यस्त हो गयी .छिपकली भाग गयी तो वह संदूक को खोलने लगी. संदूक चर्र..चर्र...करता हुआ खुला. उसमें कुछ गठरियां तारों की तरह टिमटिमा रही थी..कुछ किताबें...कुछ पुराने बर्तन भी वहीं पड़े थे... वह अब उनके काफी करीब खड़ी थी गठरियों में भी शायद पुराने कपड़े थे. सुंगध संदूक को धीरे से बंद कर ही रही थी कि तभी लोहे के एक तार में अटकी कुछ चिट्ठियों पर उसकी नज़र चिपक गई. उसने उन्हें धीरे से उठाया..तार में चिट्ठियों को ऐसे लगाया गया था जैसे कबाब को सींक में... फिर उसने धीमे से एक चिट्ठी निकाली बहुत पुरानी चिट्ठी.. माँ की किसी सहेली की थी. मोबाइल के जमाने में चिट्ठियाँ अजायबघर की एक चीज़ मालूम होती थी. उसने पढ़ना शुरू किया चिट्ठी कुछ ऐसी लिखावट में थी कि वह समझ नहीं पायी अब वह चिट्ठियों को माला के मोती की तरह निकालती और पढ़ती..वह कुछ समझ रही थी और कुछ नहीं उसके हाथ लगभग काले हो चुके थे लेकिन इस कमरे का तिलिस्म था कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था.. बस अब चार पाँच चिट्ठियाँ ही बची थी.सुगंध माँ के आने से पहले उन्हें भी पढ़ लेना चाहती थी..उसने फिर तार से एक चिट्ठी निकाली..पढ़ना शुरू किया.
‘मेरी प्रिया..सम्बोधन माँ के लिए था वह आगे पढ़ने लगी..मैं जानता हूँ कि अब तुम चली जाओगी... हमेशा के लिए..खुश रहना मैं कुछ नहीं कर पाया. तुम्हारे लिए ..करता कुछ पर तुमने ही रोक दिया...विश्वास को तुम पसंद थी पर तुम्हें तो विश्वास कभी पसंद ना था विश्वास की सतही समझ से कैसे निबाह करोगी तुम.. ? मैं जानता हूँ विश्वास के पिता के उपकार! और ये भी जानता हूँ कि कभी-कभी रूहानी मसलों को सामाजिक मसले खा जाते हैं..हमें अपनों से ही लड़ना होता है पर सब कहां लड पाते हैं?. मुझे ..कभी-कभी डर लगता है..तुम्हारी चुप्पियों से जो किसी बूढ़े पहाड़ की गुफा जैसी लगती हैं जहाँ अँधेरा ही अँधेरा है..काश!मैं तुम्हें उजाले में खींच लाता पर..तुम घबराना मत, मैं हमेशा तुम्हारे आसपास ही रहूंगा..बस तुम हाथ बढाकर टटोलना मैं वहीं चट्टान-सा खड़ा मिलूंगा..
तुम्हारा असद”
असद अंकल..........!
चिट्ठी पढ़कर सुगंध का दिल ना जाने क्यों घबराने लगा?जैसे छाती पर कोई ज़ोर-ज़ोर से मुक्क्र बरसा रहा हो...असद अंकल पापा के दोस्त...अक्सर घर आते रहते है उसे कितना प्यार करते हैं?और हमेशा चुप रहने वाली माँ.. उनके आते ही तेज़ी से काम करने लगती है और बीच-बीच में मुस्कुरा भी देती है....सुगंध का किशोर मन बहुत कुछ समझ रहा था..पिछले कुछ महीनों से अथर्व का स्कूल कोरीडोर में खड़े होकर उसकी ओर टकटकी लगाकर देखना...वह उस समय गुलाबी होकर चुपचाप क्लास की दीवार से लगी बेंच पर बैठ जाती है और गुलाबी सपनों के धागों से खेलने लगती है तो माँ भी तो..सुंगध सारी चिट्ठियों को फिर से तार में पिरो रही है.अब वह इन्हें संदूक के हवाले कर देगी..माँ शायद कभी नहीं जान पायेगी...कि असद अंकल के आने पर उनके होंठों पर जो धूप के तिनके उड़कर चले आते हैं और माँ की चुप्पियों को गिराकर फिर उड़ जाते है वह उन्हें देख चुकी हैं और संदूक में रखे माँ के सपनों को भी......
सुगंध वो बंद दरवाजा जो मां ने कभी ना खोलने के लिए कहा था उसे फिर से बंद कर आई थी।