25 सितम्बर 2024
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शब्दों को अर्थपूर्ण ढंग से सहेजने की आदत।D
तुम!हंसते रहे हो, सदा ही,अपशब्द पर भी,जबकि- सामर्थ्य में,कोई कमी,नहीं रही तेरे।संहार की,असीमित शक्ति! सुदर्शन के बावजूद,मुरली के,प्रेम धुन से,मोह लिया सबको।वैभवशाली! राजमहल में,दीन
एक,शब्द वह है,जिससे लोग- खुद ब खुद,खिंचे चले आते हैं,इसकी सुगंध को,ढ़ुढ़ते हुए, भौंरों की तरह।लेकिन- जब यही शब्द! बहकते हैं,तब जीवन में,तूफान! और आंखों में,आंसुओ का सैलाब!!&nb
मेरी-आजादी! या यूं कहें कि-स्वाधीनता!! उन्होंने छीन ली,जिनकी- आजादी के लिए, मैंने-अपना सर्वस्व! न्योछावर किया।घर हो या बाहर,परिवार हो या समाज,सभी जगहों पर, अपनत्व की भावन
रिश्तों में,जब से,चली जाने लगीं, उनके द्वारा, शतरंज की,शातिराना चालें।तभी से,मैं भी,शतरंज का,शौकीन हो गया। अब घाव! सहने और देने, दोनों में,मैं माहिर हो गया।© ओंकार नाथ त्रिपाठ
पूरी-जिंदगी मेरी,धीरे-धीरे- खुश फहमी में,एक-एक दिन करके,गुजरती रही।आंख तो तब,खुली की खुली रह गयी,जब पीछे!मुड़कर देखा,सिर्फ मेरा साया ही,मेरे साथ चलते पाया।जवानी पूरी,जुनून से भरी रही,फुर्सत कहां
दिन की,शुरुआत से लेकर, शाम!ढलने तक,कभी तुम रही,और कभी-तेरी! यादें रहीं।अकेला!कभी भी, मैं नहीं रहा,तेरे बगैर।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nbs
तुम!कितनी,बेवकूफ हो,कि तेरा- झूठ! पकड़ लेता हूं मैं।और- मैं भी!कोई कम, मूर्ख नहीं, जो हर बार! तुझ पर,यकीन! कर लेता हूं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर
मैं!रबर से,हमेशा ही,मिटाता रहा,लोगों की उन-गलतियों को,जो सामाजिक! नहीं रही।और-अपनी,सच्चाइयों को,लिखने से,बचाता रहा, पेंसिल को।इसका!अमिट छाप, छुटता गया,जीवन के,काल खण्ड पर।लोगों को,दिया
हम!शून्य होकर भी,सीखते रहे,शून्य के, आकार से,शून्य का महत्व।देते रहे,विश्व को,इसके- महत्व का ज्ञान। तभी तो,आज!दुनिया को,गिनती आयी।तब!क्यों न?हम!एक दुसरे के,पीछे का,शून्य बनकर, एक द