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आस्था

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हरि-रस तौंऽब जाई कहुँ लहियै । गऐं सोच आऐँ नहिं आनँद, ऐसौ मारग गहियै । कोमल बचन, दीनता सब सौं, सदा आनँदित रहियै । बाद बिवाद हर्ष-आतुरता, इतौ द्वँद जिय सहियै । ऐसी जो आवै या मन मैं, तौ सुख कहँ लौं क

जा दिन संत पाहुने आवत । तीरथ कोटि सनान करैं फल जैसी दरसन पावत । नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै चरन-कमल चित-लावत । मन बच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत और सुमिरावत । मिथ्या बाद उपाधि-रहित ह्वैं, बिमल-बिमल ज

सब तजि भजिऐ नंद कुमार । और भजै तैं काम सरै नहिं, मिटै न भव जंजार । जिहिं जिहिं जोनि जन्म धार्‌यौ, बहु जोर्‌यौ अघ कौ भार । जिहिं काटन कौं समरथ हरि कौ तीछन नाम-कुठार । बेद, पुरान, भागवत, गीता, सब कौ

चकई री, चलि चरन-सरोवर, जहाँ न प्रेम वियोग । जहँ भ्रम-निसा होति नहिं कबहूँ, सोइ सायर सुख जोग । जहाँ सनक-सिव हंस, मीन मुनि, नख रवि-प्रभा प्रकास । प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि-डर, गुंजत निगम सुवास ।

अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल। काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥ महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल। भरम भरयौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥ तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल। म

महादेवी महालक्ष्मी नमस्ते त्वं विष्णु प्रिये। शक्तिदायी महालक्ष्मी नमस्ते दुःख भंजनि।। श्रेया प्राप्ति निमित्ताय महालक्ष्मी नमाम्यहम। पतितो द्धारीणि देवी नमाम्यहं पुनः पुनः देवांस्तवा संस्तुवन्ति

श्लोक ॐ गजाननं भूंतागणाधि सेवितम्,    कपित्थजम्बू फलचारु भक्षणम्। उमासुतम् शोक विनाश कारकम्,      नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम्॥ गाइये गनपति जगबंदन  ।               संकर-सुवन भवानी नंदन ॥ 1 ॥ गाइये ग

जय गणेश, जय गणेश,    जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती,      पिता महादेवा ॥ एक दंत दयावंत,         चार भुजा धारी । माथे सिंदूर सोहे,         मूसे की सवारी ॥ जय गणेश जय गणेश,    जय गणेश देवा । माता

जो दुष्टों की चाल नहीं चलता जो पापियों की राह नहीं जाता न बैठता खिल्ली उड़ाने वालों के संग धन्य व्यक्ति है वो कहलाता।। 1।। जो उसकी व्यवस्था से प्रसन्न रहता जो  चरणों में उसके सदा ध्यान करता सब का

होड़ लगी है भगवान तेरे दर पर सीष झुकाने की माँ बाप से लड़कर ही सही जल्दी है तेरे दर पर आने की होड़ लगी है भगवन..... भूके को एक रोटी न दे पर जल्दी है तेरा भोग लगाने की होड़ लगी है भगवन ........ प्या

भगवान में रखते है सभी विश्वास,अपनी अपनी आस्था; कुछ साकार तो कुछ निराकार ,लेकिन रखते है अपनी अपनी आस्था।कुछ आस्थाओं पर चोट करते है, दुःख की घड़ी में वही ईश्वर से आस करते है;कुछ सुख आने पर आस्थाओं पर,दुष्टों के साथ मिल कर अट्टहास करते है;आने वाले कष्ट उन सभी दुष्टों को,ईश्वर

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*इस संसार में सबकुछ परिवर्तनशील है ! समय बहुत ही बलवान एवं परिवर्तनीय है ! वैसे तो यह कहा जाता है कि बीता हुआ समय कभी वापस नहीं लौटता यद्यपि यह सत्य भी है परंतु उसके साथ यह भी सत्य है कि समय स्वयं को दोहराता है | इस संसार में अनेक लोग सत्य को नकारने का प्रयास करते हुए उसके विरुद्ध अनेकानेक उपाय एवं

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“ओह कहां रह गई होगी आखिर वो? सारे कमरे में ढूंढनेके बाद सुधीर ने फिर कहा“अरे सुनती होतुमने कोशिश की ढूंढने की”?“हां बहुत ढूंढ ली नहीं मिली.” रमा ने कहा.थोड़ी देर बाद 17वर्षीय मनोहर जो कि उनका छोटा पुत्र था वो भी आ गया और कहने लगा “पिताजी धर्मशाला के आसपास की जिनती भी दु

एक बार की बात है, हर जीवधारी में भगवान का रूप देखने वाले एकनाथ ने एक प्यासे साधारण से गधे के अंदर भगवान का रूप देखकर उसको गंगाजल पिला दिया। तो साथ चल रहे लोगों ने विरोध करना शुरू किया और आश्चर्य से कहने लगे, ‘महाराज! भगवान शंकर को जो जल चढ़ाना था, वह आप किसको पिला रहे

धार्मिक होने का मतलब आस्तिक होना नहीं, नास्तिक होने का मतलब धार्मिक होना नहीं. एक नास्तिक धार्मिक हो सकता है और एक आस्तिक ज़रूरी नहीं की धार्मिक ही हो. धर्म और आस्था दो अलग विषय है. आस्था ईश्वर में होती है , धार्मिक गुरुओं में नहीं.

लघुकथाभस्मासुर - अलख निरंजन!- आ जाइए बाबा पेड़ की छाह में। बाबा के आते ही वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया- आज्ञा महाराज। बाबा ने खटिया पर आसन जमाया। बोले- बच्चा, तेरा चेहरा मुरझाया हुआ है। दुःखी लगते हो। दुख का करण बता, बेटा। चुटकी में दूर कर दूंगा। - एक दुख हो तो बताऊं। दुख का बोझ उठाते-उठाते मैं हं

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वास्तु शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ: समरांगण सूत्रधार, मानसार, विश्वकर्मा प्रकाश, नारद संहिता, बृहतसंहिता, वास्तु रत्नावली, भारतीय वास्तु शास्त्र, मुहूत्र्त मार्तंड आदि वास्तुज्ञान के भंडार हैं। अमरकोष हलायुध कोष के अनुसार वास्तुगृह निर्माण की वह कला है, जो ईशान आदि कोण से आरंभ होती है और घर को विघ्नों

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मां दुर्गा का प्रत्येक स्वरूप मंगलकारी है और एक-एक स्वरूप एक-एक ग्रह से संबंधित है। इसलिए नवरात्रि में देवी के नौ स्वरूप की पूजा प्रत्येक ग्रहों की पीड़ा को शांत करती है।देवी माँ या निर्मल चेतना स्वयं को सभी रूपों में प्रत्यक्ष करती है,और सभी नाम ग्रहण करती है। माँ दुर्गा के नौ रूप और हर नाम में एक

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भाद्रपद (भादों मास) की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर आश्विन मास की अमावस्या तक कुल सोलह तिथियां श्राद्ध पक्ष की होती है। इस पक्ष में सूर्य कन्या राशि में होता है। इसीलिए इस पक्ष को कन्यागत अथवा कनागत भी कहा जाात है। श्राद्ध का ज्योतिषीय महत्त्व की अपेक्षा धार्मिक महत्व अधिक है क्योंकि यह हमारी धार्मिक आस

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पितृ सदा रहते हैं आपके आस-पास। मृत्यु के पश्चात हमारा और मृत आत्मा का संबंध-विच्छेद केवल दैहिक स्तर पर होता है, आत्मिक स्तर पर नहीं। जिनकी अकाल मृत्यु होती है उनकी आत्मा अपनी निर्धारित आयु तक भटकती रहती है। हमारे पूर्वजों को, पितरों को जब मृत्यु उपरांत भी शांति नहीं मिलती और वे इसी लोक में भटकते रह

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