बचपन घूमता था,
घर की परिधी के भीतर।
जहां थे बहुत सारे,
जाने-पहचाने चेहरे।
कुछ जवान - कुछ बुजुर्ग।
जो थे मुझे बहुत प्यारे।
कुछ मुझे बहलाते थे।
और कुछ डराते थे।
कुछ सुनाते थे कहानियां,
जो मुझे ले जाती,
सपनों के बादलों की ओर।
कभी सब जादुई लगता,
और कभी रहस्य,
लेकिन फिर भी,
देखता हर पल सपना।
खेलता मन के खेल,
लकड़ी को मान लेता,
जादू की छड़ी,
घुमाने लगता हवा में चारो ओर,
पेड़ पर बैठी,
चिड़ियों को उड़ा देना,
कतार में चलती चीटियों को,
राह से भटका देना,
मिट्टी में चलते केचुंओं को देखकर,
उन्हें कागज पर चढाकर,
धीरे-धीरे सरकते देखना,
बड़े अजीब थे बचपन के खेल,
कौतूहल से भरे,
उत्सुकता और भय का मिश्रण,
फिर भी लगे रहते,
किसी वैज्ञानिक की भांति,
बिना थके - बिना रूके,
किसी छोटी सी चींटी की भांति,
नन्हें-नन्हें पगों को भरती,
फिर चली जाती अपने घर की ओर।