प्राचीन धर्म
ग्रन्थ कहते है '' जो धारण करने योग्य हो '' वह धर्म है । लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में धर्म आडम्बर से ज्यादा कुछ नहीं ।
हम किसी भी धर्म की आलोचना , अच्छाई या बुराई में नहीं पड़ना
चाहते । लेकिन इतना ज़रुर है कि जब कोई धर्म के नाम पर इंसानों का बंटवारा करता है; धर्म के सीने में खंजर घोपने का कम करता है । धर्म में निष्ठा छिपी है, यही निष्ठा धर्म को मानने न मानने का आधार है । श्रीमद्भगवदगीता में भगवन्
कहते हैं -
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः
स्मृतिर्ग्यानमपोहनम् च ।
वेदैश्च सर्वेरहमेव
वेद्योवेदांतकृद्वेदविदेव
चाहम् ।।
अर्थात मैं ही सब प्राणियों के हृदय में
अंतर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (विचार के द्वारा बुद्धि में रहने वाले संशय, विपर्यय आदि दोषों को हटाने का नाम 'अपोहन' है) होता
है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य (सर्व वेदों का तात्पर्य परमेश्वर को
जानने का है, इसलिए सब वेदों द्वारा ''जानने के योग्य '' एक
परमेश्वर ही है) हूँ तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ ।।
अब अगर ईश्वर एक ही है, तो विभिन्न रूपों में भगवान को
मानकर हम आपस में क्यों लड़ रहे हैं । धर्म के नाम पर झगड़ना बेवकूफी है । इंसानों
में धर्म, क्षेत्र के नाम पर बंटवारा केवल मन का भ्रम है । सारा संसार एक ही परमपिता की
संतान है । धर्म क्या है ? ऐसा कहने वालों की कमी नहीं है और
होनी भी नहीं चाहिए ! इसके पीछे कुछ तथ्य हैं । आज तक जो धर्म हमें बताया गया, वो तो समाज की जड़ें काटने पर तुला है । जिसे हमने धर्म समझा है उसने ऊँच-नीच
की चौड़ी खाई तैयार कर दी । इंसानों को धर्म के नाम से चिढ़ हो गयी कारण यही कि धर्म
के ठेकेदारों ने उसे विक्रय की वस्तु माना । किसी भी धर्माचार्य ने हमें धर्म का
वास्तविक अर्थ नहीं बताया । किसी भी आधुनिक ग्रन्थ ने सत्य को स्वीकार नहीं किया ।
हम अक्सर धर्म ग्रंथों में लिखी हुई बातों को समझने में भूल कर बैठते हैं ।
यह भूल हमें धर्म मार्ग से हटाकर कभी - कभी अधर्म की ओर भी लिए जाती है । भारतीय
परिदृश्य में एक बात तो साफ़ है, यहाँ धर्म ग्रंथों पर जो भी टीकाएँ
और टिप्पणियाँ की गयी वो कही न कहीं व्यक्तिवाद से प्रेरित रहीं । इस तरह हम जो
जानकारी चाहते थे उससे वंचित रह गये । अब श्रीमद्भगवद्गीताके इस श्लोक को ही देखते
हैं -
श्रेयान्स्वधर्मो
विगुणः परधर्मात्स्वानुष्ठितात ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम
।
"अर्थात अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म
श्रेष्ठ है; क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को
प्राप्त नहीं होता" ।।
अब यदि इस श्लोक के भावार्थ पर नजर डालें तो स्पष्टतः एक ऐसा तथ्य निकल कर
आता है जो धर्मों के बीच विरोधाभास को दिखाता है । लेकिन क्या वास्तव में महात्मन
श्री कृष्ण ने धार्मिक विद्वेष की बात की होगी ? नहीं उनके कहने का मतलब ही अलग रहा होगा ! जहाँ तक हमारी छोटी बुद्धि समझती है, भगवान का कथन किसी आधुनिक धर्म की ओर कतई नहीं रहा होगा, क्योंकि उस समय तो सनातन धर्म ही था । जो सर्व मान्य आर्यों का धर्म था ।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से उस धर्म की बात कही होगी जो वर्ण व्यवस्था के आधार पर था ।
आप सब जानते है कि अर्जुन ने कुरुक्षेत्र में अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर
हथियार डाल दिए थे । अर्जुन युद्ध करने से मना कर रहे थे । ऐसे में विष्णु अवतार
श्री कृष्ण ने उनसे '' क्षत्रिय धर्म '' के आदर्शों की बात कही और दूसरे धर्मों ( ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र ) को इस दशा में कमतर कहा । अब यदि सीमा पर फ़ौजी लड़ाई से
इंकार करे तो यह सैनिक धर्म के विपरीत ही तो हुआ ।
धर्म के विषय में यजुर्वेद में अध्याय ३६ के १७ वें सूक्त में कहा गया है
कि ''चारों ओर से शांति बरस रही है । स्वर्ग लोक में भी शांति की
वर्षा हो रही है । अंतरिक्ष में भी शांति व्याप्त है । पृथ्वी पर रची बसी सभी
चीजों से शांति बरस रही है । पानी जो कण-कण में समाया हुआ है, बड़ी ही शांति से जीवों को पाल रहा है । कभी भी पानी के मन
में ईर्ष्या-द्वेष, शत्रुता या
साम्प्रदायिकता का भाव नहीं आया और न ही कभी पानी ने अपने जलधर्म से विरोध ही किया
है (अर्थात पानी ने मगरमच्छ और मछली दोनों को ही बराबर स्थान दिया है) । वह तो सभी
जीवों को आश्रय देकर जल धर्म का निर्वाह कर रहा है । जल शांति प्रदान कर रहा है'' ।
लेकिन आज धर्म के नाम पर अशांति, जिहाद, धार्मिक स्थलों में तोड़-फोड़, आगजनी और भी न जाने क्या-क्या हो
रहा है । मानव धर्म को भूल इंसान जाने किस अंधे कुँए की ओर जा रहा है । अरे जब आगे
अँधेरा है तो स्वाभाविक सी बात है कि शक्ति और बुद्धि का प्रयोग व्यर्थ है, वहाँ कुछ भी मिलने वाला नहीं है । लेकिन हमारे शास्त्रों में एक सूक्ति है कि ''हर अँधेरे के पार रौशनी होती है'' । लोग इस उदाहरण को
आगे रखकर बुरे कर्मों को भी अच्छी राह ले जाने का प्रयास करते है । परन्तु भूल
जाते हैं कि अँधेरा चाहें जितना सघन हो लेकिन रोशनी को रोक पाने में वह असमर्थ है, कोई न कोई किरण तो पार आ ही जाती है । अर्थात लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है । हाँ
यह हो सकता है कि लक्ष्य अच्छी तरह से दृष्टिगोचर न हो किन्तु अंधकारमय भी नहीं
होगा यह सत्य है । लक्ष्य को पाने के लिए प्रज्ञा (ज्ञान) की भी जरुरत होती है और
प्रज्ञा शांति से आती है । अतः शांति ही कर्म, लक्ष्य और धर्म का आधार है । जो शांति में खलल डालता है वह धर्म नहीं है ।
लेकिन अफ़सोस हमारे पाखंडी धर्मवेत्ताओं ने श्लोकों की अनुचित व्याख्या कर
हम मनुष्य रुपी प्राणियों को आपस में लड़ने का मंच तैयार कर दिया । इसके पीछे इनकी
मंशा यही रही होगी जो हमें गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों की थी । हम धर्म के नाम पर
लड़कर दिन-प्रतिदिन पीछे ही खिसक रहे है । ऐसे में जरुरत है धर्म के सही ज्ञान की, जिससे हम आपसी मतभेदों को भुलाकर प्रगति की ओर बढ़ सके ।