तपिश ज़ज़्बातों
की मन में,
न जाने क्यों
बढ़ी जाती ?
मैं औरत हूँ तो
औरत हूँ,
मग़र अबला कही
जाती ।
उजाला घर मे जो
करती,
उजालों से ही
डरती है ।
वह घर के ही
उजालों से,
न जाने क्यों
डरी जाती ?
जो नदिया है
परम् पावन,
बुझाती प्यास तन
मन की ।
समन्दर में मग़र
प्यासी,
वही नदिया मरी
जाती ।
इज़्ज़त है जो
घर-घर की,
वही बेइज़्ज़त
होती है ।
रिवाज़ों के
लबादों से,
वही इज़्ज़त दबी
जाती ।
औरत तब भी औरत
थी,
औरत अब भी औरत
है ।
न जानें क्यों
इस दुनियाँ से,
ये दुनियाँदारी
नहीं जाती ।।