निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
निज भाषा के ज्ञान बिन मिटै न हिय को शूल ।।
सारे विश्व में भाषा को देशों की पहचान माना जाता है । भाषा संस्कृति का दर्पण है । लेकिन भारत के परिप्रेक्ष्य में भाषाएं देश का आभूषण हैं, संस्कृति का प्रतिबिम्ब हैं और इसका कारण भारत का बहुभाषीय तथा संस्कृतिबहुल देश होना है । ऐसा भी नहीं है कि भारत के अतिरिक्त अन्य सभी देशों में भाषायी एकरूपता है । कई देशों में एक से ज़्यादा भाषाएं प्रचलन में हैं लेकिन राजकीय या राष्ट्रीय भाषा एक ही है और इसका सीधा सा कारण भाषा का देश की पहचान होना है । भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐसा नहीं है क्योंकि ग़ुलामी की मानसिकता में जकड़े हुए हम आज तक ग़ुलामी की भाषा ढो रहे हैं । अंग्रेज़ों के प्रति अनूठी वफ़ादारी दिखाते हुए नीति-नियंताओं ने भारत में अंग्रेज़ी को राज-काज की भाषा बना के देश पर ज़बरन थोप दिया । धीरे-धीरे समय के साथ-साथ अंग्रेज़ियत हावी होती चली गयी । व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी अंग्रेज़ीमय हो गये । भारत में केवल पत्रकारिता ही एक ऐसी व्यवस्था रही जिसने न सिर्फ़ भारतीय भाषाओं को आश्रय दे कर अपनाया अपितु उसने भारतीय भाषाओं का कायाकल्प कर उन्हें नए रूप में स्थापित भी किया । लेकिन अब लगता है कि लोकतन्त्र के इस चतुर्थ स्तम्भ का भी मन राजभाषा हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं से उचटने लगा है । शायद इसीलिए आज हिन्दी के समाचार माध्यम अंग्रेज़ी का तड़का लगाने में कोई गुरेज नहीं करते ।
भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते कदमों ने जहाँ भाषाओं के दायरे को और व्यापक करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है वहीं भाषा के स्वरूप के साथ खिलवाड़ करते हुए अंग्रेज़ियत के आधुनिक स्वरूप का श्रेय भी इसी मीडिया को जाता है । ख़ासतौर पर मीडिया के निजीकरण की शुरुआत के साथ ही भाषा के साथ नए-नए प्रयोगों की भी शुरुआत हुई । अब इसे या तो पाश्चात्य प्रेरणा कहें या फिर गुलाम मानसिकता, लेकिन एक बात जो सत्य है वह ये कि अंग्रेज़ी को भारत का कथित भद्र समाज अपनी भाषा मानता है और भारत का मीडिया वर्ग आज इसी समाज के कब्ज़े में है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाम पर लोक प्रसारण सेवा ने ज़रूर भारतीय भाषाओं विशेषतया हिन्दी (कथित राष्ट्रभाषा) के सम्मान को बचाए रखने का प्रयास किया है, इसमें भी आकाशवाणी का स्थान प्रमुख है । आज के समय में समाचार माध्यम सूचना के सर्वश्रेष्ठ साधन के रूप में सामने या है । आज ये माध्यम पूरी तरह समाज के मानस पटल पर छा गए हैं । आचार-विचार, खान-पान, भाषा-भूषा और सोच का दायरा आज इन्हीं सूचना के साधनों पर निर्भर हो गया है । स्वभाविक ही है कि ऐसे में समाज के मनोभावों पर इनका अच्छा-खासा प्रभाव दृष्टिगत होगा ।
भारतीय संविधान के 17 वें भाग की अनुच्छेद संख्या 343 हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा देती है, लेकिन वहीं दूसरी ओर उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के साथ ही विधायी प्रक्रिया की भाषा को अंग्रेज़ी बताकर हिन्दी को पंगु बनाने की भी व्यवस्था संविधान दे देता है । संविधान की अनुच्छेद संख्या 345 में राज्यों के परस्पर सम्बन्धों और संघ तथा राज्यों के मध्य सम्बन्धों में राजभाषा अर्थात हिन्दी को ही प्राधिकृत भाषा माना गया है । परन्तु दुर्भाग्य राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए हिन्दी की उपेक्षा आम बात है । भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन इसकी विभीषिका को बयां करता है ।
देश के नियंताओं के सुर विदेशी भाषा में ही निकलते हैं । ये भारतीय भाषाओं को ही तिलांजलि दिए बैठे हैं । अब जननायक जो भी राह बनाएंगे ये भेड़ चाल चलने वाला देश आँख मूंदकर उसी राह पर चलता जाएगा । आज भारत का एक ख़ास वर्ग यह दलील देता है कि बिना अंग्रेज़ी के देश विकास नहीं कर पाएगा । आज मीडिया भी इसी धारणा का साथ देते हुए इनके सुर में सुर मिलाता दीखता है । वैसे मैं इस बात से सहमत हूँ कि कोई भी भाषा बुरी नहीं होता लेकिन आत्म-गौरव भी कोई चीज है ! क्या सभी कॉमनवेल्थ देश अंग्रेज़ी को ही माँ-बाप मानते हैं ? एक बात और जब आज वैश्विक स्तर पर संस्कृत को सबसे वैज्ञानिक भाषा मान लिया गया है तब क्यों हम पश्चिमी भाषाओं के पालतू बने हुए हैं । हिन्दी, संस्कृत का ही आधुनिक स्वरूप है और हिन्दी के तत्सम शब्द इसके प्रमाण हैं । ग़लती किसी जनसाधारण की नहीं है अपितु सम्भ्रान्त वर्ग द्वारा अंग्रेज़ी के प्रयोग ने एक प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है । “आज अंग्रेज़ी भाषा न रहकर हैसियत प्रमाणपत्र बन गयी है” । आज बाज़ार पर अंग्रेजीदां का एकाधिकार है और धन की आगत इसी बाज़ार से होती है । ऐसे में बाज़ार से जुड़े हुए लोगों का अंग्रेज़ी की गिरफ़्त में आना स्वाभाविक है ।
भारत देश में 5 फ़ीसदी से भी कम लोग अंग्रेजी बोलने वाले हैं और 95 फ़ीसदी से ज़्यादा भारतीय भाषाएं जानने वाले, उनमें भी लगभग दो तिहाई हिन्दी-भाषी हैं । ऐसे में हिन्दी की उपेक्षा समझ से परे है । विश्व में दूसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी आज नीतिगत लकवे की शिकार है और यही नीतिगत अक्षमता हिन्दी को लगातार कमज़ोर किए जा रही है । आज यह ध्यान देने की बात है कि “हिन्दी हमारी माँ है और भारतीय भाषाओं सहित उर्दू, अंग्रेज़ी हमारी मौसियां” हैं । पहले माँ होती है और तब मौसी, क्योंकि माँ के बिना मौसी का कोई अस्तित्व ही नहीं है । लेकिन भारतीय माँ को तिरस्कृत करने का अपराध कर रहें हैं । आम जनजीवन में आज भाषायी संकरता का चलन अत्यधिक जोरों पर है । इससे हिन्दी का रूप विकृत होता जा रहा है । अब तो लगने लगा है कि संकरण की यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे हिन्दी को कान्तिहीन और हिन्दी भाषियों को वर्णसंकर कर के ही दम लेगी ।
(राघवेन्द्र कुमार “राघव”)