नदियाँ हमारा रक्षण करने वाली हैं । नदियाँ अन्नोत्पादन में सहायक हैं । नदियों का जल अमृत रूप है । नदियाँ जीवन का आधार हैं फिर भी मनुष्य इन्हें मैला कर रहा है । वेद-वेदांग नदियों की स्वच्छता पर विशेष बल देते हैं । रोगों का नाश कर, मानव जाति का कल्याण करने वाली नदियाँ प्रदूषण की मार से बेज़ार हैं । ऋग्वेद में कई ऋचाएं इस ओर ध्यान आकृष्ट कराती हैं ।
या प्रवृत्तो निवत उद्धत उदन्वतीरनदुकाश्च याः ।
ता अस्मभ्यंपयसा पिन्वमानः शिवा देवीरशिपदा भवन्तु सर्वा नद्द्यो अशिमिदा भवन्तु ।।
जो नदियाँ प्रबल (या प्रवण) देश में जाती हैं, जो निम्न देश में जाती हैं, जो जलयुक्त और जलशून्य होकर संसार को तृप्त करती हैं । वे सारी प्रकाशक नदियाँ हमारे शिपद नामक रोग का नाश करके कल्याणकारी बनें । वे नदियाँ अहिंसक हों ।
आज देश की सैकड़ों नदियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं और सैकड़ों लुप्त हो चुकी हैं । ऐसी ही अपने दुर्भाग्य पर रोती एक पौराणिक नदी “सई” है । अवध क्षेत्र की नदियों में सई का प्रमुख स्थान है । आज जब वैश्विक स्तर पर ‘वेटलैंड’ के संरक्षण की मुहिम जोर पकड़ रही है, तब यह जानना समीचीन होगा कि सई का उद्दगम वेटलैंड ही है । सैकड़ों हेक्टेयर की भूमि में फैले ‘दहर’ नाम के वेटलैंड से सई को जीवन मिलता है । दहर झील प्रवासी पक्षियों की ऐशगाह भी है । किन्तु दुर्भाग्य... सरकारी अमला इस तथ्य से अनजान है । सई नदी को जल उसके प्राकृतिक जल श्रोतों से मिलता है । सई में हजारों वेटलैंड मौजूद है । लेकिन अब यह सब ख़त्म होकर समतल भूमि में तब्दील हो चुके हैं । प्रदेश में पक्षियों की 37 प्रतिशत प्रजातियाँ वेटलैंड पर ही निर्भर हैं । वेटलैंड का वैज्ञानिक प्रबन्धन किए जाने की आवश्यकता है । नदियों के जलस्तर और भूमिगत जलस्तर को बनाये रखने में इनका अतुल्य योगदान है । कुछ परियोजनाओं को छोड़कर वेटलैंड का प्रबन्धन अभी भी दूर की कौड़ी बना हुआ है ।
उत्तर प्रदेश का राजकीय पक्षी सारस वेटलैंड में पाए जाने वाले पक्षियों में प्रमुख है । सारस सई के तटीय क्षेत्रों में बहुतायत के साथ पाया जाता है । समाजसेवी संगठन ह्यूमन वेलफेयर सोसाइटी कई वर्षों से सई के पर्यावरण पर बिना किसी सरकारी इमदाद के अपने स्वयंसेवकों के साथ कार्य कर रहा है ।
‘सई उतरि गोमती नहाये, चौथे दिवस अवधपुर आये’।। श्रीराम की वनवास यात्रा में उत्तर प्रदेश की जिन पांच प्रमुख नदियों का जिक्र है, उनमें से एक है – सई । पुराणों में इसे आदि गंगा कहा गया है । शेष चार नदियां हैं - गंगा, गोमती, सरयू और मंदाकिनी । सई का समाज आज भी इस कथा का जिक्र कर स्वयं को गौरवान्वित तो महसूस करता है; किंतु इस कुदरती गौरवशाली प्रवाह के गौरव को बचाने के लिए विशेष चिंतित नहीं दिखाई देता । मैंने सई यात्रा के दौरान इस हकीकत को बड़ी बेचैनी के साथ महसूस किया । ताज्जुब हुआ कि ज्यादातर आबादी इसके भूगोल तक से परिचित नहीं है । सई गोमती की प्रमुख सहायक नदी है । हरदोई जनपद से दहर नाम की एक विशाल झील से निकलकर लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, प्रतापगढ़ होते हुए जौनपुर जिले के जलालपुर नामक स्थान पर राजघाट में सई 715 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद गोमती नदी में समाहित हो जाती है । सरीसृप प्रजाति के जीवों की भांति विषर्पाकार होने के कारण इसका नाम पहले सरि और कालांतर में अपभ्रंश होकर सई हो गया । सई में दस-दस किलोमीटर लंबे यू टर्न वाले सैकड़ों घुमाव हैं । इतने कठिन घुमाव तथा घुमावों की इतनी अधिक संख्या उत्तरप्रदेश की और किसी नदी में हो, मैंने नहीं देखा । इन घुमावों के कारण इसमें प्राकृतिक रूप से बडी संख्या में गहरे कुण्डों का निर्माण होना स्वाभाविक है । इन कुण्डों के कारण ही ऊपर प्रवाह और नीचे गहरे तक जल का ठहराव दोनों साथ-साथ बने रहते हैं । कुण्डों में जल के ठहराव के साथ - साथ तलछट में दरारें हों, तो भूजल पुनर्भरण के लिए इससे बड़ा वरदान और क्या हो सकता है ? इन ठहरावों के कारण ही सई में जेठ की गर्मी में भी पानी बना रहता है । इसीलिए सई सदानीरा भी कही जाती है । घुमाव और ठहराव से सई में जलीय जीव व वनस्पतिक समृद्धि हमेशा रही है । तमाम विषमताओं के बावजूद सई आज भी मछुआरों को ट्रक भर- भरकर मछलियां देती है । सई की रोहू, सउर, बेलगगरा आदि मछलियां व कछुए मशहूर हैं । हालांकि कमी आयी है, कभी इसमें इतनी वजनी मछलियां पाईं जाती रही हैं, देशी अनुमान के मुताबिक जिन्हे उठा लाने में कई लोग लगते थे । सई के किनारे आंवले, कटहल और आम के लिए मशहूर हैं । सई सचमुच अद्भुत भूगोल वाली नदी है, किंतु गहरे दुर्भाग्य वाली भी । हमारा दुर्भाग्य व बेसमझी न होती, तो क्या इतने कुण्ड, घुमाव, बीहड़ तथा आरक्षित वनक्षेत्र के रहते कोई नदी सूख सकती है ? अब तो लगभग हर वर्ष सई हरदोई, उन्नाव में जलहीन हो जाती है ।
जनपद रायबरेली में कतवारा नैया, महाराजगंज नैया, नसीराबाद नैया, बसदा, शोभ तथा प्रतापगढ़ में भैंसरा, लोनी, सकरनी, बकुलाही आदि छोटी नदियां मिलती है । चार ज़िलों के 94 नाले सई में गंदगी धकेल रहे है । इसमें हरदोई के 18, प्रतापगढ़ के 24, रायबरेली के 39 तथा जौनपुर के 13 नाले शामिल है । प्रदूषण फैलाने में रायबरेली जनपद का अहम योगदान है । यहां की पांच बड़ी फैक्ट्री सई के जल में जहर घोल रही है । सई की प्रमुख सहायक नदी बकुलाही है जो कि उत्तर प्रदेश के रायबरेली, प्रतापगढ़ व इलाहाबाद मे बहती है । लोनी और सकरनी जैसी छोटी नदियाँ सई की सहायक धाराएँ है । प्रतापगढ़ शहर में सई के जल का परीक्षण करने पर घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 3.5 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गयी । इसी तरह बॉयोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड 38.6 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गई, जबकि सामान्य जल में इसकी मात्रा दो से ढाई मिलीग्राम प्रतिलीटर होनी चाहिए । केमिकल ऑक्सीजन डिमांड भी 74.8 मिलीग्राम प्रतिलीटर मिली । दिनोंदिन सई के जल में बढ़ रहे प्रदूषण के स्तर से जलीय जीवों का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है । चिकित्सकों की माने तो ऐसे जल में पल रही मछलियों के सेवन से लीवर, किडनी व कैंसर की बीमारियों का ख़तरा रहता है । गोमती की सहायक यह नदी अब गंदा नाला बन चुकी है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. दीनानाथ शुक्ल का कहना है कि गंदे नालों के साथ ही फैक्ट्री का रासायनिक जल सई को जहरीला बना रहा है । इन पर तत्काल रोक लगने पर ही सई का अस्तित्व बच सकता है ।
----राघवेन्द्र कुमार राघव