किसी की तासीर है तबस्सुम,
किसी की तबस्सुम को हम तरसते हैं ।
है बड़ा असरार ये,
आख़िर ऐसा क्या है इस तबस्सुम में ।।
देखकर जज़्ब उनका,
मन मचलता परस्तिश को उनकी ।
दिल-ए-इंतिख़ाब हैं वो,
इश्क-ए-इब्तिदा हुआ ।
उफ़्क पर जो थी ख़ियाबां,
उसकी रंगत कहां गयी ।
वो गवारा गुलिस्तां,
जीनत को उसकी क्या हुआ ।
वो घर भी यहीं है,
हमसफर भी यहीं हैं ।
एहसास-ए-नज़र का
असर कहाँ गया ।।
ये अन्जुमन है उनकी,
है अर्श इश्क जिनका,
आदाब-ए-आदिल का फ़साना
वो आदमियत का क्या हुआ ।।
(राघवेन्द्र कुमार “राघव”)