‘सई उतरि गोमती नहाये, चौथे दिवस अवधपुर आये’।। श्रीराम की वनवास यात्रा में उत्तर प्रदेश की जिन पांच प्रमुख नदियों का जिक्र है, उनमें से एक है – सई । शेष चार नदियां हैं - गंगा, गोमती, सरयू और मंदाकिनी । सई का समाज आज भी इस कथा का जिक्र कर स्वयं को गौरवान्वित तो महसूस करता है; किंतु इस कुदरती गौरवशाली प्रवाह के गौरव को बचाने के लिए विशेष चिंतित नहीं दिखाई देता । मैंने सई यात्रा के दौरान इस हकीकत को बड़ी बेचैनी के साथ महसूस किया। ताज्जुब हुआ कि ज्यादातर आबादी इसके भूगोल तक से परिचित नहीं है । सई, गोमती की प्रमुख सहायक नदी है । हरदोई जनपद से दहर नाम की एक विशाल झील से निकलकर लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, प्रतापगढ़ होते हुए जौनपुर जिले के जलालपुर नामक स्थान पर राजघाट में सई 715 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद गोमती नदी में समाहित हो जाती है । सरीसृप प्रजाति के जीवों की भांति अत्याधिक घुमावदार होने के कारण इसका नाम पहले सरी और कालांतर में अपभ्रंश होकर सई हो गया । सई में दस-दस किलोमीटर लंबे यू टर्न वाले सैकड़ों घुमाव हैं । इतने कठिन घुमाव तथा घुमावों की इतनी अधिक संख्या उत्तरप्रदेश की और किसी नदी में हो, दिखने में नहीं आता । इन घुमावों के कारण इसमें प्राकृतिक रूप से बडी संख्या में गहरे कुण्डों का निर्माण होना स्वाभाविक है । इन कुण्डों के कारण ही ऊपर प्रवाह और नीचे गहरे तक जल का ठहराव दोनों साथ-साथ बने रहते हैं । कुण्डों में जल के ठहराव के साथ - साथ तलछट में दरारें हों, तो भूजल पुनर्भरण के लिए इससे बड़ा वरदान और क्या हो सकता है ? इन ठहरावों के कारण ही तमाम बेसमझियों के बावजूद सई में जेठ की गर्मी में भी पानी बना रहता है । इसीलिए सई सदानीरा भी कही जाती है । घुमाव और ठहराव से सई में जलीय जीव व वनस्पतिक समृद्धि हमेशा रही है । तमाम विषमताओं के बावजूद सई आज भी मछुआरों को ट्रक भर- भरकर मछलियां देती है । सई की रोहू, सउर, बेलगगरा आदि मछलियां व कछुए मशहूर हैं । हालांकि कमी आयी है, कभी इसमें इतनी वजनी मछलियां पाईं जाती रही हैं, देशी अनुमान के मुताबिक जिन्हे उठा लाने में कई लोग लगते थे । सई के किनारे आंवले, कटहल और आम के लिए मशहूर हैं । सई सचमुच अद्भुत भूगोल वाली नदी है, किंतु गहरे दुर्भाग्य वाली भी । हमारा दुर्भाग्य व बेसमझी न होती, तो क्या इतने कुण्ड, घुमाव, बीहड़ तथा आरक्षित वनक्षेत्र के रहते कोई नदी सूख सकती है ? अब तो लगभग हर वर्ष सई हरदोई, उन्नाव में जलहीन हो जाती है ।
जनपद रायबरेली में कतवारा नैया, महाराजगंज नैया, नसीराबाद नैया, बसदा, शोभ तथा प्रतापगढ़ में भैंसरा, लोनी, सकरनी, बकुलाही आदि छोटी नदियां मिलती है । चार ज़िलों के 94 नाले सई में गंदगी धकेल रहे है । इसमें हरदोई के 18, प्रतापगढ़ के 24, रायबरेली के 39 तथा जौनपुर के 13 नाले शामिल है । प्रदूषण फैलाने में रायबरेली जनपद का अहम योगदान है । यहां की पांच बड़ी फैक्ट्री सई के जल में जहर घोल रही है । सई की प्रमुख सहायक नदी बकुलाही है जो कि उत्तर प्रदेश के रायबरेली, प्रतापगढ़ व इलाहाबाद मे बहती है । लोनी और सकरनी जैसी छोटी नदियाँ सई की सहायक धाराएँ है । प्रतापगढ़ शहर में सई के जल का परीक्षण करने पर घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 3.5 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गयी । इसी तरह बॉयोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड 38.6 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गई, जबकि सामान्य जल में इसकी मात्रा दो से ढाई मिलीग्राम प्रतिलीटर होनी चाहिए । केमिकल ऑक्सीजन डिमांड भी 74.8 मिलीग्राम प्रतिलीटर मिली । दिनोंदिन सई के जल में बढ़ रहे प्रदूषण के स्तर से जलीय जीवों का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है । चिकित्सकों की माने तो ऐसे जल में पल रही मछलियों के सेवन से लीवर, किडनी व कैंसर की बीमारियों का ख़तरा रहता है । गोमती की सहायक यह नदी अब गंदा नाला बन चुकी है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. दीनानाथ शुक्ल का कहना है कि गंदे नालों के साथ ही फैक्ट्री का रासायनिक जल सई को जहरीला बना रहा है । इन पर तत्काल रोक लगने पर ही सई का अस्तित्व बच सकता है ।
सई नदी में पिछले कई वर्षों से कुछ स्वार्थी लोग ज़हर घोलकर मछलियों का अवैध शिकार करते आ रहे हैं । वर्ष 2009 में 4 नवम्बर को भी ऐसी ही एक घटना घटी । हरदोई जिले में थाना बघौली के अन्तर्गत अज्ञात स्थान में नदी में ज़हर घोल दिया गया । तमाम कोशिशों के बाद भी दोषियों का पता नहीं चल पाया । 2009 से अब तक हर साल नदी नवम्बर-जनवरी में ज़हरीली कर दी जाती है । वर्ष 2010 में तमाम कोशिशों के परिणाम स्वरूप उप जिलाधिकारी सदर व क्षेत्राधिकारी नगर ने घटना स्थल का निरीक्षण किया और कार्यवाही का आश्वासन दिया । कार्यवाही के नाम पर थाना बघौली में अज्ञात के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कर कुछ को पकड़ कर मामला थाने से ही रफा-दफा कर दिया । सई पर्यावरण संरक्षण जनक्रांति के रूप में ह्यूमन वेलफेअर सोसायटी द्वारा शुरू किये गये इस अभियान को व्यापक जनसमर्थन मिला किन्तु कोई विशेष सफलता नहीं । आदित्य त्रिपाठी (हरदोई), नीलकण्ठमणि पुजारी और अखिलेश सिंह (लखनऊ), शशांक वर्मा (सुल्तानपुर) के साथ सैकड़ों कार्यकर्ता विगत वर्षों से जनजागरण, संगोष्ठी, वृक्षारोपण के साथ-साथ पत्र-व्यवहार के माध्यम से सई की अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं । ढुलमुल सरकारी नीतियां, खानापूर्ति करता प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और विकास की मृगतृष्णा में फंसा इंसान नदियों के लिये यमदूत बन गया है । ऐसे में सरकार के साथ-साथ आम जनों को भी पर्यावरण के प्रति सजगता और जिम्मेदारी की भूमिका तलाश करनी होगी ।