मुलायम से लोहिया
गणतन्त्र दिवस के बहाने भारत में लोकतंत्र की स्थिति पर चर्चा आम है । लोकतंत्र भी ऐसे में खुश हो जाता है... यही सोचकर चलो मैं जिंदा तो हूँ । लेकिन ये अपने ठलुए दार्शनिक हैं न, मानते ही नहीं, लोकतंत्र की निद्रा को चिरनिद्रा साबित करने के लिए वाद-प्रतिवाद में पड़े ही रहते हैं । खैर ! ये तो इनका काम ही है । अब हम अपने काम की बात करते हैं । लोकतंत्र के साथ ही एक और वैचारिक सत्ता जो इसे पुष्ट करती रही है “’समाजवाद”’ आज हाशिये पर है । प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के साथ ही समतामूलक समाज की पैरोकार यह शक्ति अपने अंतिम पड़ाव पर है । जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया की इस राजनैतिक संपत्ति से अनेक लोगों का राजनैतिक चूल्हा गर्म होता है । इसी के बूते कई प्रदेशों में दल राजनैतिक रोटियां तोड़ रहे हैं । किन्तु यथार्थ में इस परिसंपत्ति का एक ही उत्तराधिकारी है “’मुलायम सिंह यादव”’ । मुलायम सिंह आज की राजनीति में अकेले दम पर ही समाजवाद को ढोते नजर आते हैं ।
आज समाजवाद का यह पुरोधा अपनों के ही जाल में उलझ रहा है । राजनैतिक ज़मीन को हथियाने के प्रयास में समाजवादी, सम्प्रदायवादी हुए जा रहे हैं । सादगी को ठेंगा दिखाते हुए धन की चमक में समाजवादी खो गए हैं । ऐसे में ये कथित समाजवादी ही समाजवाद को कब्र की ओर धकेल रहे हैं । आज के दौर में समाजवाद को पुनर्परिभाषित करने की जरुरत है । ऐसा कोई नया ही कर सकता है । प्रत्येक समाज समय के साथ अपनी मान्यताओं और विचारधाराओं में परिवर्तन लाता है और उन्हें नया करता है । यह परिवर्तन वांछनीय भी हैं । नवीनता आकर्षण लाती है और राजनीति में नीति का आकर्षक होना परम आवश्यक है । समाजवादियों को इस पर ध्यान देने की ज़रुरत है । विकल्प आसान तभी हैं जब बौद्धिक चातुर्य और वैचारिक सरसता स्वयं के लिए भी एक विकल्प की तरह हों । आज जब मुलायम सिंह यादव वैकल्पिक मोर्चे को मूर्त रूप देने की दिशा में बढ़ रहे हैं, रूढ़िगत राजनीति और धृतराष्ट्ररुपी मानसिकता गतिअवरोधक के रूप में सामने हैं । यदि उत्तर प्रदेश सरकार के पिछले बाईस महीने की विवेचना की जाए तो निष्कर्ष के रूप में समाजवाद की हत्या सामने आती है । युवा व स्वच्छ छवि के मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया है लेकिन प्रशासनिक स्तर पर वह पूरी तरह विफल रहे हैं । वैसे भी सत्ता जब बहुकेंद्रीय होती है तो संघर्ष का कारण बनती हैं । ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश में भी दिखाई दे रहा है । आज प्रदेश भर में आम से खास सभी में समाजवाद को लेकर भ्रम उत्पन्न हो गया है । मौजूदा सरकार से मोह भंग हो गया है । मार्क्स का वर्ग संघर्ष ही समाजवाद की पहचान बन गया है । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह जाति, सम्प्रदाय और वैयक्तिक संघर्ष के स्वरुप में सामने है ।
समय की नज़ाकत को भांपते हुए मुलायम से लौहपथ पर आना आवश्यक हो गया है । जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम समुद्र मार्ग से लंका जाने के लिए सागर तट पर समुद्र से मार्ग देने की अनुनय विनय कर हार गए और अपनी उदारता व विनम्रता को समुद्र द्वारा कमजोरी समझा गया जाना तब वह कहते हैं –
विनय न मानति जलधि जड़, गए तीन दिन बीति ।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति ।।
समाजवाद के समक्ष आज कुछ ऐसी ही परिस्थितियां मुंह बाए खड़ी हैं । देखना यह है कि समाजवाद रासरंग में डूबकर मदहोश रहना चाहता है या सामाजिक मूल्यों की रक्षा के लिए लोहिया पथ पर बढ़ता है ।
(राघवेन्द्र कुमार “राघव”)