अन्त:विचारों में उलझा
न जाने कब
मैं
एक अजीब सी बस्ती में आ गया ।
बस्ती बड़ी ही खुशनुमा
और रंगीन थी ।
किन्तु वहां की हवा में
अनजान सी उदासी थी ।
खुशबुएं वहां की
मदहोश कर रहीं थीं ।
पर एहसास होता था
घोर बेचारगी का
टूटती सांसे जैसे
फ़साने बना रही थीं ।
गजरे और पान की दूकानों
एक ही साथ थीं ।
मधुशालाएं जगह-जगह
प्यालों में लिए हाला थीं ।
चमकती इमारतों में
दमकते हुए चेहरे थे ।
मानो चिलमनों से
चाँद निकल आए थे ।
यहां अंधेरे को चीरकर नज़रें
उजली चाँदनी में मिलती हैं ।
यही तो हैं वह बस्तियां
जो सभ्य समाज की
गन्दगी निगलती हैं ।
शरीफ़ों की निगाहों में
ये एक बदनाम बस्ती है ।
शराफ़त किन्तु हर लम्हा
यहाँ हर ओर बिकती है ।
पुरुषत्व की मैला
इसी बस्ती में साफ होती है ।
ख़ुद मैली होकर यह बस्ती
हर शय जिहाद करती है ।
सियासत के फ़सादों से
बड़ी ही दूर यह बस्ती ।
मुसलमान और हिन्दू में
कभी कोई भेद नहीं करती ।
मग़र क्यों लोग कहते हैं
इसे बदनाम सी बस्ती ।
यहाँ तो तन मन लुटता है
ये ख़ुशियाँ हैं मग़र कैसी ।
जो लुटता है वही क़ाफ़िर,
सफेद चादर ओढ़े जानवर
इंसान कहा जाता है ।
गंदगी साफ़ करने वाली
बस्तियों को यहाँ नाजायज़
और बदनाम कहा जाता है ।
ऐ ख़ुदा जहाँ ग़रीबों की इज़्ज़त
और इंसान की जान सस्ती है,
क्या वो नहीं बदनाम बस्ती है ?
आखिर ऐसी रियाया को क्यों बनाया ?
जिससे अच्छी तवायफ़ों की बस्ती है ।।