निराशा
चलते हुए डगर ज़िन्दगी की,
कहाँ जा रहा हूँ ?
आख़िर चाहता क्या हूँ ?
उजालों में जला जा रहा हूँ ।
चारों ओर से ख़ामोशियाँ,
खाने को दौड़ रही हैं ।
मैं तनहाइयों में,
गुम हुआ जा रहा हूँ ।
समझ नहीं आता,
क्या पा रहा हूँ ?
और क्या खो रहा हूँ ?
क्यों भग्न आशा में ?
ख़ुद को जला रहा हूँ ।
सांसारिक मृगतृष्णा में उलझा,
दिग्भ्रमित बस चला जा रहा हूँ ।
मनुष्यहीन वादी में आकर,
चकित और व्यथित हूँ ।
सहसा कानों ने सुनी छम-छम
इस निर्जन एकान्त में ।
दृष्टि दौड़ने लगी और
जा पहुँची नेपथ्य में ।
प्रबल उत्कण्ठा
बिंधी नज़र,
भिंचे अधर ।
जब देखा उसे
हुआ ये असर ।
वह सुन्दर थी,
अलसायी थी ।
थोड़ी सी घबरायी थी ।
उन्मुख था मैं,
वह तत्पर थी ।
यासोनाकामी ग़ायब थी ।
मैं पास गया परिचय पूछा,
हो कौन !
यहाँ क्या करती हो ?
क्या तुम भी जीवन से हारी हो ?
क्यों वीरान जगह में भटक रही ?
कंपित स्वर में
जब वह बोली,
प्रिय नहीं जानते हो मुझको ।
मैं तुमको ही ढूंढ रही थी,
आओ तुम नज़दीक हमारे,
मत भटको ।
जब सब कुछ लुट जाता है,
किस्मत भी वफ़ा नहीं करती ।
रफ़्ता-रफ़्ता मौत नाचती,
आत्म शक्ति की लौ बुझती ।
ऐसे में मेरा आँचल,
सिरहाने होता है ।
कहे जमाना हमे निराशा,
तू नाहक विचलित होता है ।
यह रुपजाल मेरा दलदल,
जो इसमे फँसता है ।
वह नाकाम कहा जाता,
काँटों में भी बिंधता है ।
अगर पुरुष हो तो,
तुम पुरुषार्थ करो ।
छोड़ मुझे यदि जा पाओ,
गुलफ़ाम बनो ।
शूलों के भय का त्याग करो,
और फूल चुनो ।
मेहनत के बलबूते तुम,
स्वर्णिम अपना भाग्य बुनो ।।