4 अक्टूबर 2015
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लेखक / पत्रकारD
धन्यवाद प्रियंका जी...
6 अक्टूबर 2015
सटीक बात काही है , अगर देखा जाए तो हम सभी मालामाल बनने की ही कोशिश मे लगे रहते है । और सही भी है , आज पैसा बोलता है ....... समय ही ऐसा है ...
5 अक्टूबर 2015
ग़रीबी क्या सर्दी और क्या गर्मी, मुफ़लिसी तो मुफ़लिसी है । कांपती और झुलसती ज़िन्दगी चलती तो है , पर भूख की मंज़िल तो बस खुदकुशी है । गंदे चीथड़ों में खुद को बचाती , इंसानी भेड़ियों से इज्ज़त छिपाती । हर रोज जीती और मरती है , ये हमारी कैसी बेबसी है । सड़क के किनारे फुटपाथों प
बदलते गांव मेरा गांव मेरा देश मेरा ये वतन , तुझपे निसार है मेरा तन मेरा मन | ऐसा ही होता है गांव ? जहाँ हर आदमी के दिल में प्रेम हिलोरें मारता है |जहा इंसानी
मुलायम से लोहिया गणतन्त्र दिवस के बहाने भारत में लोकतंत्र की स्थिति पर चर्चा आम है । लोकतंत्र भी ऐसे में खुश हो जाता है... यही सोचकर चलो मैं जिंदा तो हूँ । लेकिन ये अपने ठलुए दार्शनिक हैं न, मानते ही नहीं, लोकतंत्र
धरती का सीना फाड़ अन्न हम सब उपजाते हैं | मेहनतकश मजदूर मगर हम भूखे ही मर जाते हैं | धन की चमक के आगे हम कहीं ठहर न पाते हैं | बाग खेत खलिहान हमारे हमसे छीने जाते हैं | सारी धरती हम सबकी है हम फिर भी सताए जाते हैं | धरती का सीना फाड़ अन्न हम सब उपजाते हैं || भारत की सीमा पर फौजी मेरा ही खून प
धर्म और दर्शन राघवेन्द्र कुमार ''राघव'' प्राचीन धर्म ग्रन्थ कहते है '' जो धारण करने योग्य हो '' वह धर्म है | लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में धर्म आडम्बर से ज्यादा कुछ नहीं | हम किसी भी धर्म की आलोचना ,
नदियाँ हमारा रक्षण करने वाली हैं । नदियाँ अन्नोत्पादन में सहायक हैं । नदियों का जल अमृत रूप है । नदियाँ जीवन का आधार हैं फिर भी मनुष्य इन्हें मैला कर रहा है । वेद-वेदांग नदियों की स्वच्छता पर विशेष बल देते हैं । रोगों का नाश कर, मानव जाति का कल्याण करने वाली नदियाँ प्रदूषण की मार से ब
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल निज भाषा के ज्ञान बिन मिटै न हिय को शूल ।। सारे विश्व में भाषा को देशों की पहचान माना जाता है । भाषा संस्कृति का दर्पण है । लेकिन भारत के परिप्रेक्ष्य में भाषाएं देश का आभूषण हैं, संस्कृति का प्रतिबिम्ब हैं और इसका कारण भारत का बहुभा
प्यार से प्यारे हो तुम ऐ सनम ऐ सनम । तू ही मेरी है सुबह तू ही मेरी शाम है , तू ही मेरा है दिन तू मेरी रात है । देखकर तुझको ही दिल होता है ये रोशन , प्यार से प्यारे हो तुम ऐ सनम ऐ सनम ।। तुम नजर आते हो हमको चाँद तारों में , टिमटिमाकर क्या बताते हो इशारों में । तुम ही मेरी प्रीति हो तुम
दिखाई दिए वो हमें इस तरह ईद का चाँद वो बन गये हैं । डालकर जादू दिल पर हमारे काम अपना तो वो कर गये हैं । मिले थे फिजाओं में रंगत भी खुशनुमा थी बहार थी सुहानी वो ख़ुद से गुमशुदा थी । थे वो उड़े-उड़े शर्म आँखों में लिए शोख़ मदहोशियाँ थीं गेसू भी थे खुले हुए । लेकर के जान मेरी जान
हर मां का हमें चाहिए बेटा हर बहना का भाई । भारत माता ने रोते - रोते आवाज़ लगाई । आज पुनः दर्पी दुश्मन चढ़ हिन्द - ए – भाल पर आया है । बड़ी धृष्टता की उसने जो सोता सिंह जगाया है । ऐ वतन प्रहरियों पुनः आज रीति वही दुहरानी है । टाइगर हिल और कारगिल वाली यादें उन्हें दिला
वो आती है , वो जाती है , वो हँसती है , हँसाती है | उसकी वात्सल्य भरी आवाज , सारे दुःख हर लेती है | उसकी सांत्वना भरी आवाज, असीम ऊर्जा का संचार करती है | उसके चेहरे की मुस्कान , जीने का हौसला भर देती है | एक पल को दर्द देती है , दूसरे पल प्यार से सहलाती है | कड़वी दवाओं के घूंट में
‘सई उतरि गोमती नहाये, चौथे दिवस अवधपुर आये’।। श्रीराम की वनवास यात्रा में उत्तर प्रदेश की जिन पांच प्रमुख नदियों का जिक्र है, उनमें से एक है – सई । शेष चार नदियां हैं - गंगा, गोमती, सरयू और मंदाकिनी । सई का समाज आज भी इस कथा का जिक्र कर स्वयं को गौरवान्वित तो महसूस करता है; किं
सोलह सौ पचास गोलियां, चली हमारे सीने पर । पैरों में बेड़ी डाल, बंदिशें लगी हमारे जीने पर । रक्त पात करुणाक्रंदन, बस चारों ओर यही था । पत्नी के कंधे लाश पति की, जड़ चेतन में मातम था । इंक़लाब का ऊँचा स्वर, इस पर भी यारों दबा नहीं । भारत माँ का जयकारा, बंदूकों से डरा नहीं । लाशें ब
किसी की तासीर है तबस्सुम, किसी की तबस्सुम को हम तरसते हैं । है बड़ा असरार ये, आख़िर ऐसा क्या है इस तबस्सुम में ।। देखकर जज़्ब उनका, मन मचलता परस्तिश को उनकी । दिल-ए-इंतिख़ाब हैं वो, इश्क-ए-इब्तिदा हुआ । उफ़्क पर जो थी ख़ियाबां, उसकी रं
(व्यंग) आँखें होते हुए भी अंधे हैं, हमाम में सब नंगे हैं । हर कोई ऊँचे चरित्र की बात करता है, जहाँ भी बैठता है गंगाजल छिड़ककर बैठता है । जितना साफ गंगा को रखा गया है, उतना ही साफ चरित्र है । कहने में क्या जाता है सो कह देते हैं, हमें देखो हम परम् पवित्र हैं । लाख ढूंढों पर सच्चा नहीं मिलेग
खेलने की उम्र में. फैले हैं हाथ देखो । कुदरत भी क्या अजब है, इसके कमाल देखो । तुतलाती भाषा में बच्चे, कितने प्यारे लगते हैं । शैतानी कर –कर इठलाते, सबसे न्यारे लगते हैं । जब ये बच्चे किसी के आगे, बेबस होकर झुकते हैं । दे दो बाबू पैसे दे दो, कहकर पैर पकड़ते हैं । फट उठते पाषाण हृदय भी,
एक दिन मैं टहलने, गया नदी के पास । दो भेड़ें हमें मिलीं, करते हुए बकवास । हम इन्सानों के प्रति, उनमें भरा रोष था । मानव मीमांसा में उनकी, नर नहीं वह पिशाच था । उनके शब्दों में उनकी पीड़ा, स्पष्ट नज़र आ रही थी । शायद इसलिए ही भेड़ें, कुछ इस तरह विचार कर रही थीं । पहले तो हम सभी को, शे
ये कैसी आग ? कैसी आग ? कैसी आग है ? सुलगती है अंदर जैसे राज है । ये कैसी आग ? कैसी आग ? कैसी आग है ? घड़ी दर घड़ी ये बढ़ती ही जाती कभी घर कभी बस्तियां ये ज़लाती । जिधर देखता हूँ उधर आग है । ये कैसी आग ? कैसी आग ? कैसी आग है ? नामो निशान खो गया है सहर का , दिखता असर अब हवा में ज़हर का ।
कल भी मरी थी कल भी मरेगी, आखिर वो कितनी बार जलेगी ? पहले तो तन को भेड़िया बन नोच डाला, शरीर से आत्मा तक जगह-जगह छेद डाला । लाश बच रही थी न जिएगी और न मरेगी आखिर वो कितनी बार जलेगी ? घर से बाहर तक हर कोई याद दिलाता है, दर्द बाँटना तो दूर दर्द को खरोंच-खरोंच नासूर बनाता है । क्या घर
इस दुनियां और उस दुनियां में कितना है फर्क़ यहाँ आँखों में बेबसी छलकती है और वहां दर्प । ये ज़िन्दगी भी कैसे-कैसे रंग दिखाती हैं किसी को हंसती है तो किसी को रुलाती है । किसी के हिस्से स्वर्ग की रंगीनी किसी को मिलता नर्क इस दुनियां और उस दुनियां में कितना है फर्क़ । यहाँ आँखों में बेब
कहीं डूबती फसल बाढ़ में कहीं ज़मीं बंजर फटती । भारत माँ के कृषक पुत्र की रातें रोते ही कटती । डूब कर्ज में फ़र्ज़ की खातिर चुनते ज़हर व फांसी । भारत माँ अब आज बन गयी सत्ताधीशों की दासी । धरतीपुत्रों की लाशों पर यहाँ खेल सियासी होते हैं । जीवनदाता इस धरती पर खून के आंसू रोते हैं ।।
पाषाण हृदय बनकर कुछ भी नहीं पाओगे । वक्त के पीछे तुम बस रोओगे पछताओगे ।। ये आस तभी तक है जब तक सांसें हैं। सांस के जाने पर क्या कर पाओगे ।। इन मन की लहरों को मन में न दबाना तुम । ग़र मन में उठा तूफां कैसे बच पाओगे ।। भार नहीं डालो ये जान बड़ी कोमल । इसके थकने से तुम तो मिट जाओगे ।। ये जन्म म
अपनी आत्मा से पूछ लो, क्यों हो रहा है आत्मदाह । करुणा की मूर्ति नारी का, क्यों हो रहा है सर्वनाश ? मिटा रहे हो जिस तरह, मिट जाएगा यह समाज । दासता की भ्रान्ति में, आज भी मन कुण्ठित है । गुलामी की ज़ंजीरों से, ये क्यों नहीं है मुक्त आज ? मिटा रहे हो उस दीपक को, रोशन है
जब गाय मिले चौराहों पर कुत्ता बैठा हो कारों में । तब ये आप समझ जाना कोई शहर आ गया । टकराकर प्रौढ़ से जवां मर्द बोले क्या दिखता तुम्हें नहीं । तभी वृद्ध दादा जी बोलें सॉरी बेटे दिखा नहीं । बस इतने से ही जान लेना कोई शहर आ गया ।। जहाँ लाश के कांधे को चार लोग भी मिले नहीं । माँ-बहन कष्ट
मैंने देखा खून आज , राह में गिरा हुआ पूछा खून किसका है, कोई तो बताइए । क्या हुआ जो आप सब, क्रोध में उबल रहे ? व्यर्थ ही सामर्थ्य आप, ऐसे ना जलाइए । खून कौन हिन्दू है, कौन खून मुसलमान ? सिखों का है खून कौन आइए बताइए ? जाति – पांति भेद भाव, सियासती उसूल हैं नफरतों के बीज यूं, न घर – घर गिर
दहेज के नाम पर, जो बहुओं को जलाते हैं । किसी की लाड़ली को ब्याहकर, क़हर पर क़हर ढाते हैं । किसने दिया है हक़ इन्हें, किसी को भी जलाने का । ख़ुदा की क़ायनात के, हँसते हुए फूल कुचल जाने का । कितने बड़े वहशी हैं, ये आदमख़ोर हैं । ख़ुदा की इस रियाया में, ये नर पिशाच हैं । दोज़क बना डाला ज
यह कैसा विकास है | जहाँ उद्भव से अंत तक , विनाश ही विनाश है | यह कैसा विकास है | आपसी प्रेम को , लालच की आग में जलाया | रामराज का क़त्ल कर , रावणराज चलाया | कहीं धन और वैभव से , किसी की बुझी प्यास है | यह कैसा विकास है | प्राकृतिक सुषमा का विनाश कर , कंक्रीट के जंगल बना ड
सड़क किनारे पड़ी थी एक लाश ! उसके पास कुछ लोग बैठे थे बदहवाश | उनमे चार छोटे बच्चे और उनकी माँ थी , बूढ़े माँ – बाप थे कुँवारी बहन थी | सभी का रो – रो कर बुरा हाल था , खाल से लिपटे ढांचे बता रहे थे , वह..... परिवार कितना बेहाल था | मैंने पूछा एक आदमी से भाई ये कैसे मर गया ?
फहर रहा था अमर तिरंगा जगह यूनिअन जैक की |गुजर गयी थी स्याह रात चमकी किस्मत देश की |स्वाधीन हुआ परतंत्र देश फिर नया सवेरा आया |पन्द्रह अगस्त का दिन खुशियों की झोली भर कर लाया |बापू, चाचा, सरदार सभी की मेहनत रंग थी लायी |भगत सिंह, अशफाक, लाहिड़ी की क़ुरबानी रंग लायी |खुशियाँ कब-कब बंधकर रहती वो तो आत
उम्मुलउलूम ज़िन्दगी काअब समझ आता नहीं ।उफ़क़ भी तो दूर तककहीं नज़र आता नहीं ।ख़ुर्दसाली कट गयीख़ुराफ़ातों के साथ में ।जवानी जश्न में डूबीखो गयी सियाह रात में ।ज़ईफ़ी दर्द देती हैख़ौफ़ से रूह है बेदम ।ख़ुदातर्सी है ज़ेहन मेंमगर कोशिश है ज़ब्तेग़म ।जफ़ा-ए-चर्ख़ में फंसकरदहशतकदां हमको मिला ।राहेरास्त प
स्वीकार करो गुरु मम् प्रणाम, मैं शरण आपकी आपकी आया हूँ ।मैं तर जाऊँ भव सागर से, वह युक्ति जानने आया हूँ ।बिन गुरु ज्ञान नहीं जग में, यह वेद पुराण सभी कहते ।गुरु की महिमा के सन्मुख, ईश्वर भी स्वयं झुके रहते ।ज्ञान मिले किस विधि से प्रभु, वह युक्ति जानने आया हूँ । स्वीकार करो गुरु मम् प्रण
कब तक अपनी बहू बेटियाँ चढ़ती रहेंगी बलिवेदी पर ।इस दहेज दानव के मुख काकब तक रहें निवाला बनकर ।कब तक इनके पैरों में जकड़ी रहेंगी बेड़ियाँ ।कब तक हम सब हाथों में पहने रहेंगे चूड़ियाँ ।कब तक भ्रष्ट समाज के आगेअपनी इज़्जत नतमस्तक होगी ।कब तक धन लोलुपता के आगेनर्क ज़िन्दगी त्रिया की होगी ।इस दहेजने आज स
माँ...मत मारो मुझे मेरी माँमैं टुकड़ा तुम्हारा ही माँ ।मत मारो मुझे मेरी माँ ।खता क्या हमारी हमें भी बताओजीवन हमारा माँ यूँ न मिटाओ ,मैं साया हूँ तेरा ही माँमत मारो मुझे मेरी माँ ।तू भी कभी थी हमारी तरहमैं हूँ मेरी माँ तुम्हारी तरह ,मैं पूरे करुँगी तेरे ख़्वाब
आज जबउस बूढ़े आदमी कोकूड़े के ढेर सेकुछ !चुनकर खाते देखा ।मैं किंकर्तव्यविमूढ़इंसान और जानवर मेंभेद ही न कर पाया ।उसकी बेचारग़ी और लाचारीढाँचे जैसे जिस्म औरआँखों से बाहर आ रही थी ।सब कुछ भूलकरवह खाए और बसखाए जा रहा था ।ग़रीबी जो न कराएयह सामाजिक तर्क है ।पर हो न होयही तो असली नर्क है ।शायद वह इस तथ
ऐसे कलुषित समाज में लेकर जन्मवर्ण कुल सब मेरा श्याम हो गया ।बड़ी दूषित है सोचकर्म भी काले हैंगहन तम मेंअस्तित्व इनका घुल गया ।देखकर यह समाजहोती है घुटन आज ।कैसा है समाज इसे आती नहीं लाज ?नर्क से निकाल करदुनियाँ में जो लायी ।शून्य मन में ज्ञान कीजिसने ज्योति जलायी ।जिसका शोणित पीकरजीवन मिलता है ।जिसक
दहेज के नाम पर,जो बहुओं को जलाते हैं ।किसी की लाड़ली को ब्याहकर,क़हर पर क़हर ढाते हैं ।किसने दिया है हक़ इन्हें,किसी को भी जलाने का ।ख़ुदा की क़ायनात के,हँसते हुए फूल कुचल जाने का ।कितने बड़े वहशी हैं,ये आदमख़ोर हैं ।ख़ुदा की इस रियाया में,ये नर पिशाच हैं ।दोज़क बना डाला जहाँ,अब ये भी कर डालिए ।बहुए
जब तक किसी बड़े की बेइज़्ज़ती न कर डाले,कोई आज इस समाज मेंहोशियार नहीं बनता ?जब तक बड़ों परहाथ न उठा लें,आजकल तब तक कोईइज़्ज़तदार नहीं बनता ।कहाँ जा रहा हैआज अपना समाज ?इसके नैतिक मूल्यक्या वास्तव में खो गए हैं ?अन्यथा आज यहयुवा शक्ति के आगेनतमस्तक, बेबस, दमित होकरतुच्छ और संकीर्ण हो गए हैं ।एक ज़ाह
माननीयों का चरित्रएक दिन शाम को मैं गया था वहाँ,विक्षिप्तों की गोष्ठी हो रही थी जहाँ ।देखकर उनमें से एक ने ऐसा कहा,कौन सी पार्टी ने तुम्हें भेजा यहाँ ।मैंने उनसे कहा मैं हूँ वो नहीं,उसने मुझसे कहा बोलो धीरे से ही ।मैं समझता हूँ तुम हो उसी गैंग के,देश को जो खा गए हैं लूट के ।विधायक हैं दस मेरे पास भी
प्राचीन धर्मग्रन्थ कहते है '' जो धारण करने योग्य हो '' वह धर्म है । लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में धर्म आडम्बर से ज्यादा कुछ नहीं ।हम किसी भी धर्म की आलोचना , अच्छाई या बुराई में नहीं पड़नाचाहते । लेकिन
बदलते गांँव मेरा गांव मेरा देश मेराये वतन , तुझपे निसार है मेरा तन मेरामन । ऐसा ही होता है गांँव ? जहाँ हर आदमी के दिल में प्रेम हिलोरेंमारता है । जहाँ इंसानी ज़ज़्बात खुलकर खेलते हैं । हर कोई एक दूसरे के सुख, दुःख में
बड़ी ही अज़ीब हैये ज़िन्दगी,जी भी रही हैऔर मर भी रही है ।वह देखोज़िन्दगी ठिठुर रही है ।कंटीली ठंडी हवा,बदन छेदती है ।रह-रह कर मायूसी,आगोश में समेटती है ।कठिनता के घनघोर कुहासे ने,आँखों से दृष्टि छीन ली है ।तुषा ने जमा करपत्थर बना दिया है ।बस कुछ रह गया हैजो यह सांसें चल रही हैं ।वह देखोज़िन्दगी ठिठु
बेवफ़ा करता नहीं हैबेवफ़ाई जानकर ।यह दुनियाँ ही उसेमज़बूर कर देती है ।कौन मरना चाहता हैयहाँ आने के बाद ।यह दुनियाँ ही उसे मरने परमज़बूर कर देती है ।कौन कमबख़्त चाहता हैअपनों से जुदा होना ।वक़्त की बदली हुयी चालउसे मज़बूर कर देती है ।कोई भी शख़्स यहाँकिसी को भूलता नहीं ।वक़्त की चादर ही रिश्तेसमेटने
आज ख़ुशी चलकर आयीजब मैंने सच्ची बात कही ।बोल – बोल कर झूठ थका मैं,ख़ुशी कभी भी नहीं मिली ।आज ख़ुशी चलकर आयीजब मैंने सच्ची बात कही । नेत्रहीन को जिस पल मैंने,आज सड़क पार करवायी ।ज्वर से पीड़ित भिक्षुक को,अस्पताल जा दवा दिलायी ।क्लान्त हृदय हो गया शान्त,मन की भी हलचल सहम गयी ।आज ख़ुशी चलकर आयीजब मैंने
प्रियतमकी यादपीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनयन नीर बन फूट रही है ।दुःख का सागर धैर्य खो रहाव्यथा की सरिता उमड़ रही है ।पीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनयन नीर बन फूट रही है ।अक्स तुम्हारा मुझ में बसताऔर हमारी साँसें तुझ में ।आह तुम्हारी मेरे प्रियतमबन शूल हृदय को छेद रही है ।पीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनय
लम्हों की ख़ताख़ता लम्हों कीहोती हैसज़ा सदियाँभुगतती हैं ।एक क़तरे में आगलगने से हजारों बस्तियाँझुलसती हैं ।माँ सीता कीअग्नि परीक्षालिए हुए युग बीतगए ।लेकिन उसी आगमें अब तककलियाँ कईझुलसती है ।जयचन्द कीमक्कारी अब भीभरत वंश को सालरही ।भारत माता अब तकदेखोउस की सज़ाभुगतती हैं ।हिन्द कट गया औरबंट गया टुक
प्यार से प्यारे हो तुम....प्यार से प्यारे हो तुमऐ सनम ऐ सनम । तू ही मेरी है सुबहतू ही मेरी शाम है ।तू ही मेरा है दिनतू ही मेरी रात है ।देखकर तुझको ही दिलहोता है ये रोशन ।प्यार से प्यारे हो तुमऐ सनम ऐ सनम । तुम नज़र आते होहमको चाँद तारों में ।टिमटिमाकर क्याबताते हो इशारों में ?तुम ही मेरी प्रीति होतु
जिस देश में 50 फ़ीसदी लोग अशिक्षित हैं । जहाँ के 35 प्रतिशत लोगों को पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है । जिस देश में विकासकी ढोलक तो बजती है लेकिन यह भुला दिया जाता है कि ढोलक के आवरण के साथ ही दोनोंछोर एक विशाल रिक्तता में जीते हैं । जहाँ प्रत्येक तीसरे दिन किसी न किसी के भूखसे तड़प कर मर जाने क
गरीबी केपाटों में पिसता देश कब तक देश गरीबी के पाटों में पिसता जाएगा ?मुफ़लिस और किसान शस्त्र हाथों में लेता जाएगा । ऊँचनीच और भेदभाव बर्बाद हिन्द कर जाएगा ।कब तक देश गरीबी के पाटों में पिसता जाएगा । आग पेट की यदि न बुझे तो तन-मन आग उगलता है ।इस पापी पेट की ज्वाला में आधा भारत जलता है ।इन असहायो
जो भारत माँ कोमाँ न माने,वह कैसेभारतवासी हैं ?जो मातृभूमि कोना पूजें,द्रोही हैं कुलनाशी हैं ।जिसके आँचल काजल नस में, बनकर लहू दौड़ताहै ।जिस माटी का नमकजिस्म में,बनकर जोश उमड़ताहै ।यदि धरती माताके घर में, कोई आग लगाता है।वसुन्धरा कीसुन्दरता को, यदि कोई ग्रहणलगाता है ।ऐसे दुष्टपापियों की, पहचान करो पह
दहेजदानवकब तक अपनी बहू बेटियाँचढ़ती रहेंगी बलिवेदी पर ।इस दहेज दानव के मुख काकब तक रहें निवाला बनकर ? कब तक इनके पैरों मेंजकड़ी रहेंगी बेड़ियाँ ?कब तक हम सब हाथों मेंपहने रहेंगे चूड़ियाँ ? कब तक भ्रष्ट समाज के आगेअपनी इज़्जत नतमस्तक होगी ?कब तक धन लोलुपता के आगेनर्क ज़िन्दगी त्रिया की होग
निराशाचलते हुए डगर ज़िन्दगी की,कहाँ जा रहा हूँ ?आख़िर चाहता क्या हूँ ?उजालों में जला जा रहा हूँ ।चारों ओर से ख़ामोशियाँ,खाने को दौड़ रही हैं ।मैं तनहाइयों में,गुम हुआ जा रहा हूँ ।समझ नहीं आता,क्या पा रहा हूँ ?और क्या खो रहा हूँ ?क्यों भग्न आशा में ?ख़ुद को जला रहा हूँ ।सांसारिक मृगतृष्णा में उलझा,दि
अन्त:विचारों में उलझान जाने कबमैंएक अजीब सी बस्ती में आ गया ।बस्ती बड़ी ही खुशनुमाऔर रंगीन थी ।किन्तु वहां की हवा मेंअनजान सी उदासी थी ।खुशबुएं वहां कीमदहोश कर रहीं थीं ।पर एहसास होता थाघोर बेचारगी काटूटती सांसे जैसेफ़साने बना रही थीं ।गजरे और पान की दूकानोंएक ही साथ थीं ।मधुशालाएं जगह-जगहप्यालों मे
बसन्तपेड़ पौधे धरा केमचलने लगेदेख यौवन धरा काचहकने लगे ।प्रेम रंग मेंरंगा सब है आता नज़रकलियों के झुण्डफूल बन फूलने लगे ।श्रृंगार नया हारनया नये हैं वसनकजरा गजरा सुर्खहोंठ खिलने लगे ।चूनर है पीली लालचोली तन पर पड़ीफूल इत्र वायु मेंउड़ेलने लगे ।रंगीन हो गयाजहां मौसम को देखकरपछुआ और पुरवामें द्
अंग्रेज़ीसंतानजब तक किसी बड़ेकीबेइज़्ज़ती न कर डाले,कोई आज इस समाजमेंहोशियार नहींबनता ?जब तक बड़ों परहाथ न उठा लें,आजकल तब तक कोईइज़्ज़तदार नहींबनता ।कहाँ जा रहा हैआज अपना समाज ?इसके नैतिकमूल्यक्या वास्तव मेंखो गए हैं ?अन्यथा आज यहयुवा शक्ति केआगेनतमस्तक, बेबस,दमित होकरतुच्छ औरसंकीर्ण हो गए ह
शब्द - शब्द फूल बन कविता की बेल में गुँथा । लहरा रहा द्रुम डाल पर उन्मुक्त और मुक्त इस अनुपम सृजन की सराहना कर ।।
वतन पड़ा है गिरवीं देखो पश्चिम वाले हाथों में ।भारत के नीति नियंता लेकिन भरमाते हैं बातों में ।देशप्रेम का मतलब अब निबट सियासी फंदा है ।राजनीति की खाई में गिर देश हो गया अंधा है ।अपने घर में ही हम सब बन गए आज गुलाम ।व्यर्थ गया बलिदान शहीदों व्यर्थ गया बलिदान ।सबको अपनी–अपनी चिन्ता किसे देश का ध्यान
विकृतियाँ समाज की<!--[if !supportLineBreakNewLine]--><!--[endif]-->मेरे मन की बेचैनी को,क्या शब्द बना लिख सकते हो ?तक़लीफ़ें अन्तर्मन की,क्या शब्दों मे बुन सकते हो ?<!--[if !supportLineBreakNewLine]--><!--[endif]-->लिखो हमारे मन के भीतर,उमड़ रहे तूफ़ानों को ।लिखो हमारे जिस्मानी,पिघल रहे अरमानों को ।
भारत की लाचार प्रतिकृतिखेलने की उम्र में,फैले हैं हाथ देखो ।कुदरत भी क्या अजब है,इसके कमाल देखो ।तुतलाती भाषा में बच्चे,कितने प्यारे लगते हैं ।शैतानी कर – कर इठलाते,सबसे न्यारे लगते हैं ।जब ये बच्चे किसी के आगे,बेबस होकर झुकते हैं ।दे दो बाबू पैसे दे दो,कहकर पैर पकड़ते हैं ।फट उठते पाषाण हृदय भी,ये
कुपोषण के सन्दर्भ में जो आँकड़े अभी हाल में आये हैं उससे हमारे देश में कुपोषण की भयावहता उजागर होती है । बच्चे देश का भविष्य हैं , वे भारत के भावी कर्णधार हैं । यही हमारे देश को उन्नति के शिखर पर ले जाने वाले हैं । परन्तु जब बच्चे ही कुपोषित होंगे तब देश का भविष्य स्वर्णिम होने की जगह कुपोषित और अवनत
<p><strong>मेरा गांव मेरा देश मेरा ये वतन, तुझपे निसार है मेरा तन मेरा मन । </strong></p> <p>आद
तपिश ज़ज़्बातोंकी मन में,न जाने क्योंबढ़ी जाती ?मैं औरत हूँ तोऔरत हूँ,मग़र अबला कहीजाती ।उजाला घर मे जोकरती,उजालों से हीडरती है ।वह घर के हीउजालों से,न जाने क्योंडरी जाती ?जो नदिया हैपरम् पावन,बुझाती प्यास तनमन की ।समन्दर में मग़रप्यासी,वही नदिया मरीजाती ।इज़्ज़त है जोघर-घर की,वही बेइज़्ज़तहोती है ।
जबअकर्मण्यता को छिपाकर जीवन जीने के लिए आवश्यक संसाधनों को सच्चाई और पुरुषार्थ सेजुटाने की बजाय हिंसा से छीन लिया जाता हैए चोरी कही जाती है । इससे चोर घर कीशून्यता को तो ख़त्म कर लेता है किन्तु चुरायी गयी कुछ महान सम्पत्तियों को डर याज्ञान के अभाव में नष्ट कर देता है अथवा उन्हें विकृत कर दे
मत मारो मुझे मेरी माँमैं टुकड़ा तुम्हारा ही माँ ।मत मारो मुझे मेरी माँ ।खता क्या हमारी हमें भी बताओजीवन हमारा माँ यूँ न मिटाओ ,मैं साया हूँ तेरा ही माँ मत मारो मुझे मेरी माँ ।तू भी कभी थी हमारी तरह मैं हूँ मेरी माँ तुम्हारी तरह ,मैं पूरे करुँगी तेरे ख़्वाब माँमत मारो मुझे मेरी माँ ।दुनियां है कैसी ये
दोस्तों नापाक पाकिस्तानी जेलों में प्रताड़ित किए जा रहे हमारे भाई आज मौत की याचना कर रहे हैं। आज से हमें ‘पाकिस्तान की जेलों में बंद भारतीयों को अविलम्ब रिहा कराओ’, की आवाज उठानी है, यह नारा चलाना है, कैम्पेन चलाना है, मशाल जलानी है। इसमें न कहीं जाति है, न धर्म है, न कोई क्षेत्रवाद है... इसमें केवल
<p>इस्लामी पैरोकार इस्लाम धर्म की वृद्धि के लिए दिलचस्प दलीलें पेश करते हैं । इस्लामी विद्वान कहते ह
<p>"निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।<br> <br> निज भाषा के ज्ञान बिन मिटै न हिय को शूल॥"<br> <