लाजो जी को रितिका का यूं उठकर जाना अच्छा नहीं लगा था । प्रथम की शादी को पांच साल हो गये थे मगर अभी तो "मैडम" जी का मन "मस्ती" करने में ही रमा हुआ है । घर गृहस्थी की जिम्मेदारी क्या बुढापे में संभालेगी ? हद हो गई यह तो । इतनी जिद्दी लड़की आज तक नहीं देखी है उन्होंने । वो तो रितिका बहू है इसलिए लाजो जी उससे ज्यादा कुछ कह नहीं पातीं । वर्ना ऐसा अगर टीया करती तो वह एक चांटा ऐसा जड़ती कि उसे नानी याद आ जाती । मगर बहू के साथ ऐसा नहीं कर सकते हैं ना । लोग कहते हैं कि बहू बेटी में फर्क करते हैं लोग । सही कहते हैं , बिल्कुल फर्क करते हैं । लाजो जी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । वे मन मसोस कर रह जाती हैं कि जिस तरह वे अपनी बेटी को डांट सकती हैं , उस तरह से बहू को नहीं । कोर्ट कचहरी का डर और सामाजिक प्रतिष्ठा का सवाल जो है ।
ले देकर वे अपनी भड़ास अमोलक जी पर ही निकालती हैं । नजला उधर ही गिरना तय था सो गिरा । नदी तो सागर में ही गिरती है ना
"ये सब आपके कारण हो रहा है"
अमोलक जी चौंकते हुए बोले "अब इसमें मैं कहां से आ गया मैडम जी ? अब मैंने क्या किया है" ?
"आप कुछ कहते क्यों नहीं रितिका को ? ये सब आपके लाड़ प्यार का ही परिणाम है । उसी से ही बिगड़ी है ये रितिका"
"मेरे लाड़ प्यार का ? ऐसा मैंने क्या लाड़ प्यार दे दिया उस बेचारी को" ?
"देखा ! आप उसे बेचारी समझते हैं ? यही तो लाड़ प्यार है । और कुछ प्रमाण चाहिए अब" ?
अमोलक जी अब थोड़े तैश में आ गये थे । झूठा आरोप उन्हें सहन नहीं होता था । लाजो जी बात का विरोध करते हुए बोले "देखो, मुझसे इस तरह की फालतू बातें मत किया करो । अगर तमीज से बात करनी है तो करो अन्यथा चुप रहो" ।
आज तो अमोलक जी ने अपने स्वभाव के विपरीत जाकर लाजो जी को डांट दिया था । लाजो जी हतप्रभ रह गईं । आज तो उल्टे बांस बरेली को जा रहे थे । इससे ज्यादा अपमानजनक बात और क्या हो सकती है ? पति तो होता ही इसलिए है कि वह पत्नी की हां में हां मिलाए । जैसा पत्नी कहे वैसा करे और यदि काम बिगड़ जाये तो दोष अपने सिर ओढ ले । जब पत्नी उसे डांटे तो वह चुपचाप डांट खाता रहे । लेकिन आज तो उल्टी गंगा बहने लगी थी ।
अंतिम हथियार आजमाते हुए लाजो जी बोलीं
"मैं तो ऐसे ही बकबक करती रहती हूं दिन भर । मेरी इस घर में सुनता ही कौन है ? मेरे होने या ना होने से किसी को क्या फर्क पड़ता है ? एक मैं ही सीधी सादी सी मिल गई आपको इसलिए हरदम डांटते रहते हो मुझको । कभी रितिका को डांटकर दिखाओ तो जानें ? मैं इस घर के लिए जितना कर रही हूं ना उतना कोई करके तो दिखाए ? और फिर भी मेरी हैसियत क्या है इस घर में ? नौकरानी की भी कोई हैसियत होती है , पर मेरी तो उतनी भी नहीं है" और लाजो जी की आंखों से अजस्र गंगा जमना बहने लगी ।
वैसे तो पुरुष थोड़े कठोर होते हैं मगर पत्नी के आंसू देखकर वे मोम बन जाते हैं । पत्नियों के पास यह ब्रह्मास्त्र होता है और इसे कभी भी काम में लिया जा सकता है । सबसे बड़ी बात ये है कि यह आज तक कभी भी खाली नहीं गया है । लाजो जी की आंखों से जो "बाढ" आई थी वह अमोलक जी की कठोरता को बहाकर ले गई ।
अपने शब्दों को कोमल बनाते हुए वे कहने लगे "अच्छा अच्छा , ठीक है । अब ये रोना धोना बंद करो और ये बताओ कि मुझसे तुम चाहती क्या हो" ?
सुबकते हुए लाजो जी कहने लगी "थोड़ा सा जहर ला दो और मुझे खिला दो । बस, इतना सा काम कर दो । आपको भी मुझसे मुक्ति मिल जाएगी और मुझे इस घर से"
पति पत्नी की लड़ाई का आखिरी पड़ाव ये "मुक्ति" ही होता है । हर पत्नी यह मानकर चलती है कि उसका पति उससे इतना तंग आ गया है कि वह अब उससे "मुक्ति" चाहता है । वह अच्छी तरह जानती है कि उसने उस "गरीब" को इतना तंग करके रख दिया है कि उस "बेचारे" की सोचने समझने की क्षमता ही अब खत्म हो गई है । इतना सब कुछ जानने समझने के बाद भी वे अपने व्यवहार में जरा भी परिवर्तन करने को तैयार नहीं होती हैं । बल्कि पति से ही कहती रहती हैं कि जहर ला दो । अरे, जब घर का सारा सामान तुम खुद लाती हो तो "जहर की पुड़िया" भी ले आओ बाजार से । मगर नहीं ? जहर तो पति के हाथ से ही मंगवाएंगी और उनके हाथ से ही खाएंगी जैसे कि वे "करवा चौथ के व्रत" में अपने पति के हाथ से ही पानी पीकर व्रत खोलती हैं । यहां पर भी भी वे अपनी पति भक्ति का प्रदर्शन करते हुए उनके हाथ से ही जहर खाएंगी । खुद नहीं खा सकती हैं ।
अमोलक जी इन हथकंडों को भली भांति जानते थे । आखिर 35 सालों से "झेलते" आ रहे थे बेचारे । हर पत्नी कहती है कि मैं तो बच्चों की खातिर पड़ी हूं इस घर में नहीं तो मैं कब की निकल ली होती ? लेकिन वह बच्चों की शादी होने के बाद भी "पड़ी" ही रहती है "निकलती" कभी नहीं है ।
अमोलक जी ने एक गिलास पानी लाकर अपने हाथ से पिलाया तो लाजो जी के चेहरे पर एक मुस्कान आ गई । आखिर किला फतह कर ही लिया ना उन्होंने । अपनी जीत पर कौन नहीं इतराता है ? लाजो जी इससे पृथक थोड़े ही हैं ? उन्होंने अपने आंसू पोंछे और कहने लगीं "मुझे तो लगता है कि रितिका की मां ने इसे कह रखा होगा कि अभी बच्चा नहीं लेना है । यह दिन भर फोन पर उनसे लगी रहती है । क्या बातें करती होगी उनसे ये दिन भर ? इसकी गुरू तो वही हैं । हर लड़की मां से ही सीखती है । पर शादी के बाद तो सास ही मां होनी चाहिए ना ? पर नहीं , आजकल की लड़कियां तो सास को पता नहीं क्या मानती हैं ? हम तो सास की बातों को भगवान की वाणी समझकर अक्षरश : उस पर अमल करते थे । मगर अब वो जमाना कहां है ? मैंने तो टीया को कह दिया है कि शादी के बाद तू अपनी सास को ही मां समझना । उन्हीं से ही पूछना । उन्हीं से ही सलाह लेना । मगर रितिका तो कुछ भी नहीं पूछती है मुझसे । इस पर सारा कंट्रोल इसकी मां का ही लग रहा है । इसकी मां ने शायद यह सब नहीं सिखाया इसे । एक काम करें" ?
"क्या" ?
रितिका की मां से बात करें ? क्या पता उनसे बात करने से कुछ बात बन जाये" ?
"हां , सुझाव तो अच्छा है । बात करने के लिए उन्हें यहां बुलवायें या अपन वहां चलें" ?
लाजो जी कुछ सोचते हुए बोलीं "उनसे बात करना सही होगा या नहीं" ?
"बिल्कुल सही होगा । इसमें गलत क्या है" ?
"कहीं रितिका बुरा ना मान जाये" ?
"बुरा मानती है तो मानने दो । जो सही बात होगी वो तो करनी पड़ेगी ना" ?
"तो आप बात कर लो उनसे और यहां पर बुला लो उन्हें"
"मैं ? क्या मेरा बात करना ठीक होगा" ?
"क्यों नहीं ? आखिर आपकी समधन जो हैं वे"
"नहीं । मेरा बात करना ठीक नहीं होगा । मैं अगर बात करूंगा तो समधी जी से ही करूंगा , समधन जी से नहीं" ।
"ये भी ठीक है । तो समधी जी से बात करके शनिवार या रविवार को बुला लो । रितिका को वहां गये हुए भी बहुत दिन हो गए हैं । वे इसे ले भी जाएंगे और अपनी बात भी हो जाएगी" । लाजो जी के स्वर में आशा की एक झलक थी और संतोष का एक भाव था । आखिर आज के "ड्रामे" का कोई परिणाम तो निकला ।
क्रमश :
हरिशंकर गोयल "हरि"
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