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भाग 9 : रानी का महाराजा या हुक्म का गुलाम

5 जून 2022

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अमोलक जी कब से इंतजार कर रहे थे कि लाजो फोन पर बात करना बंद करे तो वे "घाट की राबड़ी" का सेवन करें । जब से चौधराइन जी ने घाट की राबड़ी भेजी है तब से उनका मन उसी में अटका हुआ है । इस चक्कर में तो उन्होंने ब्रेड पिज्जा भी नहीं खाया था । 
मगर लाजो जी को तो बातों से फुरसत ही नहीं थी । उन्होंने कभी अमोलक जी की भावनाओं को तरजीह ही नहीं दी थी । इसका कारण क्या था , यह अमोलक जी कभी जान ही नहीं पाये थे । औरतों के दिल को पढना कभी भी नहीं आया था उन्हें । स्कूल में भी कुछ लड़कियां उन पर मरती थीं लेकिन उन्होंने उन पर कभी ध्यान ही नहीं दिया था । कॉलेज में भी अपना कैरियर बनाने में ही मशगूल रहे थे वे । वो तो जब अधिकारी बन गये थे तब जाकर उन्होंने इधर-उधर ध्यान देना शुरु किया था।  तब उन्हें लाजो जी के पापा ने "लपक" लिया और उनकी शादी हो गई । 

लाजो जी को हरदम डर रहने लगा कि इतने बड़े अधिकारी, इतने स्मार्ट और इतने टैलेंटेड आदमी को कहीं और कोई उड़ाकर नहीं ले जाये ? इसलिए लाजो जी बहुत चिंतित रहती थीं । एक दिन उनकी मम्मी ने उन्हें गुमसुम हालत में देख लिया । कारण पूछा तो लाजो जी ने सब सच बता दिया । बस, उस दिन उन्होंने लाजो जी को "गुरू ज्ञान" दे दिया कि हरदम अमोलक जी को अहसास करवाओ कि वे एक अनपढ परिवार के हैं, गरीब हैं, बदसूरत हैं और किसी भी काम के नहीं हैं । अमोलक जी को सुबह से लेकर शाम तक इन्हीं विभूतियों से नवाजा जाने लगा तो अमोलक जी टूट गए । उन्हें लगने लगा कि वे तो इस संसार पर एक बोझ बनकर पड़े हुए हैं । काश कि मर जाते । मगर मौत भी ऐसे ही आती है क्या ? 

उन्होंने कई बार मरने की कोशिश भी की । एक बार पंखे से लटक कर मरना चाहा, मगर रस्सी छोटी पड़ गई।  एक बार उन्होंने कार को आंख बंद करके एक ट्रक में घुसा दिया । कार चकनाचूर हो गई मगर उन्हें खरोंच तक नहीं आई । एक बार रेल की पटरी पर भी सो गए थे वे । पर हाय री किस्मत, रेल दो घंटे लेट हो गई । लाटे लेटे वे भी थक गये थे ।  तंग आकर वे पटरियों से उठकर घर वापस आ गए । 

इसके बाद उन्होंने मरने का कार्यक्रम कैंसिल कर दिया । उन्हें पक्का यकीन हो गया था कि अब उनकी जिंदगी की डोर लाजो जी के ही हाथ में है । वे जब चाहेंगी, तभी मर सकेंगे वे । जीवन मरण सब विधाता के हाथ में होता है, ऐसा ज्ञानी लोग कहते हैं । मगर यहां तो जीवन और मृत्यु "घरवाली" के हाथ में लग रही थी । तो अमोलक जी ने अपना सब कुछ घरवाली के हाथों में सौंप दिया । 

जैसे वो भजन है ना अब सौंप दिया इस जीवन को भगवान तुम्हारे हाथों में । है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ।। 

उसी तरह अमोलक जी भी अपना जीवन लाजो जी को सौंपकर निष्फिक्र हो गये थे । लाजो जी जो बनाकर खिला दे वही खा लेना और जो वह कहें, उसे मान लेना । इतना ही काम रह गया था उनका अब घर में । 

कुछ औरतें अपने पति को महाराज बनाकर रखती हैं और खुद रानी की तरह से सम्मान पाती हैं । मगर कुछ औरतें ईर्ष्यावश या अपनी मां के प्रभाव में आकर या आधुनिकता के घमंड में अपने पति को "हुक्म के गुलाम" की तरह रखती हैं । ऐसी औरतें अपने आपको बहुत होशियार,  प्रगतिशील,  आधुनिक और न जाने क्या क्या समझती हैं । मगर उनकी कोई इज्जत नहीं होती है समाज में । जो औरत अपने पति का सम्मान नहीं कर सकती वह किसी और का सम्मान क्या करेगी ? और जो किसी का भी सम्मान नहीं करती तो कोई उसका भी सम्मान क्यों करेगा ? इसलिए ऐसी औरतें सब जगह ही दुत्कारी जाती हैं । जितना सम्मान दोगे, उतना ही लोगे भी । 

लाजो जी ने गुरू ज्ञान में सीखा था कि अमोलक जी की किसी भी इच्छा का कोई सम्मान नहीं करना है । इसलिए उन्होंने अमोलक जी की पसंद की घाट की राबड़ी, खाटे की सब्जी, आलन का साग वगैरह कभी नहीं बनाया । वैसे वे बनाती भी कैसे ? उन्हें खुद बनाना आये तो बनाती न । अमोलक जी ने कई बार कहा कि इन्हें बनाना सीख लो , मगर लाजो जी ने तो गुरू ज्ञान लिया था कि अमोलक जी को "मेंढा" बनाकर रखना है इसलिए उन्होंने न कभी सीखा और न ही सीखने की कोशिश की । बेचारे अमोलक जी । अपनी इच्छाओं का गला घोंटकर जीने लगे थे । 

एक दिन बातों बातों में चौधराइन से खाने पीने के बारे में अमोलक जी की बात हो गई । तो उनका दर्द फूट पड़ा । और उन्होंने अनजाने में बता दिया कि उन्हें क्या क्या पसंद है । चौधराइन ठहरी रानी के मिजाज की । वे चौधरी की इच्छाओं का पूरा ध्यान रखती थीं । चौधरी जी को वे महाराज बनाकर रखती थीं न कि हुक्म का गुलाम । उनकी क्या मजाल जो चुधरी जी की इच्छा के खिलाफ वे कुछ कर जायें ? उनको क्या पसंद है क्या नहीं , सब याद रखती थीं वे । चौधरी जी यद्यपि डॉक्टर थे मगर उन्हें भी घाट की राबड़ी, आलन का साग और खाटे की सब्जी बहुत पसंद थी ।

इसलिए जब भी चौधराइन ये सब बनाती थी तो वे अमोलक जी के लिए भी भिजवाती थीं । पता नहीं चौधराइन को अमोलक जी बहुत भले इंसान नजर क्यों आये थे जो हर जगह वे उनके कसीदे काढे रहती थी । पूरे मौहल्लाले में वे अमोलक जी के गीत गाती रहती थीं इससे लाजो जी को  बहुत बुरा लगता था । कोई अमोलक जी की तारीफ करे, यह उन्हें सहन नहीं होता था । वे चाहती थीं कि सब लोग केवल उनकी ही तारीफ करें । मगर मौहल्ले की औरतें लाजो जी के मुंह पर तो उनकी तारीफ करती थीं मगर पीठ पीछे खूब बुराइयां करती थीं । 

मगर इससे लाजो जी को कोई फर्क नहीं पड़ता था । वे तो अपने 'गुरू ज्ञान' के आधार पर चल रही थी ।  खुद में बुद्धि होती तो रानी बनकर रहती ना । दूसरे की बुद्धि से चलने का यही अंजाम होता है । गुलाम की पत्नी की तरह रहना ही नियति है ऐसी औरतों की । 

तो, अमोलक जी को लगा कि आज तो लाजो जी मोबाइल से ही चिपकी रहेंगी , उसे छोड़ेंगी नहीं । हां, मोबाइल ही उन्हें छोड़ दे तो छोड़ दे, वो छोड़ने वाली नहीं लग रही थीं । ऐसे में अपनी फजीहत करवाने से अच्छा है कि खुद ही लेकर खा लो । बहू से कहना ज्यादा बुरा था । जब बीवी ही भाव नहीं देती हो तो बहू से क्या उम्मीद ? इसलिए अमोलक जी बर्तन लाने के लिए रसोई में जाने लगे । बहू रितिका ने देख लिया तो वह झट से बोली 

"पापा , आप बैठे रहिए,  मैं अभी लाती हूं" । और वह बर्तन ले आई और छाछ राबड़ी उसमें डालकर दे दी । अमैलक जी को रितिका का यह व्यवहार बहुत अच्छा लगा ।  चौधराइन ने राबड़ी बहुत शानदार बनाई थी । वैसे भी वे बनाती भी बहुत शानदार थी "घाट की राबड़ी" । घाट की राबड़ी मतलब जौ के दलिए से बनी हुई राबड़ी । देसी जौ को भिगोकर उन्हें ओखली में मूसल से कूटकर उनका छिलका उतार लिया जाता है । फिर उन्हें छाया में सुखाकर,  साफ करके उनका दलिया बनाया जाता है । फिर एक "हांडी" में छाछ खौलाकर उसमें थोड़ा सा दलिया मिलाकर उसे काफी देर तक "खदकाया" जाता है । तब जाकर घाट की राबड़ी बनती है । हां, इसमें केवल नमक मिलाया जाता है , और कुछ नहीं । रात में इसे दूध के साथ और सुबह छाछ के साथ खाया जाता है । बहुत स्वादिष्ट और स्वास्थ्य वर्धक होती है घाट की राबड़ी । जौ का असर होने से कुछ कुछ "बीयर" जैसा नशा देती है ये राबड़ी । आदमी मस्त हो जाता है । फिर उसे गर्मी , लू कुछ भी नहीं लगती है । जेठ के महीने में वरदान है घाट की राबड़ी । 

हरिशंकर गोयल "हरि" 
6.6.22 

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रचनाएँ
बहू पेट से है
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एक परिवार और आसपास के मौहल्ले में रोजमर्रा की जिंदगी में होने वाली घटनाओं , बातों और कथाओं से हास्य पनपता है । हास्य कभी भी अकेला नहीं होता है उसके साथ व्यंग्य उसी तरह चिपका होता है जैसे किसी लड़की पर किसी आशिक की दो आंखें चिपकी होती हैं । बात में से बात निकालने की कला में महिलाओं ने महारथ हासिल कर रखी है और,उसी कला का भरपूर प्रयोग कर पाठकों को गुदगुदाने के लिए लेकर आया हूं यह धारावाहिक । उम्मीद है कि आपको पसंद आयेगा । कृपया समीक्षा अवश्य करें । धन्यवाद।
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