इंसान अपनी जिंदगी के सबसे अच्छे और खुशनुमा पलों की लिस्ट बनाए तो पहले नंबर पर उसके स्कूल डेज होंगे। जब कंधे पर सिर्फ किताबों का बस्ता होता था, न इश्क का रिस्क और न ही जिम्मेदारियों की चिंता। खुश होते थे तो जी भर के हंस लिया करते थे और दिल रूठ जाता था तो आंखों से उसे बाहर निकाल दिया जाता था। वो टिफिन, वो ज्योमेट्री बॉक्स, वो रिक्शा, वो बस सब अच्छी यादों की कागजों में लिपटा हुआ रखा है।
पहले ऐसा लगता था कि स्कूलों के नाम सिर्फ अलग-अलग होते थे बाकि सब एक जैसा होता था। बिल्डिंग, ड्रेस और स्कूल बस एक से होते थे। बाद में समझ आया कि स्कूलों का स्टैंडर्ड फीस के हिसाब से होता था न कि हमार-आपके हिसाब से। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि स्कूल छोटा हो या बड़ा, उसकी स्कूल बस का रंग एक ही होता है। रंग का शेड भी दाएं-बाएं नहीं होता है। बस बिल्कुल चटख पीले रंग की होती है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है।
ये है कारण
बसों पर पीला रंग चढ़ाने की कोशिश अमेरिका से हुई थी। स्कूल बस कैसी हों इस पर वहां एक कांफ्रेंस हो रही थी। वहां डॉक्टर फ्रैंक साइर ने तय किया कि स्कूलों पर पीला रंग का पेंट किया जाए। डॉक्टर साहब कोलिंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे, बसों के पीले होने से क्या फायदे हो सकते हैं ये उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस में बताया। उनकी बात सही थी तभी सबने सिर हिलाकर मान लिया।
देखिए क्या कारण बताए थे
डॉक्टर साहब ने बताया कि पीले रंग में ऐसा एलीमेंट होता है कि यदि उस पर काले रंग की पट्टी या लिखावट की जाए तो कितना भी अंधेरा रहे, सब कुछ साफ साफ दिखेगा।
पीले रंग को इंसानी दिमाग सबसे आसानी से नोट कर लेता है। लाल रंग से भी तेज। लिहाजा ड्राइविंग के दौरान हर स्थिति में पीला रंग दिख जाएगा। अब आप जान गए, कोई पूछेगा तो झट से बताकर महफिल लूट लीजिएगा।