
राजीव गांधी को पता था कि 1989 में होने वाले चुनावों में उनकी सरकार वापस नहीं आने वाली. लेकिन एक आस तो हमेशा ही बनी रहती है. इसी ‘आस’ के चलते उन्होंने या उनके वित्त मंत्रालय ने कोई कदम नहीं उठाए.
ये कहानी है आस की. आस जो कांग्रेस को थी कि ‘लाइसेंस परमिट’ राज देश का विकास करेगा. आस जो राजीव गांधी को थी कि बिना कुछ किए ही देश की अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन आने वाले हैं. आस जो गवर्नर एस. वेंकटरमणन को थी कि सोना सबसे अच्छा विकल्प है. आस जो नरसिम्हा राव को थी कि उनका वित्त मंत्रालय कुछ करेगा और आस जो मनमोहन सिंह को थी कि उदारीकरण ही अंतिम विकल्प है.
कुछ आशाएं टूटीं, कुछ पूरी हुईं, कुछ के बारे में निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता और कुछ के रिज़ल्ट अब तक आने बाकी हैं.
तो कहानी शुरू होती है राजीव गांधी से. वो राजीव गांधी, जिनके बारे में कहा जाता है कि अगर उनका मंत्रीमंडल उनका साथ देता तो आर्थिक सुधार चार-पांच साल पहले ही आ जाते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हुआ बल्कि ये कि जब राजीव प्रधानमंत्री के पद से पदच्युत हुए तो देश में लाइसेंस परमिट राज था. मतलब हर चीज़ को करने के लिए लाइसेंस की जरूरत पड़ती थी. बंदूके रखने के लिए तो अब भी पड़ती है लेकिन तब इंडस्ट्री कितना माल बनाएगी, किसको बेचेगी, कितने रेट में बेचेगी सब कुछ सरकार तय करती थी या अप्रूव करती थी. हम ये बात नहीं करेंगे कि इससे भ्रष्टाचार की कितनी संभावना थी. लेकिन ये ज़रूर था कि इससे देश की आर्थिक हालत खस्ता होती जा रही थी. तो यही लाइसेंस परमिट राज था देश की अर्थव्यवस्था की प्रॉब्लम नंबर – 1.

देश में क्लोज्ड इकॉनमी थी, यानी कोई विदेशी सीधे भारत या भारत की मार्किट में पैसा नहीं लगा सकता था. ये क्लोज्ड इकॉनमी थी भारत की अर्थव्यवस्था की प्रॉब्लम नंबर – 2.
खैर इन दो दिक्कतों की जनक कांग्रेस 1989 में चली गई और उसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री हुए. लेकिन अतीत में फाइनेंस मिनिस्टर रह चुके वीपी सिंह को आर्थिक सुधारों से ज्यादा मंडल-कमंडल की पड़ी हुई थी. और उनका देश की बदहाल होती स्थिति पर ध्यान न जाना ही थी भारत की अर्थव्यवस्था की प्रॉब्लम नंबर – 3.
लेकिन इसी चीज़ ने उनकी कुर्सी छिन ली. फिर आए चन्द्रशेखर. और यूं देश में सरकारें बदलते रहना था भारत की अर्थव्यवस्था की प्रॉब्लम नंबर – 4.
उसी दौरान हो गया खाड़ी युद्ध यानी भारत की अर्थव्यवस्था जो तेल पर निर्भर थी उसके लिए खड़ी हो गई प्रॉब्लम नंबर – 5.
हालत हो गई करेले पे नीम चढ़े सी, कंगाली में आटा गीले सी.

1991 आ चुका था. देश में चन्द्रशेखर की सरकार थी. देश के पास उबरने के लिए कोई रास्ता नहीं था. वो कभी भी दिवालिया हो सकता था. तेल के दाम आसमान छू रहे थे. हर महीने भारत को तेल आयात करने के लिए पहले से दुगना पैसा खर्च करना पड़ रहा था. और सबसे चिंता की बात थी कि तेल आयात करने के लिए महीनों नहीं केवल चंद दिनों का पैसा हमारे पास बचा था. पैसा मतलब विदेशी मुद्रा, डॉलर.
उधर हर बड़े युद्ध की तरह ही खाड़ी युद्ध में भी अमेरिका कूद पड़ा था. इस युद्ध में अमेरिका के दुश्मन इराक के साथ भारत के अच्छे संबंध थे. भारत को कर्ज़ की सख्त और तुरंत जरूरत थी. क़र्ज़ मिलता आईएमएफ यानी इंटरनेशनल मोनेटरी फंड से. लेकिन आईएमएफ क्यूं ही भारत को कर्ज़ देता? उसमें तो दो तिहाई से ज्यादा वोट अमेरिका के थे.
यानी जब लगता था कि हालात इससे ज्यादा खराब नहीं हो सकते तभी भारत को एक और झटका लग जा रहा था. बहरहाल सुब्रमण्यम स्वामी को अमेरिका से बातचीत करने को कहा गया. और इस बातचीत का जो रिज़ल्ट था, वो भारत की अर्थव्यवस्था के लिए आने वाली अच्छी खबरों की श्रृंखला की पहली कड़ी बना.

बातचीत में अमेरिका ने कहा कि हमारे जहाज इस महीने (जनवरी, 1991) इराक पर हमला करेंगे. मगर हम जो हवाई हमला करेंगे उसमें यूज़ होने वाले जहाजों के लिए कोई लैंडिंग बेस और रिफ्यूलिंग की जगह आस पास नहीं है. यदि भारत अपनी धरती हमें इस्तेमाल करने दे तो हम उसके एवज में पैसा देंगे. दुगना तिगुना पैसा देंगे.
स्वामी ने अमेरिका की मज़बूरी ताड़ ली और कहा कि हमारी आर्थिक स्थिति इससे नहीं सुधरने वाली हमें तो लोन चाहिए, दो बिलियन डॉलर का.
बहरहाल बातचीत अच्छे नोट पर समाप्त हुई. अमेरिका के विमानों को भारत की धरती यूज़ करने की इजाजत मिल गई. अमेरिका के हमलों के बाद भारत ने भी कूटनीतिक समझ का इस्तेमाल करते हुए अमेरिका को सही ठहराया. यहां भारत ने अमेरिका का पक्ष लिया और वहां आईएमएफ ने अच्छी खासी रकम भारत को कर्ज़ में दे दी – एक अरब तीन करोड़ डॉलर.
मगर ये अच्छी खासी रकम भी भारत जैसे बड़े देश के लिए ऊंट के मुंह में जीरा सरीखी थी.
आखिरकार प्रधानमन्त्री – चंद्रशेखर, उनके वित्त सलाहकार – मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री – यशवंत सिन्हा और आर बी आई गवर्नर – एस. वेंकटरमणन के मिलकर एक निर्णय लिया – सोना गिरवी रखने का.
लेकिन उसमें कई पेंच थे और ज़ल्दी ही हल निकलने की संभावना कम थी. इसलिए तुरत फुरत में स्मगलिंग में पकड़े गए सोने को बेचने का निर्णय लिया गया. लेकिन, एक और लेकिन…
फ़रवरी आ गया था और कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया था. फ़रवरी में ही बजट आना था. चंद्रशेखर सरकार फरवरी के अंत तक निर्धारित बजट पेश करने में असमर्थ थी. भारत की राजनैतिक परिस्थियों को देखते हुए भारत की आर्थिक रेटिंग भी क्रेडिट-रेटिंग एजेंसियों ने घटा के निम्नतम स्तर पर कर दिया था. और इसकी वजह से शॉर्ट-टर्म लोन मिलना भी मुश्किल हो गया, और बात साल महीनों या हफ्तों से घट के दैनिक सर्वाइवल पर आ टिकी.
आईएमएफ ने भी लोन देना बंद कर दिया और पहले से चल रहे लोन को भी रोक दिया.

खैर इस दौरान जैसे तैसे करके कस्टम अधिकारीयों द्वारा पकड़ा गया सोना स्विजरलैंड में बेचा गया (गिरवी नहीं रखा गया बेचा गया, लेकिन पुनर्खरीद विकल्प के साथ.) इससे भारत को बीस करोड़ डॉलर मिले. ये भी नाकाफी और कुछ समय और प्राप्त करने भर के लिए थे.
21 जून, 1991 को नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने जो अपने वित्त मंत्री के साथ मिलकर भारत का सबसे दबंग बजट लेकर आने वाले थे. लेकिन उससे पहले सोने की कथा का पटाक्षेप होना था.
वेंकटरमणन ने इंग्लैंड और जापान के बैंकों से डील नक्की कर ली थी. लेकिन इन दोनों बैंकों ने ये शर्त रखी कि हम सोना तभी गिरवी रखेंगे जब वो भारत से बाहर किसी देश में रखा जाएगा. मतलब ‘वायदा कारोबार’ जैसा नहीं कि पेपर में कह दिया गिरवी तो गिरवी. फिजिकली भी सोने पर मालिकाना हक़ चाहिए.
अब इसमें दिक्कत ये थी कि डील लगभग 47 टन सोने की थी, इतने सोने को कैसे चुपके से पार लगाया जाता. चुपके से इलसिए क्यूंकि देश की जनता को भनक नहीं लगने देनी थी न.
बहरहाल, जुलाई में आरबीआई ने 46.91 टन सोने को गिरवी रखा और 400 मिलियन डॉलर जुटाए.
लेकिन इस ‘माल की डिलीवरी’ की खबर इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने में छाप दी. पत्रकार शंकर अय्यर, जिन्होंने इस न्यूज़ को ब्रेक किया था, ने एक न्यूज़ इंटरव्यू में बताया – ‘मैं गया एयरपोर्ट पर और मैंने देखा जहाज. फिर हमने काफी सारी इनफार्मेशन वहां से पता लगाई. एटीसी (एयर ट्रैफिक कण्ट्रोल) से पता लगाई. जहाज कहां जा रहा है क्या लोड है. इसमें नीचे हमने एक अजीब सा दृश्य देखा हमने देखा कि RBI की बड़ी सारी वैन खड़ी थीं. बहुत सारी सिक्योरिटी. अफसरों ने मुझसे कहा कि इतनी सिक्योरिटी कभी पहले नहीं देखी गई. जब सारा कुछ तहकीकात किया तो एकदम कंफर्म हो गया कि यहां से सोना बाहर ले जाया जा रहा है.’

बाद में मनमोहन सिंह को संसद में सफाई भी देनी पड़ी कि यह – ‘दुखदाई रूप से ज़रूरी’ हो गया था.
लेकिन बाद में जब उसी साल देश के आर्थिक हालात सुधरने शुरू हुए तो सोना वापस खरीद लिया गया. ये महीना था दिसंबर का. यानी जनवरी, 1991 से शुरू हुआ तूफ़ान उसी साल के अंत (दिसंबर, 1991) तक आते-आते एक ठंडी बयार में बदल गया था.
सोना गिरवी रखना देश के आर्थिक सुधारों की नींव और मोटिवेशन बना.
अच्छा सोने पे बात हो रही है तो देखिए हम कहां से कहां पहुंच गए. किसी दौर में सोना गिरवी रखने वाली कांग्रेस सरकार ही ने 2009 में 200 टन सोना खरीदा और देश के गोल्ड रिजर्व को और मजबूती मिली.
Gold Series Part 2 - How Gold Pledging saved indian economy and paved the way for economic reforms