दिनकर की धूप पाकर
भोजन बनाता है पेड़ दिनभर,
लक्ष्यहीन अतरंगित असम्पृक्त को
भटकन से उबारता है पेड़ दिनभर।
चतुर्दिक फैली ज़हरीली हवा
निगलता है पेड़ दिनभर,
मुफ़्त मयस्सर प्राणवायु
उगलता है पेड़ दिनभर।
नीले शून्य में बादलों को
दिलभर रिझाता है पेड़ दिनभर,
आते-जाते थके-हारे परिंदों को
बुलाता है पेड़ दिनभर।
कलरव की प्यारी सरगम
उदासी में सुनता है पेड़ दिनभर,
आदमी को अपनी नज़रों में
उठता-गिरता देखता है पेड़ दिनभर।
यूनिवर्सिटी में रिसर्च का
विषय बनता पेड़ दिनभर,
राजनीति के हाथों सजीले गड्ढे में
रोपा जाता पेड़ दिनभर।
पथिक को ठंडी हवा के झौंकों से
दुलराता पेड़ दिनभर,
साधनविहीन पाठशाला का
आसरा बनता पेड़ दिनभर।
बाग़बान को सुख-चैन की
रागिनी सुनाता पेड़ दिनभर,
कलाकारों की साधना का
आयाम बनता पेड़ दिनभर।
निर्विवाद इतिहास
रचता है पेड़ दिनभर,
भौतिकता के अलबेले दौर का
मज़ाक़ उड़ाता पेड़ दिनभर।
फलों का भार लादे लचकदार होकर
जीना सिखाता पेड़ दिनभर,
पढ़ने जाती नन्हीं मुनिया को
बढ़ते हुए देखता पेड़ दिनभर।
खेतों में पसीना बहाते मेहनतकशों को
मिलीं गालियाँ सुनता पेड़ दिनभर,
सबूत मिटाकर सफ़ेदपोश बने
अपराधी के अपराध गिनता है पेड़ दिनभर।
क्या-क्या नहीं करता है पेड़ दिनभर...
सारे भले कार्य करता है पेड़ दिनभर,
मरकर भी हमारा पेट भर जाता है शजर
फिर क्यों काटा जाता है पेड़ दिनभर ?
© रवीन्द्र सिंह यादव