दिल-नशीं हर्फ़
सुनने को
बेताब हो दिल
कान को
सुनाई दें
ज़हर बुझे बदतरीन बोल
क़हर ढाते हर्फ़
नफ़रत के कुँए से
निकलकर आते हर्फ़
तबाही का सबब
बनते हर्फ़
भरा हो जिनमें
ख़ौफ़ और दर्प
तो
कुछ तो ज़रूर करोगे.....
कान बंद करोगे ?
बे-सदा आसमान से
कहोगे-
निगल जाओ इन्हें
या
भाग जाओगे
सुनने सुरीला राग
वहाँ
जहाँ
बाग़ की फ़ज़ा
बदलने के इंतज़ार में
दुबककर बैठी है
मासूम कोयल!
शब्द ऊर्जा है
रूप बदलकर
ब्रह्माण्ड में रहेगा
सामूहिक चेतना में
रचेगा-बसेगा
सोचो!
समाज कैसा बनेगा ?
© रवीन्द्र सिंह यादव