सोचता हूँ
गढ़ दूँ
मैं भी अपनी
मिट्टी की मूर्ति,
ताकि होती रहे
मेरे अहंकारी-सुख की क्षतिपूर्ति।
मिट्टी-पानी का अनुपात
अभी तय नहीं हो पाया है,
कभी मिट्टी कम
तो कभी पर्याप्त पानी न मिल पाया है।
जिस दिन मिट्टी-पानी का
अनुपात तय हो जायेगा,
एक सुगढ़ निष्प्राण
शरीर उभर आयेगा।
कोई क़द्र-दां ख़रीदार भी होगा
रखेगा सहेजकर,
जहाँ पहुँचता न हो हथौड़ा
मूर्तिभंजक दम्भी खीझकर ..!
#रवीन्द्र सिंह यादव