अंशू खो खो टीम की कैप्टन बनकर नेशनल खेलने कानपुर गई थी तब वो आठवीं कक्षा में थी। उनकी टीम द्वितीय पुरस्कार जीती ।
अंशू में कुछ गुण मेरे जैसे हैं और कुछ उसके पापा जैसे। पढ़ने लिखने का शौक उसे मुझ से आया है और लोगों से बहुत ही जल्दी घुल मिल जाना यह हुनर उसने अपने पापा से सीखा है। सच में बहुत जल्दी घुलमिल जाती है जो कि मेरे व्यवहार से बिल्कुल विपरीत है । ज्यादा भावुक होना उसका अपना स्वभाव है ।
मैं हमेशा कोशिश करती हूं कि उसकी अच्छी सहेली बन कर रहूं वह मुझे हर बात शेयर करे । और वह बताती भी है अपने स्कूल की, दोस्तों की हर बात मुझे ।
अक्सर बच्चे अपने दादा दादी, नाना नानी और कोई रिश्तेदार चाचा चाची ,मामा मामी के घर में खूब रह लेते हैं। लेकिन अंशु मेरे बिना कहीं नहीं रहती। जहां जहां मैं जाती हूं वहीं पर जाती है। और जितने दिन में रहती हूं उतने दिन ही रहती है। मैं उसे कभी अकेला नहीं छोड़ती हूं।
लेकिन कहते हैं ना कि जिंदगी में कई बार ऐसे फैसले भी लेने पड़ते हैं जिसमें मां की ममता और पिता की चिंता दोनों को साइड रख के बच्चे का फ्यूचर देखना पड़ता है और हाल कुछ ऐसा है कि अभी अंशु नवोदय में पढ़ रही है । वैसे यह फैसला लेना हमारे लिए बहुत मुश्किल था और जितना मुश्किल हमारे लिए था उतना ही अंशु के लिए.... ना वह तैयार थी हमसे दूर जाने में और ना हम तैयार थे उसे दूर भेजने में। दोनों को फिक्र एक ही बात की थी कि इतनी दूर कैसे रहेंगे ......
लेकिन यह फैसला भी लिया और वह दिन भी आया जब हमने उसे नवोदय भेज दिया और अभी वह वहां अच्छे से रह रही है और हम लोगों को भी उसकी ज्यादा चिंता नहीं होती है बात हो जाती है बीच-बीच में और वह अपने नए स्कूल की, नए सफर के एक्सपीरियंस हमसे शेयर करती रहती है कई बार बताती हैं कि मां मैंने यह सीखा , मैंने वह सीखा ........
कहते हैं ना जब तक चीजों को फेस नहीं करोगे तो सीखोगे कैसे बस वही हुआ, अंशु बाहर भी गई और आज वह बाहर खुद मैनेज करना सीख गई है और सीख रही है......😊