‘मांझी’ एक आम फिल्म नहीं है, एक हकीकत है।
बिहार के एक मामूली मजदूर की प्रेम कहानी अखबार की चंद कतरनों में सिमट कर कहीं खो गई थी। लेकिन रुपहली दुनिया की इस बेहतरीन कोशिश ने दशरथ मांझी की भूली बिसरी कहानी को बिहार के गया जिले में फिर से तलाशने की वजह दे दी है।
गया जिले के गहलौर गांव के करीब पहाड़ के बीचों बीच से गुजरता यही रास्ता दशरथ मांझी की पहचान है। ना बड़ी बड़ी मशीनें थीं और ना ही लोगों का साथ – दशरथ मांझी अकेले थे और उनके साथ थे बस ये छेनी, ये हथौड़ा और 22 बरस तक सीने में पलता हुआ एक जुनून। दशरथ का वो जुनून अटारी ब्लाक के गहलौर गांव के लिए एक तोहफे में बदल गया।
दशरथ मांझी का ये काम कितना बड़ा था ये समझने के लिए जरा इस नक्शे पर गौर कीजिए। गहलौर की जरूरत की हर छोटी बड़ी चीज, अस्पताल, स्कूल सब इस वजीरगंज के बाजार में मिला करते थे लेकिन इस पहाड़ ने वजीरगंज और गहलौर के बीच का रास्ता रोक रखा था. लोगों को 80 किलोमीटर लंबा रास्ता तय करके वजीरपुर तक पहुंचना पड़ता था दशरथ मांझी ने इस पहाड़ को अपने हाथों से तोड़ दिया और बना दिया एक ऐसा रास्ता जिसने वजीरपुर और गहलौर के बीच की दूरी को महज 2 किलोमीटर में समेट दिया।
उनकी मोहब्बत की वो कहानी जो उनके इस लंबे चौड़े परिवार में उनकी मौत के बाद भी जिंदा है.
1934 में जन्मे दशरथ मांझी की शादी बचपन में ही हो गई थी लेकिन दशरथ मांझी की मोहब्बत तब परवान चढ़ी जब वो 22 साल की उम्र में यानी 1956 में धनबाद की कोयला खान में काम करने के बाद अपने गांव वापस लौटे और गांव की एक लड़की से उन्हें मोहब्बत हो गई। लेकिन किस्मत देखिए ये वही लड़की थी जिससे दशरथ मांझी की शादी हुई थी।
दशरथ मांझी ने ये पहाड़ तोड़ने का फैसला अपनी उसी मोहब्बत यानी फाल्गुनी के लिए किया था। एबीपी न्यूज से 8 बरस पहले एक साक्षत्कार में दशरथ मांझी ने खुद बताया था कि आखिर उनकी तकदीर में पहाड़ की दुश्मनी कैसे आ जुड़ी थी।
दशरथ मांझी पर बनी इस फिल्म के प्रमोशन में भी दशरथ मांझी की वो जिद नजर आती है. उनकी पत्नी फाल्गुनी का पांव फिसलता है। और फिर दशरथ पहाड़ तोड़ने के लिए निकल पड़ते हैं। जो ख्याल ही हार मान लेने को मजूबर कर देता है वो दशरथ मांझी का जुनून बन गया. दशरथ मांझी अपने जीते जी उस रात को कभी नहीं भूले।
लेकिन दशरथ मांझी को उस पल का इंतजार था जब उनका ख्वाब पूरा होगा और वो वजीरपुर से गहलौर के बीच राह रोक कर खड़े पहाड़ को तोड़ नहीं देंगे। मांझी की ये कोशिश अब कुछ ऐसी दिखती है लेकिन इसने मांझी से बहुत कुछ छीन लिया था।
मांझी ने सब कुछ गंवा दिया था। उस दौर का जिक्र भी मांझी फिल्म में नजर आता है जहां मांझी आधी रात को पहाड़ की गोद में नजर आते हैं। शायद ये वही मोड़ था जब मांझी ने मदद की उम्मीद छोड़ी और खुद अपने ख्वाब को पूरा करने में जुट गए।
दशरथ मांझी के हथौड़े ने पहाड़ को दो हिस्सों में बांट दिया. पच्चीस फुट ऊंचा पहाड़ दशरथ मांझी के हौसले के आगे हार गया। मांझी ने 30 फुट चौड़ी और 365 फुट लंबी सड़क पर अपनी विजय गाथा लिख दी।
नीतीश कुमार साल 2007 में बिहार मुख्यमंत्री थे और पहाड़ के बीच पक्की सड़क बनाने की मांग को लेकर नीतीश कुमार से मिलने पहुंचे थे। नीतीश ने उन्हें अपनी ही कुर्सी पर बिठा दिया।
लेकिन दशरथ मांझी के लिए ऐसे सम्मानों की अहमियत कभी नहीं रही। दशरथ मांझी के नसीब में अपने जीतेजी अपने गांव की इस नई जीवनरेखा को पूरा होते देखना नहीं लिखा था।
दशरथ मांझी ने जिस पत्नी के लिए पहाड़ तोड़ने का करिश्मा किया था वो उसे देखने के लिए जीवित नहीं थी। साल 2007 में गॉल ब्लैडर के कैंसर से जूझते हुए दशरथ मांझी ने भी 73 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उनकी कहानी पत्थर पर लिखा इतिहास है जिसे बार बार दोहराया जाता रहेगा।
दशरथ मांझी जी के जीवन से कई सबक मिलते हैं, जैसे सच्चा प्रेम करना और प्रेम के लिए कुछ भी कर जाना। कैसे एक आम-सा दिखने वाला इंसान पहाड़ के आर-पार रास्ता बना सकता है।
Source: Gaya Sight