तितली, तितली! इस फूल से उस पर, उस से फिर तीसरे पर, फिर और आगे, रंगों की शोभा लूटती, मधुपान करती, उन्मत्त, उद्भ्रान्त तितली! मेरे इस सम्बोधन में उपालम्भ की जलन नहीं है। तितली! तुम्हारा जीवन चंचल, अस्थ
तुम्हीं हो क्या वह प्रोज्ज्वल रेखाओं में चित्रित ज्वाला एक अँधेरी पीड़ा की छाया हो मानो आशाओं ने घेरी? सारस-गति से चली जा रहीं मौन रात्रि में, नीरव गति से, दीपों की माला के आगे! क्षण-भर बुझे दीप,
आकाश में एक क्षुद्र पक्षी अपनी अपेक्षा अधिक वेगवान् पक्षी का पीछा करता जा रहा है। क्षुद्र पक्षी! तू अपने नीड़ से दूर और दूरतर होता जा रहा है, अपने विभव को खो कर उस का पीछा कर रहा है। किन्तु वह तेजोर
मेरे मित्र, मेरे सखा, मेरे एक मात्र विपद्बन्धु- आत्माभिमान! देखो, मैं ने अपने अन्तर की नारकीय वेदना छिपा दी है, मेरे मुख पर हँसी की अम्लान रेखा स्थिर भाव से खिंची है। जब तक रात्रि के एकान्त में मैं अप
ये सब कितने नीरस जीवन के लक्षण हैं? मेरे लिए जीवन के प्रति ऐसा सामान्य उपेक्षा-भाव असम्भव है। सहस्रों वर्ष की ऐतिहासिक परम्परा, लाखों वर्ष की जातीय वसीयत इस के विरुद्ध है। मेरी नस-नस में उस सनातन जीव
वधुके, उठो! रात्रि के अवसान की घनघोर तमिस्रता में, अनागता उषा की प्रतीक्षा की अवसादपूर्ण थकान में हम जाग रहे हैं, मैं और तुम! हमारे प्रणय की रात- हमारे प्रणय की उत्तप्त वासना-ज्वाला में डूबी हुई रात
छाया! मैं तुम में किस वस्तु का अभिलाषी हूँ? मुक्त कुन्तलों की एक लट, ग्रीवा की एक बंकिम मुद्रा और एक बेधक मुस्कान, और बस? छाया! तुम्हारी नित्यता, तुम्हारी चिरन्तन सत्यता क्या है? आँखों की एक दमक -
प्रिय! मेरे चरणों से पागल-सी ये लहरें टकराती हैं, मेरे सूने उर-निकुंज में क्या कह-कह कर जाती हैं? एक बार तेरे सुन्दर चरणों को जब वे छू लेती हैं 'नहीं पुन: यह भाग्य मिलेगा', यही सोच वे रो देती हैं।
मैं दुंदभि हूं मैं नगाड़ा हूं देवालयों का सहारा हूं। चोट खाकर तन पर अपने मनमोहक स्वर उगलता हूँ। कलयुग में हूँ अपाहिज संस्कार-संस्कृति से जुड़ा हूं। सदैव रहता हूं संग-साथी के प्रेम-प्यार
मन कचोटता रहता है क्या लिखूँ-क्या लिखूँ अंतस में सोचता रहता है। यथार्थ लिखने से डरता है अंदर ही अंदर घुटा रहता है। परिधि पार करेगी जब घुटन-टूटन, वेदना-संवेदना फूटेगा तब हृदय-नासूर उछल-
आओ जीवन का लक्ष्य बनाएं पर्यावरण को मिलजुल बचाएं। सबका ध्येय पर्यावरण बचाना वृक्ष लगाना प्रदूषण भगाना। जल, वायु, मिट्टी बचाना रोग मुक्त जीवन बनाना। प्रकृति का रक्षण करके स्वच्छ वातावरण बन
युद्ध भूमि में महाराणा सिंह समान गरजे थे। दुश्मनों के छक्के- छुड़ा मेघ- सम बरसे थे। महाराणा को देख शत्रु भय से कंपित हो जाता था। पल-भर में राणा का भाला छाती में धस जाता था। रणभूमि म
नमन-वंदन कीजिए माँ सीता के चारू-चरणों का करबद्ध वंदन कीजिए। पुष्प-चरण पल्लव पर पड़े कँवल कलिका प्रफुल्लित हुई। माँ की मुख-मंडल छवि को शत- शत नमन कीजिए। कष्ट हर्ता चरण-कमलों का सदैव
दोस्तों हम माने या ना माने पैसा हमारी जिंदगी में एक खास जगह रखता है, यह सच है, की पैसा सब कुछ नहीं लेकिन यह भी सच है, की पैसा बहुत कुछ है , आपको कपड़ें लेने है तो पैसा चाहिए , खाना, खाना है तो पैसा चाह
धुर की बाणीएं ! दिलां दीए राणीए नीं ! तेरे मूंह लगाम ना रहन देना । जिन्नी बानी है किरत दे फलसफ़े दी, नाले उहनूं बेनाम ना रहन देना । इक्को बाप ते इक्को दे पुत्त सारे, हे रविदास मैं फिर दुहरा रेहा
धरती दी अक्ख जद रोयी सी तूं सच्च दा दीवा बाल दित्ता पायआ 'नेर पाखंडियां सी एथे तूं तरक दा राह सी भाल दित्ता तेरी बेगमपुरा ही मंज़िल सी ताहीउं उसतत करे जहान सारा तेरी बानी नूं जिस लड़ बन्न्हआं 'न्
अब कैसे छूटे राम, नाम रट लागी | प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानि | प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चन्द चकोरा | प्रभुजी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती | प्
नहाते त्रिकाल रोज पंडित अचारी बड़े सदा पट बसतर खूब अंगन लगाई है । पूजा नैवेद आरती करते हम विधि-विधान चंदन औ तुलसी भली-भाँति से चढ़ाई है । हारे हम कुलीन सब कोटि-कोटि कै उपाय कैसे तुम ठाकुर हम अप
तुझहि चरन अरबिंद भँवर मनु। पान करत पाइओ, पाइओ रामईआ धनु।। टेक।। कहा भइओ जउ तनु भइओ छिनु छिनु। प्रेम जाइ तउ डरपै तेरो जनु।।१।। संपति बिपति पटल माइआ धनु। ता महि भगत होत न तेरो जनु।।२।। प्रेम की जे
ताथैं पतित नहीं को अपांवन। हरि तजि आंनहि ध्यावै रे। हम अपूजि पूजि भये हरि थैं, नांउं अनूपम गावै रे।। टेक।। अष्टादस ब्याकरन बखांनै, तीनि काल षट जीता रे। प्रेम भगति अंतरगति नांहीं, ताथैं धानुक नीका र