कविता भक्ति की लिखूँ
या श्रृंगार की,
सविता एक ही है,
जो शब्दों में जलता है ।
अक्षर चाहे जो भी उगें,
कलम के भीतर
भगवान मौजूद रहते हैं ।
दूसरों से मुझे जो कुछ कहना है,
वह बात प्रभु पहले
मुझसे कहते हैं।
करुण काव्य लिखते समय
कवि पीछे रोता है,
भगवान पहले रोते हैं ।
क्रोध की कविता
भगवान का भौं चढ़ाना है।
और प्रशंसा नर की करो
या नारी की,
भगवान नाराज नहीं,
खुश होते हैं ।
होता सबसे बड़ा तो नहीं,
फिर भी अच्छा वरदान है ।
मगर मालिक की अजब शान है।
जिसे भी यह वरदान मिलता है,
उसे जीवन भर पहाड़ ढोना पड़ता है।
एक नेमत के बदले
अनेक नेमतों से हाथ शोना पड़ता है ।