इतना जिया कि जीते-जीते
सारी बात भूल गया।
शब्दों के कुछ निश्चित अर्थ
मैंने भी सीखे थे ।
और उन अर्थों पर मुझे भी नाज था ।
और नहीं, तो उतने ज़ोर से
बोलने का क्या राज़ था?
स्त्रियों के बाल मुझे भी
रेशम-से दिखायी देते थे ।
और चाँद की ओर आँखें किये
मैं सारी रात जगता था।
सच तो यह है कि सितारों से
चाँदी के घुंघुरुंओं की आवाज़ आती थी।
और चाँद मुझे औरत के
मुंह-जैसा लगता था ।
सोचता था, प्रकृति के पीछे कोई विद्यमान है,
जो मेरा प्रेमी और सखा है ।
(देखा-देखी रहस्यवाद का मज़ा
थोड़ा-बहुत मैंने भी चखा है ।)
मगर विज्ञान ने सारी बातें
तितर-बितर कर दीं ।
और विज्ञान से मेरा कुछ मतभेद है ।
गरचे मुझे खेद है
कि न तो मैं विज्ञान को समझता हूँ
न विज्ञान मुझे समझ पाता है ।
ऐसे में गुरो!
केवल आपका नाम याद आता है।