असहिष्णुता
असहिष्णुता के बीज जो बो दिए हैं तुमने।
श़ज़र बनने से उननको मैं रोक न पाऊँगा।
कहेगा मेरा मन नही किसी के भी लिए पर,
दो कदम तुमको अपना राग तो सुनाऊँगा।
फिर न कहना पेड़ के फल सरों पर लगते हैं।
नही थे जो नफ़रतों के भाव.दिल में जगते हैं।
मैं भी हूँ इक आदमी तुम्हें कुछ तो बताऊँगा।
मेरे हक तुम्हारी सीढ़िओं पर पिघल गए थे।
मन के अच्छे भाव उसी क्षण तो जल गए थे।
जले हुए भावों की कहीं तो चिता सजाऊँगा।
जिंदगी से मौत की राह पर था अस्तित्व मेरा।
भय के भाव ने जब इस मन में किया था डेरा।
उस समय के दुराव को कहीं तो झुलसाऊँगा।