मूक ही थी प्रेम की भाषा
मैं परिभाषित भी कैसे करूँ
जो बात शब्द नही कह पाते
वो मौन हैं कह जाते।
जब विचारों में घुमड़ते हैं बादल
वो बरस हैं जाते
जैसे मेघों की चहलकदमी से
कुछ बूंद बरस हैं जाते।
प्रेम की रंगत चढ़ी है मुझ पर
उन मेघों की जो मेरे ह्रदय के धरातल पर
उमड़ती घुमड़ती रहती है
बिन गर्जना के बरस पड़ती है।
कहाँ हो तुम मधुर मधुर
ध्वनि से मुझे सम्मोहित कर लेते हो
मुझमें अनुराग की
लगन लगा कर।
शायद यही है प्रेम की अनुभूति
जो तुम मेरे भीतर जगा जाते हो
बिन बोले बहुत कुछ कह जाते हो
अधरों से अमृत पिला जाते हो।
क्या यही मेरी नियति है
मुझे मीरा बना जाते हो।