राही राह पर चलते हैं,
काॅटे उन्हें ही गड़ते हैं ।
मंजिल उनका आदर करती ,
जीवन उनका सॅवरते हैं ।।
कर्तव्यच्युत जो तकते रहते,
अक्सर वही अकड़ते हैं ।
राही के रोड़े बन जाते,
कदम- कदम पर लड़ते हैं ।।
राही राह पर उन्मुख होते,
रोड़े आते रहते हैं ।
कर्म-योग का मर्म यही है,
इससे नहीं वे हटते हैं ।।
भाव कर्महीनता का राही,
जब कभी नहीं अपनाते हैं ।
शनैः -शनैः तब वह राही,
परम् पूज्य हो जाते हैं ।।
-- सकलदेव