जब प्राण तन से निकले
हीरागुरुजी अपने शिष्यों को अक्सर यह समझाया करते हैं कि देह त्याग के समय चित्त के द्वारा जो चिंतन किया जाता है उसी के अनुरुप जीवात्मा को अन्य देह की प्राप्ति होती है; जैसे कि हवा जिधर जाती है उधर अपने साथ प्रस्थान-स्थल के गंध को साथ लेकर जाती है। और इसी कारण साधक जीवन पर्यन्त साधना करता है ताकि अन्तकाल में उनकी आत्मा कोई ऐसी चिन्तन न कर बैठे जिनसे उन्हें मानव देह के अलावे निम्न योनियों में जाना पड़े।
हीरागुरुजी सद गृहस्थ साधू हैं। उनका अधिकांश समय प्रवचन, सत्संग, सभा आदि में ही ब्यतीत होता है। कमला उनकी गुणवती पत्नी है। दो पुत्र और तीन पुत्रियाें से घर शोभायमान है। घर मंदिर-सा बना हुआ है। सायं काल में सभी साथ ही बैठकर स्तुति-विनती करते हैं, सत्संग कार्यक्रमों में भी साथ ही जाते हैं। उनका मंदिर सदृष घर जब जाता हूॅ तो पाॅचों संताने चरण स्पर्श करते फिर बैठने को कहते हैं। कमला कुशल-क्षेम पूछती। हीरागुरुजी आध्यात्म की चर्चा करते नहीं अघाते। बगैर कुछ खिलाये आने नहीं देते हैं। मेरे घर से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर उनका घर है। बाल्यकाल से ही उनके यहाॅ आना जाना होता रहा हैं। छठे वर्ग का छात्र था, उस समय मैं एकबार उनसे सत्संग का कार्यक्रम अपने घर में माॅगा था और वे बेहिचक मेरे घर आये थे। आज सोंचता हॅू किस खुश किस्मती ने ऐसे चरित्र से मुझ अकिंचन का सान्निध्य करा दिया !
अब मैं अपनी पत्नी और तीन संतानों के साथ गृहस्थ-जीवन जी रहा हॅू। हीरागुरुजी की अहैतुकी कृपा आज भी बनी हुई है। अक्सर फोन से मार्ग दर्शन भी करते रहते हैं। पति-पत्नी एक साथ स्तुति-विनती किया करो, बच्चे को भी साथ बैठाओ। देह त्याग के समय ये ही समीप रहेंगे। इसलिय अभी से इनको तैयार करो। उस समय कोई रोये नहीं, भजन हो, सद् ग्रंथ का पाठ हो। उस समय दूसरा कोई साथ नहीं देने वाला है। - इन बातों की चर्चा अक्सर किया करते हैं। उनकी इन बातों में गीता , उपनिषद् का सार जो निहित है।
एक साथ स्तुति-विनती किया करो, बच्चे को भी साथ बैठाओ। देह त्याग के समय ये ही समीप रहेंगे ..........।’’ मैने मोबाईल का स्पीकर आॅन कर दिया और अपनी जीवन संगिनी गीता को भी सुनाया। 25 मिनटों तक हम प्रवचन सुनते रहे। मैं तो जानता व समझता ही था, आज गीता भी इस रहस्यपूर्ण तत्व-चिंतन को स्वीकार कर बोली - ’’ आज के भौतिकवदी युग में जब प्राण तन से निकले इस तरह के मार्ग-दर्शन देने वाले दुर्लभ है, नितान्त दुर्लभ! ’’ .... ..... सकलदेव