पथद्रष्टा हीरा गुरुजी
प्रणाम सर !
जय गुरु प्यारे, आओ प्यारे इधर बैठो। कहाँ से आए हो? कहाँ घर है?
हरचंदपुर ।
और पिताजी का नाम?
उमा चरण ?
किस क्लास में पढ़ते हो?
छठी क्लास में ?
और कौन स्कूल में ?
मुंडली मिशन में सर।
वाह ! ठीक है प्यारे। बहुत अच्छा ।
सर, मैं अपने घर में सत्संग कराना चाहता हूँ । आपका प्रोग्राम लेने आया हूँ ।
वाह ! ऐसी इच्छा है ? सत्संग में जाते हो ?
जी, हाँ सर। कभी-कभी ।
अरे ! ओ भक्ति की माँ , सुनती हो। मेरी प्रोग्राम वाली डायरी लाना तो ।
हाँ हाँ, लाती हूँ ।
एक स्त्री आंगन में आई, हाथ में डायरी लेकर। यही हीरा गुरु जी की धर्म पत्नी है, मैं समझ गया। सरलता चेहरा से टपक रही है। भोली भाली। गुलाबी रंग की साड़ी पहनी। और नाम भी गुलाबी। डायरी देकर चली गई। हीरा गुरुजी डायरी के पन्ने पलटने लगे और मुझसे सहज अंदाज में बातें भी। यूं तो मैं उन्हें पहले से जानता था। उच्च विद्यालय मुंडली मिशन शिक्षक हैं । अपने गांव के सत्संग में उनको देखा भी हूँ और सुना भी हूँ। उनके द्वारा सस्वर रामचरितमानस का पाठ मेरे दिल को उसी समय हो छू गया था और मैं उनके जैसे ही स्वर में घर में रामचरितमानस का पाठ करता भी हूँ । परंतु आज पहली बार इनसे व्यक्तिगत रुप से मिला हूँ । गोरा बदन, लंबा कद, आत्मविश्वास से भरी सहज मुस्कान, किसी भी आदमी के लिए आकर्षण का केंद्र हैं । सब लोग इन्हें हीरालाल मास्टर कह कर पुकारत हैं और आज कल महात्मा हीरा के नाम से ख्यातिलब्ध हैं। मुझे प्रोग्राम मिल गया। करीब आधे घंटे बीते ही होंगे कि उनकी धर्मपत्नी दो गिलास पानी और दो प्लेट में पका पपीता लेकर आई । बिना किसी आदेश के, सहज संस्कार मैंने देखा। प्लेट हाथ में थमाती हुई, स्नेहमयी वाणी से मेरा नाम, मेरी पढ़ाई के बार पूछी और बोली –‘मन लगाकर पढ़ाई-लिखाई करो, बाबू। शिक्षा से बढ़ कर कुछ नहीं है।’ घर आने के समय हीरा गुरूजी गाँव के बाहर तक छोड़ गए थे । आज भी उस दिन की प्रेममयी-स्मृति मेरी आंखो के सामने मानो फिल्म के दृश्य की भांति स्फूर्तिमान हो जाया करती है। सोचता हूँ , यही वह निश्छल प्रेम है जो व्यक्ति को व्यक्ति से सदा के लिए जोड़े रखता है। महापुरुषों ने इसे ही सात्विक-प्रेम कहा है।
मेरे बाल-मन में उत्साह भरा हुआ था। सत्संग के प्रोग्राम का 1 सप्ताह बचा हुआ था। गांव में जितने सत्संगी थे, सबका घर गया और सूचना दी कि मेरे घर में रविवार के शाम 7:00 बजे से सत्संग का कार्यक्रम है। पूज्य हीरालाल मास्टर आएंगे आप सभी मेरे यहां अवश्य आइए। सत्संग का दिन आया , पुनः दोपहर से ही मैंने गांव घुमा और सूचना दी ताकि कोई भूल न जाए। श्रद्धा से भरी मेरी मां गेहूं के आटे और गुड़ का प्रसाद बनाई थी। पैसे की कमी थी, बावजूद इसके मैंने बाजार से पावभर सेव लाया था ताकि मैं अपने पूज्य हीरा गुरु जी का अभ्यागत-सत्कार कर सकूँ । उस घास की छावनी वाले अपने छोटे से अध्ययन कक्ष में उन्हें बिठाया । जब एक प्लेट सेव दिया था तो उन्होंने कहा था ‘इसकी क्या जरूरत है बाबू? ये सब क्यों किया? सत्संग के कार्यक्रम को खर्चीला नहीं करना है, प्यारे।’ कितनी सरलता और सहजता थी उनकी वाणी में ! लेस मात्र भी कृत्रिमता नहीं । वह आवाज आज भी मेरे कानों में गूँजती है। ऐसा लगता है कि आज ही वे मेरे घर आए हैं। ऐसे चरित्र का सान्निध्य ही तो देव दुर्लभ कहा गया है। सत्संगति दुर्लभ संसारा। उस रात जमकर सत्संग हुआ था। पूरा प्रांगण श्रोताओं से भर गया था। ढोल, हारमोनियम, झाल आदि वाद्य-यंत्रों के साथ रामचरितमानस और संत वाणी का सस्वर-पाठ मेरी रुचि का केंद्र था। आज मैं उसका मर्म कुछ- कुछ समझ पाया हूँ , क्यों उन्होंने एक बेसिर -पैर वाले अदने से बालक को सत्संग का प्रोग्राम बेझिझक दिए थे। शायद मुझे वे एक नव अंकुर के रूप में देखे होंगे जिनकी सिंचाई करना उन्हें ईश्वर की सेवा जैसी लगी होगी। उनकी दृष्टि में तो व्यक्ति-निर्माण का कार्य नारायण सेवा के तुल्य है ।
अपने पैतृक गाँव दरला के संतमत सत्संग मंदिर में प्रत्येक वीकेंड को वे सत्संग करते थे। गांव के श्रद्धालु इसमें शामिल होते थे। हरचंदपुर के दो बाल-सखा दिनेश प्रसाद और मक्केश्वर बाबू इसमें शामिल होते थे। इन्हीं दोनों ने हरचंदपुर में सत्संग की नींव डाली थी। इन दोनों के साथ मैं भी वहाँ जाने लगा था। हीरा गुरुजी के आसन में विराजते ही सभी सत्संग प्रेमी मौन हो जाते । उनके मुख से कुछ सुनने के लिए आतुर रहते। अनावश्यक बातें न कर समयानुसार सामूहिक स्तुति-विनती आरंभ करते थे ,गुरूजी। उनकी सुरीली आवाज में कण्ठ मिलाना आसान नहीं था। वेद-उपनिषद का पाठ अक्सर खुद करते। रामचरितमानस के पाठ का अवसर मुझे देने की अहैतुकी कृपा करते। कभी-कभी भजन भी गवाते। आरती के बाद सभी सत्संगी अपने से बड़ों का चरण स्पर्श करते। हीरा गुरु जी से बड़े सिर्फ उनके माता-पिता हुआ करते थे। श्रद्धा पूर्वक वे माता-पिता के चरण स्पर्श करते। हल्के-फुल्के प्रसाद भी बांटे जाते। यही थी मेरी आध्यात्मिक पाठशाला जो मुझे सदा के लिए आध्यात्म के रंग में रंगते जा रही थी। यह सिलसिला मैट्रिक की पढ़ाई तक चलता रहा जो भावी जीवन की बुनियाद बनी।
मेरे गांव के पीपल गाछ के नीचे अक्सर सत्संग का कार्यक्रम हुआ करता है । इसमें मैं अवश्य पहुँचता था। रात्रिकालीन सत्संग हो रहा था। श्रोताओं में युवक, वृद्ध से लेकर तरुण भी अच्छी संख्या में उपस्थित थे। दरला की सत्संग मंडली अपने वाद्य यंत्रों के साथ मंच में सजे थे। स्तुति विनती हो चुकी थी। मैं दर्शकों के पीछे बैठा ही था कि पूज्य हीरा गुरु जी की दृष्टि मेरे ऊपर पड़ गई। फिर क्या था उन्होंने आगे बैठे श्री दिनेश को इशारा किया कि सकलदेव को बुलाओ। मैं आदेशानुसार मंच के सामने उनके सन्मुख गया। उन्होंने मुझे अपने बगल में बैठने का आदेश मिला। बैठा तो रामचरितमानस मेरे हाथ में देते हुए पाठ करने का आदेश दिया थे। वाद्य यंत्रों के साथ मैंने सस्वर पाठ किया था। पाठ कैसा हुआ यह तो मैं नहीं कह सकता , लेकिन उनके द्वारा मुझे जो सम्मान प्राप्त हुआ, वह मेरे लिए कृपा-प्रसाद बन गया और सान्निध्य उत्तरोत्तर गहराता गया। उस समय मैं दशमी जमात का छात्र था। अब सत्संग में जब मैं उपस्थित रहता हूँ तो रामचरितमानस का पाठ करने का आदेश मुझे प्रदान कर उत्साह बढ़ाते रहते हैं । इसके लिए मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ।
उनके आचरण में मैंने कठोर तत्त्व-निष्ठा का दर्शन किया है। व्यक्ति निष्ठा भी देखा हूँ परंतु इसके पिछे व्यक्ति-विशेष को प्रेरित करने का उद्देश्य छिपा पाया हूँ । अपनी शादी में पूज्य गुरु जी को बारात-गमन एवं अपने यहाँ आने का आग्रह किया था। अल्प समय लेकर मेरे घर आए थे और कहने की कृपा की थी ‘ बाबू, सकलदेव एक तरफ ध्यानाभ्यास का कार्यक्रम चल रहा है दूसरी ओर तुम्हारा आग्रह, ऐसी स्थिति में तो ध्यानाभ्यास को ही प्राथमिक देनी होगी न, बोलो प्यारे क्या सही कह रहा हूँ न।’ मैं निरूत्तर हो गया था, पर, उनके ध्येय- निष्ठा अनुभव कर, मैं काफी प्रभावित हुआ हुआ। दृढ़ इच्छा- शक्ति से ओत- प्रोत मित्र ही अपने सानिध्य में आने वाले को प्रेरित कर सकते हैं, ऐसा मैने उसी समय अनुभव किया था और उन्हें अपने हृदय में स्थान देने के लिए सतत प्रयत्नशील रहा। ठोस आचार-विचार रहित व्यक्ति से श्रेष्ठ कार्य की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। उनके मुंडली आवास पर साप्ताहिक ध्यानाभ्यास कार्यक्रम चल रहा था इसमें 30 साधक भाग लिए थे। मैंने एक दिन का जलपान देने का वचन दिया था , परंतु नए ससुराल से निर्धारित तिथि को नहीं पहुँच पाया था। मेरे पहुँचते ही 5-6 साधक मुझे घेर कर कहने लगे, आपके कल नहीं आने पर गुरु जी गुस्सा रहे थे । कह रहे थे सकलदेव नहीं आया, कोई जवाबदेही है? ऐसे ढुलमुल लोगों से क्या कुछ अपेक्षा की जा सकती है ? _ _ _। मेरे प्रणामादि के तुरंत बाद सोत्साह कुशल-क्षेम पूछने वाले गुरू जी के भाव आज मौन रहे। जलपान का प्रस्ताव रखा तो पूर्ववत मौन बने रहे। मैंने समझा यही है ‘सात्विक क्रोध’ जिसने मेरी आत्मा की सुसुप्त शक्ति झंकृत कर दी और दृढ़-संकल्पवान बनने की सत्प्रेरणा दी। मैंने समझा यदि मैं इंद्रधनुष चाहता हूँ तो मुझे बरसा सहन करनी ही पड़ेगी।
विगत 1988 से प्रति-वर्ष दिसम्बर माह के अंतिम सप्ताह में गुरू जी अपने आवास में साप्ताह-ध्यानाभ्यास-शिविर आयोजित करते आ रहे हैं और अपनी कठोर तपस्या से इसे आज तक अक्षुण्ण बनाये रखें है। अगल-बगल के इलाके से अक्सर 30-40 ध्यानाभ्यासी शामिल हो ही जाते हैं । सातों दिनों के अलग अलग विषय होते हैं- नरतन की उपादेयता, सत्संग की महत्ता, गुरु की अनिवार्यता, गुरू-नाम की महिमा, जाप की महिमा, बिन्दू- ध्यान , दृष्टि- योग, नादानुसंधान आदि। इन विषयों पर विशद चर्चा होती है। इसमें आर्ष वाणी, संत वाणी, गुरूवाणी , रामचरितमानस आदि सद् ग्रंथों के आधार पर विषय को प्रकाशित किया जाता है। इसमें पूज्य हीरा गुरुजी बड़ी शिद्दत के साथ साधकों का मार्गदर्शन किया करते हैं। अंतिम दो-तीन दिन गुरुधाम कुप्पाघाट भागलपुर से किसी न किसी संतों का आगमन होता है। इन दिनों अगल-बगल के गाँवों एवं शहरों से श्रद्धालुगण आते हैं और सत्संग से लाभ उठाते हैं। इन दिनों गुरू जी का आवास वाकई तीर्थ-स्थल हो जाता है, जहाँ आकर वे अपने को धन्य मानते हैं। करीब सौ-डेढ़ सौ श्रद्धालुओं को जलपान, भोजन से लेकर संपूर्ण अभ्यागत-सत्कार में गुरु जी का पूरा परिवार एक आदर्श परिवार का नमूना प्रस्तुत करता है। मैं अक्सर इस में भाग लिया करता हूँ । साधना शिविर के दरमयान गुरूजी के निवास में उत्सव सदृश माहौल रहता है। साधक-सत्संगियों के आने जाने का तांता लगा रहता है। सभी गुरु जी से मिले बगैर नहीं रहते। वे गुरू के चरण स्पर्श करते हैं तो इनके सारे पुत्रपुत्रियां , नाती-नत्नियां आगन्तुकों का। उस समय ऐसा भाव-विचार बन जाता है मानो स्वर्ग यहीं उतर आया हो। साधकों के सेवा-सत्कार, जलपान-भोजन में कभी-भी कोई नौकर-चाकर नहीं रखे जाते हैं। गुरु जी के पुत्र- पुत्रियाँ, नाती-नत्नियां ,दामाद सभी गुरु जी के इस महा-मिलनोत्सव की धुरी हुआ करते हैं। बड़ी बेटी भक्ति सबका नेतृत्व करती है। गुरु जी के आध्यात्मिक-संस्कार की प्रतिमूर्ति भक्ति में ही परिलक्षित होती है और वह अपने नाम को चरितार्थ करती है। संझली पुत्री का नाम है साधना। ऐसा लगता है मानो गुरू जी संपूर्ण साधना का प्रतिफल संझली पुत्री में ही है। छोटी पुत्री शांति अपनी उभय बड़ी बहनों के आदेश का अनुपालन इशारा मिलते ही पूरा करती है। गुरु जी की चेतन-शक्ति का प्रकाश दामाद चेतन बाबू के दोनों पुत्रों प्रकाश कुमार और प्रवीण कुमार में स्पष्ट दिखता है। प्रकाश पत्तल-पानी वितरण का दायित्व मौन साधु की तरह निभाता है तो प्रवीण किसी की फरमाइश पूरा करते नहीं थकता।। भक्ति चावल परोसती है तो साधना दाल। भक्ति की सुपुत्रियां माँ की ही भांति भक्ति-भाव से साधकों की सेवा में तत्पर रहती हैं। माँ सबकी मोनिटरिंग करते रहती है। शिविर का समय ठंड से भरा होता है । बालकों में कोई गर्म जल से स्नान करना चाहते हैं तो कोई गर्म जल पीना चाहते हैं। सबको इच्छानुसार मिल जाता है। भोजन के समय तो बिन-मांगे सबको गुनगुना जल मिलता ही है। आनंद और योगेश दोनों सुपुत्र हनुमान की भांति दौड़-दौड़ कर शिविर की व्यवस्था संभालते हैं। झूठे पत्थल तक किसी भी आगन्तुक को उठाने नहीं देते। कहीं कोई डांट-फटकार नहीं सबके सब सदाचार की मूरत बने अपने-अपने दायित्व के निर्वाह में लीन रहते हैं। गुरू जी सबकी ओर मौन-मुखर दृष्टि से मार्ग-दर्शन करते रहते हैं। आवश्यकतानुसार सामूहिक-सत्संग के समय शिविर की मान-मर्यादा की सत्प्रेरणा साधकों को दिया करते हैं । आगन्तुकों के मुंह से अनायास ही ये बातें सदैव सुनी जाती है कि ध्यानाभ्यास-शिविर मे इन सारे बच्चे बच्चियों का अपूर्व योगदान है। यहाँ सत युगीन संस्कार का चमत्कार देखने को मिलता है। ऐसा परिवार आज के भौतिक-वादी युग में दुर्लभ है। मैं तो ऐसा कहीं नहीं देखता हूँ । मैं तो इस परिवार के इन संस्कारों को बाल्यकाल से देखता आ रहा हूँ । मेरी आत्मा यही कहती है कि गुरु जी का परिवार सभी परिवारों के लिए ऐसा पथ-प्रदर्शक हैं , जो एक अनुकरनीय आदर्श-संस्कार-केंद्र के रूप में सदैव याद किए जाएंगे। काश ! यदि परमात्मा ऐसे संस्कारों से भारत माता के हर ऑगन को सुसज्जित कर देते !
एक बार मैं वेतन लेने हेतु स्टेट बैंक तीनपहाड़ जा रहा था। मेरा मन हुआ, हीरा गुरु जी का दर्शन करता जाऊं। रास्ते में ही उनका आवास है । चला गया । कुशल-क्षेम हुई ,तब तक 10:00 बज चुके थे। मैंने इजाजत ली कि मुझे तीन पहाड़ बैंक जाना है, वेतन लेने के लिए। चिलचिलाती धूप को देखकर गुरुजी ने कहा ‘प्यारे, बैंक से लौटते समय मुझसे अवश्य मिलते जाना, भोजन-विश्राम करके ही जाओगे। भोजन एक साथ ही करेंगे। जब तक तुम नहीं आओगे, मैं भोजन नहीं करूंगा।’ फिर क्या था, बैंक में मेरा इतना समय लगा कि डेढ़ बज गया था। जब मैं गुरु जी का घर पहुंचा, उस समय दो बज चुके थे। गुरूजी मेरे इंतजार में भोजन नहीं किए थे। एक साथ भोजन करने लगे, उस समय मुझे ऐसा लग रहा था, मानो मैं अलौकिक-प्रेम का पान कर रहा हूँ । कभी-कभी सोचता हूँ कि ऐसे स्नेह-संबंध के पिछे जन्म-जन्मांतर का संबंध अवश्य रहा है, जिसने सद्गुरु की उंगली तक पकड़ा दी। गुरूजी के साथ दीक्षा लेने हेतु गुरुधाम, कुप्पाघाट भागलपुर जा रहा था। ट्रेन में उन्होंने कहने की कृपा की ‘यह बताओ माई डियर , जब तक खेत की जुताई ठीक से न हो जाए, बीज बोना क्या फलदायी हो सकता है?’ मैं निरुत्तर था। उनके कहने का आशय मैं समझ रहा था। मैंने सिर्फ इतना ही कहा ‘सर , मेरी इच्छा हो रही है कि दीक्षा ले लूँ।’ तब उन्होंने तुरंत कहा ‘ठीक है इच्छा है तब अवश्य ले लो।’ और मैंने दीक्षा ले ली। दरअसल, गुरु जी मुझे भावुकता से बचने का संकेत दे रहे थे। देखा देखी दीक्षा लेने की प्रवृति से आगाह कर रहे थे।
उम्र के 50वें पायदान को पार कर चुका हूँ । स्नेही, सहयोगी बहुत मिले, कुछ हैं, कुछ बिछड़ गए, परंतु इहलोक और परलोक को संवारने वाले सिर्फ एक ही मिले, सिर्फ एक और वह हीरा गुरुजी के रुप में मिले। उनके स्नेह संबंध की अविरल धारा आज भी बह रही है और गति से बढ़ रही है, जिसे मैंने बाल्यकाल में पहली बार उनके दर्शन में पाया था। कहीं सत्संग का कार्यक्रम होता है तो फोन से कहते हैं –‘समय निकाल कर आना प्यारे’, भोर को 3 बजे फोन से जगाते हैं- ‘उठो,प्यारे ध्यान करो’, सप्ताह-ध्यानाभ्यास शिविर में 10 दिन पूर्व से सूचना देते हैं ‘आ रहे हो न बाबू?’ मैं तो यही समझता हूँ कि ऐसी संगति बड़े सौभाग्य से ही मिलती है। मित्र बनना-बनाना तो आसान है, परंतु मित्र को सन्मार्ग पर बनाए रखने का भागीरथ-प्रयास बहुत कठिन है, पूज्य हीरा गुरु जी को इस संदर्भ में खरा पाया हूँ । मैं विद्यार्थी जीवन से आज तक उनके साथ जिन सज्जनों को साधक के रूप में मिलते हुए देखा हूँ, आज भी यथावत हैं।
इतने दिनों से उनके सान्निध्य और अपनी साधना व स्वाध्याय के आधार पर तो मैं हीरा गुरुजी को एक सच्चा साधु ही मानता हूँ ,फलतः उनके प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ती जा रही है और औरों की भी श्रद्धा इसी प्रकार देखता हूँ । 'बाल गोबिन भगत' में रामवृक्ष बेनीपुरी ने और 'ठकुरी बाबा' में महादेवी वर्मा ने जिस चरित्र का दर्शन किया था, मैं भी वैसे ही चरित्र का दर्शन हीरा गुरुजी के अंतःकरण से लेकर जागतिक व्यवहार तक में पाता हूँ। मैं अपने जीवन में यत्किंचित सुख-शांति का अनुभव कर रहा हूँ, इन सबका श्रेय श्री हीरा गुरु जी को ही जाता है। तब मुझे रामचरितमानस की यह चौपाई ‘जेहि मारग श्रुति साधु दिखावे, तेही मग चलत सबहीं सुख पावै’ चरितार्थ होती नजर आती है। यही कारण है कि मैं उन्हें अपना पथद्रष्टा मानता हूँ।
***