प्रस्तुत है स्थिरात्मन् आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण भाव विचार और क्रिया का सामंजस्य संसार में सफलतापूर्वक सहजतापूर्वक और सरलतापूर्वक कार्य व्यवहार करने के लिए सहायता करता है l आचार्य जी का प्रयास रहता है कि यह सदाचार संप्रेषण उपादेय बने l तैत्तरीय उपनिषद् में शिक्षावल्ली का तीसरा अनुवाक है | सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्। अथातः संहिताया उपनिषदं व्याख्यास्यामः पञ्चस्वधिकरणेषु धिलोकमधिज्यौतिषमधिविद्यमधिप्रजमध्यात्मम्। ता महासंहिता इत्याचक्षते। अथाधिलोकम्। पृथिवी पूर्वरूपम्। द्यौरुत्तररूपम्। आकाशः सन्धिः। वायुः सन्धानम्। इत्यधिलोकम्। इसका अर्थ इस प्रकार है हम आचार्य एवं शिष्य एक साथ यश प्राप्त करें, एक साथ ब्रह्मवर्चस पाएं । हम इसके बाद संहिता के गहन अर्थ की व्याख्या करेंगे जिसके पाँच प्रमुख अधिकरणअर्थात् विषय हैं 'लोकों' से सम्बन्धित (अधिलोकम्) 'ज्योतिर्मय अग्नियों' से सम्बन्धित (अधिज्यौतिषम्) 'विद्या' से सम्बन्धित (अधिविद्यम्) 'सन्तति' (प्रजा) से सम्बन्धित (अधिप्रज्ञम्) 'आत्मा' से सम्बन्धित (अध्यात्मम्)। ये 'महासंहिता' कहलाती हैं । प्रथम लोक-विषयक। पृथ्वी प्रथम रूप है; द्युलोक द्वितीय रूप हैं; आकाश सन्धि है; वायु संयोजक (सन्धान) है। इतना ही है अधिलोकम्। शिक्षा के छह अङ्गों वर्ण स्वर बल मात्रा साम और संतान के आधार पर हम शिक्षित होते आएं हैं आचार्य जी ने कुछ सामाजिक झंझावातों की चर्चा की शान्त हों एकान्त हो तो लेखन महत्त्वपूर्ण है हम श्रम सेवा के आधार पर या स्वाध्याय के आधार पर करते हैं और संयम सेवा और स्वाध्याय की शर्त है संयम का मूल आधार धैर्य है आचार्य जी ने अपनी एक कविता सुनाई इसकी व्याख्या भी की भावों का ज्वालामुखी मचलता जब उर में हर शब्द दहकता अंगारा बन जाता है |