प्रस्तुत है यायजूक आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण जिसमें आचार्य जी ने हविष्यान्न, स्वाहा, स्वधा की परिभाषा बताते हुए यज्ञीय पद्धति की जानकारी दी l यदि यही यज्ञ के विधि विधान शिक्षा में सम्मिलित हो जाएं अर्थात् संस्कारित होकर हम ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे तो हमें ज्ञान मिलेगा l गीता का 18 वां अध्याय राम चरित मानस के उत्तर कांड की तरह जीवन को दिशा निर्देश देने वाला अंश है l 18 वें अध्याय से ही --
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।18.1।।
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।18.2।।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।18.3।।
की व्याख्या करते हुए आचार्य जी ने बताया जो कार्य कर रहे हैं उसमें बहुत अधिक लिप्त और प्रलुब्ध न होएं l भारतवर्ष का व्यक्ति बहुत अधिक चिन्तन करता है l कुछ भी करें अपने स्व को न खोयें l शिक्षकत्व व्यास का अंश है l दम्भ आने पर हम भटक जाते हैं l त्याग का बहुत महत्त्व है l काम करते हुए त्याग का आनन्द लेना कठिन है l परमात्माश्रित भाव आवश्यक है ll ऐसे लोग जिनमें भौतिक स्पृहा अब नहीं रह गई है वो संगठित होकर एक साथ रहने लगें चर्चा करें हवन करें यज्ञ करें तो एक नई ज्योति प्रकाशित हो सकती है | इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने नीरज भैया का नाम क्यों लिया क्या साहित्यकार दिशा निर्देशक हैं आदि जानने के लिए सुनें |