प्रस्तुत है ब्रह्मिष्ठ आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण मनुष्य ही एक ऐसा विशिष्ट प्राणी है जिसमें अनेक कल्पनाएं आती हैं और उन कल्पनाओं को फलीभूत करने के लिए उसके प्रयत्न चलते हैं और उन प्रयत्नों के स्वरूप अत्यधिक अद्भुत होते हैं जैसे विशाल अट्टालिकाओं का निर्माण, सुरंगों का निर्माण,कृषिकर्म में अनेक प्रयोग, औषधियों का निर्माण आदि | आचार्य जी ने अपनी रची एक कविता सुनाई शिल्पी उदास क्यों हो...... गीता द्वारा जीवन जीने की शैली बताई गई है संसार में संघर्ष है युद्ध हैं समस्याएं हैं अपना पराया है अतः संसार में किस प्रकार जीना यह हमें गीता से पता चलता है आचार्य जी ने परामर्श दिया कि गीता के 18 वें अध्याय में 18 वें से 26 वें छन्द का अध्ययन करें |
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मप्रेरणा । करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।18.18।।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः। प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।18.19।।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।18.20।।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्। वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।18.21।।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्। अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।18.22।।
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्। अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।18.23।।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः। क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।18.24।।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।18.25।।
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।18.26।।
26 वें छन्द का अर्थ इस प्रकार है :-- जो कर्ता मुक्तसङ्ग अर्थात् जिसने आसक्ति का त्याग कर दिया है जो अनहंवादी अर्थात् मैं कर्ता हूँ ऐसा बोलने का जिसका स्वभाव नहीं रह गया है जो धृति (धारणाशक्ति) व उत्साह से संयुत है तथा जो किये गये कर्म के फल की सिद्धि होने या न होने में निर्विकार है। वह सात्त्विक कहा जाता है। परमात्मा जीवात्मा की प्रेरणा है हम परमात्मा के प्रतिनिधि हैं, सेवा भाव से किया गया प्रत्येक कार्य परमात्मा को समर्पित होता है|