मनुष्य जीवों में सर्वोपरि है। मनुष्य में निज कर्म से भाग्य बदलने की सामर्थ्य है। मनुष्य चाहे तो पशु बनकर जी ले या भगवान् बनकर भी जी सकता है। वह ज्ञानी बन सकता है, धनी बन सकता है, महात्मा बन सकता है या जो चाहे वो बन सकता है। इनमें भगवान् ही सर्वोत्तम है क्योंकि उनके पास सबकुछ हाता है।
जिसके पास विद्या, ज्ञान, यश, श्री, वैराग्य, ऐश्वर्य आदि होता है उसे ही 'भग' की संज्ञा से नामित किया जा सकता है। हमारे धर्म दशावतारों की चर्चा आती है, वे सभी विष्णु के अवतार हैं, इसीलिए भगवान् के समकक्ष हैं। कृष्ण को पूर्णावतार कहा गया है क्योंकि उनके साथ उपर्युक्त संज्ञाएं जीवनपर्यन्त साथ रहीं। जबकि अन्य अवतारों में कोई न कोई संज्ञा की अल्पता रही।
गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम और मुझ में एक ही ईश्वर है, किन्तु मैं भूत, वर्तमान और भविष्य को जानता हूं, तुम नहीं जानते। भगवान् को सर्वज्ञ इसलिए कहा जाता है कि उनको त्रिकाल का ज्ञान होता है।
जैनियों के अनुसार जिसका चौंसठ कलाओं पर पूर्ण अधिकार होता है वह भगवान् कहलाएगा। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि भगवान् ईश्वर का मनुष्य रूप है। भगवान् में सामान्य मनुष्य की अपेक्षा अद्भुत रस की प्रधानता होती है। अवतार कोटि के पुरुष में ही ये सब होता है।
अवतार सदैव सृष्टि के सन्तुलन बिगड़ने के समय उत्पन्न होते हैं। जब आसुरी शक्तियां बढ़कर सृष्टि को आघात पहुंचाने लगें तब पुन सन्तुलन करने के लिए और धर्म के प्रति आस्था पुनर्स्थापित करने के लिए ईश्वर अवतार के रूप में भगवान बनकर आते हैं। ईश्वर का प्रमुख कार्य प्रजा एवं धर्म की रक्षा करना है।
भगवान् के साथ अष्ट सिद्धियां(अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य,महिमा, ईशित्वऔर वशित्व) सदैव रहती हैं, इसीलिए कृष्ण जी को अच्युत भी कहते हैं। जो इन सिद्धियों से च्युत न हो उसे अच्युत कहते हैं।
भग का अर्थ योनि है, भगवान् उसको कहते हैं जिसने योनि मार्ग(पुनर्जन्म) को जीत लिया है। जो जन्म से मुक्त हो चुका हो उसे ही भगवान् कह सकते हैं। जिसको विद्या(धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य) और अविद्या(अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनीश्वर्य्) का पूर्ण ज्ञान हो। यहां अ प्रत्यय से तात्पर्य अल्पता से है।
आप सूक्ष्मता से देखें तो आपको ज्ञात होगा कि हम सबमें ईश्वर का कोई न कोई अंश विद्यमान है। जिसके पास जो अंश जितना है वह उसी अनुपात में अपना स्थान बना पाता है। जिनमें जितना अधिक भगवान् का अंश होता है वे चाहे अवतार न बन पड़ें पर महापुरुष बन जाते हैं। महापुरुषों में भगवान् का अंश अधिक होता है।
योनि सृष्टि का पर्याय है। सन्तान ही यश है, सुसन्तान ही कुल दीपक होती है। सन्तान ही व्यक्ति व सृष्टि का विस्तार है। गृहस्थ में भोग्य संलग्न रहता है। अतिभोग से श्री का क्षय होता है, लेकिन यह भी सत्य है कि अतिभोग वैराग्य का कारण भी बन जाता है।
मनुष्य भय के वातावरण में जीता है जबकि भगवान् का आश्रय उसको आत्मबल देता है, अभय बनाता है। अवतार रूप भगवान् में यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य को अपने जैसा बना सके।
कुछ बनना है तो आत्म-साक्षात्कार करें। आत्म-साक्षात्कार से सुपथ का भान होता है जिस पर चलकर व्यक्ति कई ऐसे कार्य करता है जो उसे भगवान् या महापुरुष बना सकें। आत्म-साक्षात्कार से आत्म-ज्योति में वृद्धि होती है और सदैव प्रकाश ही रहता है। इसी ज्योति को भगवान् कहा जाता है। आत्म-साक्षात्कार को परमात्मा का साक्षात्कार कहा जाता है, तभी तो कहा गया है कि आत्मा ही परमात्मा है। आपमें भगवान् का जितना अंश होगा उतने आप महान या महापुरुष हो सकेंगे।