कार्य करने से पूर्व ही एक द्वंद का सामना करना पड़ता है, इस द्वन्द में अच्छा-बुरा, सही-गलत, करें या न करें आदि से दो चार होना पड़ता है।
जीवन में नित नए अनुभव होते हैं, ये अनुभव ही हमें नए-नए विचार देते हैं। ये विचार ही स़जनात्मक भूमिका बनाते हैं। विचार आते ही रहते हैं, किन्तु उनकी सार्थकता समझना अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए आपको अपने मन की भूमिका पर ध्यान देना पड़ेगा। विचार के उपयोग से जो परिणाम निकलते हैं उसका सीधा प्रभाव मन पर ही पड़ता है, क्योंकि मन हर कार्य का दृष्टा होता है। जब मन दृष्टा न होकर उसमें लिप्त हो जाता है तो कष्ट या दु:ख का भोगता है।
हमारा दायित्व यह है कि हम प्रत्येक विचार को मन के तराजू पर तोलें फिर मन का निर्णय सुनें। अनेक बार हम मन का निर्णय सुनते ही नहीं हैं और यदि सुनते हैं तो उसके कहे को नकार को अपनी करते हैं और हानि उठाते हैं तो फिर पछताते हैं। ऐसा बात करते समय भी होता है, बोलते समय हमारी बात सब सुनते हैं पर हम दूसरे की नहीं सुनते हैं। मन का निर्णय गलत नहीं होता है, इसलिए उससे मित्रता बढ़ानी चाहिए, उसे समझेंगे तो हमारे विचार सही निकलेंगे और उन्नत पथ प्रशस्त करेंगे।
स्वाध्याय से विचार पुष्ट होते हैं। शान्त बैठकर किए गए स्वाध्याय से ज्ञान बढ़ता है और चिन्तन में सहायक होता है। विचारवान् बनकर जीवन का मार्ग यानि लक्ष्य तय करना, उसके लिए साधन जुटाना और जीवन की सार्थकता सिद्ध करने के लिए उसकी उपयोगिता को समझना, सकारात्मकता को निरन्तर बनाए रखना अत्यन्त आवश्यक हैद्य इस प्रयास से जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलेगा और लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग निष्कंटक होगा। द्वंद घटेंगे और जीवन में सरलता आएगी।
विचारवान् बनने से मन को तोलना आ जाता है, सही व गलत का अन्तर करना आ जाता है, अच्छ़े-बुरे की पहचान करनी आ जाती है। मन को समझें और अन्त: को सजग रहकर उसकी सुनेंगे तो निश्चय ही आपके विचार आपको उन्नति शिखर पर ले जाएंगे।