यह वेद वाक्य है-उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत्।
जीवन की कर्मभूमि पर कर्म की निरन्तरता ही हमें लक्ष्य की ओर ले जाती है। पहली आवश्यकता लक्ष्य सदैव मन व नेत्रों के समक्ष रहना चाहिए अर्थात् उसके प्रति सदैव जागरूक रहें। जब तक आप स्वयं के प्रति जागरूक नहीं हैं तब तक आप लक्ष्य के प्रति जागरूक नहीं होंगे। हमारा स्वभाव, हमारे विचार, विकृतियां, व्यसन, वासनाएं तथा हमारे चहुं ओर का वातावरण ही लक्ष्य के प्रति जागरूक होने से रोकते हैं। इन सबके प्रति सजग होते ही हम लक्ष्य के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इनसे एक-एक करके परिष्कृत होने के लिए अनुभवी लोगों का भी सहारा लेना चाहिए। वरना भटकाव की स्थिति बन जाती है। स्वयं ही चिन्तन के बाद अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। धैर्य और दृढ़ता से ही यह सब होता है। संकल्प लें कि गलतियों का दुबारा नहीं दोहराएंगे। दिनचर्या में कुछ समय इस ओर ध्यान दें। धीरे-धीरे आप में परिवर्तन आने लगेगा जोकि एक मात्र जागरूक रहकर एक पथ पर चलने का अनुसरण मात्रा है। मन को संयमित करें और एकाग्रता बढ़ाएं। एकाग्रता से ही किसी भी चिन्तन में गहराई आती है और मन्तव्य स्पष्ट होता है। जागरूकता मात्रा के संकल्प एवं लक्ष्य प्राप्ति के लिए कर्मरत् होना। संकल्प को नित्य दोहराना एवं लक्ष्य के लिए समर्पण भाव से सक्रिय रहने मात्रा से वांछित परिवर्तन के साथ-साथ मंजिल पाने की राह सरल होगी। अतः जागते रहो।