दो, निरन्तर टीस दो, छोड़ो न मुझको,
मांस में यों ही शलाकाएँ चुभाओ,
देह को यों ही रहो धुनती, तपाती, ऐंठती
मेरी मनोरम वेदने!
हर टीस, हर ऐंठन नया कुछ स्वाद लाती है;
तोड़ कर पपड़ी हदय में ताजगी भरती,
और आत्मा को चुभन देकर जगाती है ।
तुम्हारे श्माम पंखों की कड़क-सी फड़फड़ाहट पर
उमंगों की उड़ानें और भी ऊपर पहुंचती हैं;
व्यथा से चीखता तन, किन्तु, आत्मा गीत है गाती,
जलाती आग जो तुम वह
किसी खरतर अनल का ताप पीकर शान्त हो जाती।
दिवस निस्तेज थे जो
अब नई कुछ रौशनी उनमें दमकती है,
भुवन जो शुष्क था उसमें, न जाने,
विभा यह किस अलभ सौन्दर्य की क्षण-क्षण चमकती है ।
सभी कुछ दिव्य है, नूतन प्रखर है,
चतुर्दिक् प्रेरणा निर्माण की लहरा रही है;
चुभन है, टीस है, अथवा मुझे तंत्री बना कर
रगों की ताँत पर कोई परी कुछ गा रही है ।
अभी तो वेदना के इस परम उन्नत शिखर से
भुवन यह तुच्छ, अतिशय तुच्छ लगता है,
जहाँ चिकने, मृदुल तनु इसलिए चिकने, मृदुल होते
कि पीड़ा की कसौटी पर न वे अब तक चढ़े हैं;
जहाँ नीरोग तन केवल पड़े विश्राम करते हैं,
जहाँ पर देह रोगों से अनुदूभासित जिया करती
अपरिचित सत्य से,
जाने बिना आलोक की उस छटपटाहट को
जिसे संसार में सब व्याधि, रुज, उपताप कहते हैं ।
नहीं, इस दिव्य सुख का भेद
मैं बतला नहीं सकता
कभी भी चींटियों के झुंड को ।
भला इस झुंड में है कौन जो इसको समझ सकता
कि कितनी दर्द की खा चोट यह आनन्द जन्मा है?
मगर, मैं जानता हूँ
घूँट जो जीवित मुझें रखता
बना है अस्थियों को चीरनेवाली भयानक ऐंठनों से
और मेरे मांस के उत्ताप से;
अस्थियां जिनको नरक की वेदनाएं तोड़ती थीं,
मांस जो नरकाग्नि में प्रत्येक पल था भुन रहा।
सबल हो काय, लेकिन, प्राण पीड़ा से विकल हों,
अधम उस आयु की इच्छा नहीं मुझको ।
न तो मैं चाहता वह देह जो दुर्बल नहीं होती,
मगर, जिसके तिमिर में बद्ध आत्मा हारती है;
मुझे तो काम्य केवल प्राण की वह रश्मि जो दुर्जय
न थकती वेदनाओं से,
न बुझती ऐंठनों से, टीस से, पीड़ा, चुभन से;
कलेवर-कोट पर चढ़ कर प्रलय जब नृत्य करता है:
अकेली यह किरण तब मृत्यु को ललकारती है ।
करें वे सृष्टि की निन्दा, चले थे फूल पर जो,
अचानक शूल कोई, किन्तु जिनको चुभ गया हे।
मगर, मैं शूल-शय्या के सिवा क्या जानता हूँ?
मनाता हूँ कि ये काँटे चुभन देते रहे मुझको;
रहे जीवित व्यथा वह जो कभी सोने नहीं देती,
रहे आबाद वह पीड़ा कि जिसकी प्रेरणा पाकर
उमंगें प्राण में उन्माद भरती हैं ।
किसी अज्ञात सुख में मग्न मैं इस शूल-शय्या पर
कभी दायीं, कभी बायीं तरफ करवट बदलता हूँ।
मुझे जो खा रहा वह दीप्त मेरा ही अनल है ।
मगर, मैं मर नहीं सकता कि मैं निद्रा-जयी हूँ
मगर, मैं मर नहीं सकता कि मैं दिन-रात जलता हूँ।