मुनीश चौधरी आज बहुत बेचैन थे. दिन के आठ बजे थे; फिर भी बिस्तर से उठने को, उनका जी नहीं मान रहा था. रोज तो साढ़े छः बजे ही उठकर, सैर पर चले जाते थे; किन्तु...! आज ११ दिसम्बर था. सुहासी का जन्मदिन. सुहासी यानी उनकी दिवंगत पत्नी, सुहासिनी चौधरी. मृत्योपरांत, सुहासी के पहले जन्मदिन पर, एक अजानी सी विरक्ति ने, उन्हें घेर लिया. किसी तरह, खुद को, ठेल- ठालकर उठे थे. स्नानादि के बाद, जॉगिंग- सूट, निकाला; फिर न जाने क्या सोचकर, कुरता- पायजामा पहन लिया.
हर दिन की तरह, आज उनके कदम, पार्क की तरफ नहीं बढ़े. वहाँ जाकर, वर्जिश करने के बजाय, वे मन्दिर आ गये. कोहरा छंट गया था. गुनगुनी धूप, हर तरफ पसरी थी. सडक किनारे, कतार में खड़े, बोगेनबिलिया के झाड़; फूलों की छटा, बिखेर रहे थे. मौसम में कुछ ऐसा जादू था, जो सुहासी के न रहने पर भी, उसकी अदृश्य छाया को, संजोये था. उन्होंने गहरी सांस ली. हवाएँ, कुछ बोझिल सी लगीं. सुहासी को खो देने की पीड़ा, दंश दे रही थी. उनकी प्यारी नवासियाँ, मैना और मेघना; सप्ताहांत में, उन्नाव गयी थीं; अपनी माँ के साथ. वे होतीं तो अकेलापन, इतना न कचोटता!
मैना, मेघना, यहाँ रहतीं तो अवश्य पूछतीं, ‘नानू...नानी की याद आ रही है?’ पाँच साल की ये चपल बच्चियाँ- उनकी दुलारी बेटी, कुमुद की, जुडवाँ संतानें हैं. सुहासिनी की छवि, इनके भोले चेहरों में, झलकती है...वही आँखें...वही मुस्कान! सुहासिनी आज होतीं तो ६५ की हो गई होतीं. वे मुनीश जी से, मात्र दो बरस छोटी थीं. चार- पाँच महीने पहले ही, उनका साथ छूट गया. सुहासी के संग, मुनीश ने, कितने ही सपने, जिए और साकार किये. चंद आख़िरी सपने रह गये थे, सुहासी के... मृत्युपूर्व, वे बेटे विजय को, बाप बनते हुए... और बिटिया कुमुद को, सफल महिला उद्यमी के रूप में, देखना चाहती थीं.
मोबाइल की रिंगटोन से, मुनीश चौधरी का, ध्यान भंग हुआ. सेल- फ़ोन की स्क्रीन पर, विजय का नाम, फ़्लैश हो रहा था. रविवार की सुबह नौ बजे के आसपास, उसका फ़ोन आता था. यह एक आम बात थी, उनके लिए; किन्तु आज वह, बेटे की फ़ोन कॉल को, सहजता से, ग्रहण नहीं कर पा रहे थे. बेटे ने अस्फुट स्वर में, माँ का नाम अवश्य लिया; किन्तु चर्चा को आगे नहीं बढ़ाया. उन्हें आहत नहीं करना चाहता होगा- कदाचित इसीलिये...! दिल्लीवासी विजय ने, वहाँ धुंध की परतों में, रचे- बसे प्रदूषण का, जिक्र अवश्य किया. इधर- उधर की बातचीत के बाद, उसने फोन रख दिया. कदाचित, पिता के, अनमनेपन का अनुमान, उसे भी हो गया था.
मुनीश, मन्दिर की सीढ़ियों पर, जाकर बैठ रहे. भजन- कीर्तन की ध्वनियाँ, लगातार, कानों में, पड़ रही थीं. सुहासिनी अपने हर जन्मदिन पर, यहाँ आती थी. भजन- मंडली के साथ, सुर में सुर मिलाकर गाना, उसे पसंद था. भक्तजन झूम रहे थे; मगन होकर नाच रहे थे, परन्तु मुनीश, वहाँ की रौनक, देखने नहीं गये. मानसिक जड़ता, उन्हें छोड़ नहीं रही थी...उनके भीतर, कुछ दरकने सा लगा. वे उठकर चलने को हुए तो फ्लैट वाले पड़ोसी, नीचे आते दिखे. पड़ोसी ने श्रद्धापूर्वक, प्रसाद उनको थमाया और विदा ली.
मुनीश ने, प्रसाद की बूंदी, मुँह में डाली तो केवड़े का मीठा स्वाद, जिह्वा में घुल गया. सुहासिनी को, मन्दिर वाली, मीठी बूंदी, बहुत पसंद थी. इसी से, वह स्वाद, उनको भी अच्छा लगा और जी कुछ हल्का हुआ. वे सीढ़ियों से उतरकर, अपनी चप्पलें ढूंढ रहे थे कि बगल से गुजरती, दो महिलाओं का, वार्तालाप सुनाई दिया, ‘कोई खास बात है आज, जो दरशन करने आई हो’
‘हाँ री...हमारे ब्याह की, सालगिरह है’
‘तेरे वो तो बाहर हैं ...’
‘तो क्या हुआ’ दूसरी महिला तुनककर बोली, ‘आज वह सब करूँगी जो उन्हें पसंद है...उनकी पसंद का, खाना खाऊँगी...उनकी पसंद की, चीजें खरीदूंगी’
मुनीश चौधरी ने, घर जाने के लिए, पग मोड़े ही थे कि मन्दिर वाली स्त्री की आवाज़, कानों में गूँज उठी, ‘आज वह सब करूँगी...जो उन्हें पसंद है...’ चौधरी जी ने घड़ी देखी. साढ़े नौ बज रहे थे. अब तक उनका नाश्ता, हो जाना चाहिए था. सुहासिनी होती तो संभवतः, महराज से, आलू के पराठे बनवाती. विशेष अवसरों पर, नाश्ते का, यही मेनू रहता; लेकिन आज तो उन्होंने, महराज को, छुट्टी दे रखी थी. इतवार की शाम, वह, वैसे भी नहीं आता था. महराज के संग, महरी की भी छुट्टी कर दी. आज उनका दिल, उखड़ रहा था...इसी से वे, किसी को देखना...किसी से बोलना भी, नहीं चाहते थे!
उन्होंने सामने वाली सड़क पर, नजर दौड़ाई. एक चलताऊ सा ढाबा, दिखाई पड़ा. उधर गरमागरम पराठे, सेंके जा रहे थे और केतली में चाय उबल रही थी. दिल गदगद हो गया. पास जाकर देखा तो पाया; पराठों में, मसालेदार आलू की, भरावन ही थी. बस फिर क्या था...जी भरके, पेटपूजा कर ली! खाते जा रहे थे, और पत्नी को याद करते जा रहे थे. स्वादेंद्रिय के साथ, मन भी तृप्त हो गया!
अब दोपहर के, भोजन की आवश्यकता नहीं थी. यूँ तो... घर जाने का, मन भी नहीं था. मन्दिर वाली महिला का स्वर, पुनः, कुरेदने लगा, ‘आज वह सब करूँगी...जो उन्हें पसंद है...’ मुनीश को, अभूतपूर्व, अद्भुत सी प्रेरणा मिली. उनको भी वही सब करना था- जो सुहासिनी को, अभीष्ट रहा. रविवार के दिन, नातिनों को लेकर, सुहासी, ‘क्रॉसवर्ड’ जाया करती. उधर बच्चियों को, छोटे- छोटे खिलौने, किताबें वगैरा दिलवाती. फिलहाल... मैना, मेघना, उनके पास नहीं थीं; किन्तु वे स्वयं तो क्रॉसवर्ड, जा ही सकते थे.
ढाबे की बेंच पर, बैठे- बैठे, उन्होंने कैब बुक की और ‘क्रॉसवर्ड’ की राह पकड़ी. बच्चियों के लिए, सुंदर स्टेशनरी का सामान, खरीदते हुए, प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था. खरीदारी के बाद, घर आकर आराम किया. उनकी अकुलाहट, शांत हो गई थी. दोपहर की झपकी लेकर, जब वे उठे तो चाय स्वयं बनाकर पी ली. मुनीश का अब, सब्जीमंडी तक जाने का, विचार था. इतवार को वहाँ, मेले जैसा लगता था और सुहासिनी... ताजी सब्जियाँ लेने के फेर में, उधर जरूर जाती. योजनानुसार मुनीश, घर के सामने बनी, रेलवे- लाइन पार करके, सब्जीमंडी जा पहुँचे.
सरसों और बथुए का साग लेते हुए, सुहासी का खयाल, आता रहा. यह दोनों, उसकी पसंदीदा सब्जियाँ रहीं. इतने में, गजरेवाली दिखाई दी. उनको देखते ही कह उठी, ‘बहुत दिनों में दिखे बाऊजी ...माँजी कहाँ है? एक गजरा ले लो उनके लिए...’ चौधरीजी को ध्यान हो आया- सुहासिनी, अपने चाँदी जैसे केशों को, मोंगरे के फूलों से सजाकर, खुश हो जाती थी. चौधरीजी ने गजरेवाली को, सुहासी के विषय में, कुछ नहीं बताया और चुपचाप, दो गजरों के, पैसे चुका दिए. कुमुद के बाल तो छोटे थे; परन्तु मेघना, मैना, अपनी चोटियों में, इन्हें बाँध सकती थीं.
लम्बे- लम्बे पग बढ़ाते हुए, वे, फ्लैट की दिशा में, बढ़ चले. कोहरा गहराने के पहले ही, उन्हें घर पहुँचना था. घर में, सुखद आश्चर्य, उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. कुमुद, बच्चियों के साथ, लौट आयी थी. उसकी ससुराल उन्नाव में, पारिवारिक- उत्सव, ठीक से निपट गया. यह भी संयोग रहा कि वह, सुहासी का फेवरेट बाटी- चोखा, पैक करा लाई... फ्लैट की दूसरी चाभी, उसके पास, पहले ही थी... जंवाई निखिल भी, अपनी ‘मर्चेंट- नेवी’ वाली ट्रिप से, लौटने वाला था. नवासियाँ, नानू से, मनभावन उपहार पाकर, चहकने लगीं.
बच्चियों की, किलकारियों के बीच; कुमुद ने, दूसरा सरप्राइज़ दिया, ‘पता है डैड...अभी अभी विजय भैया और शिखा भाभी का कॉल आया था, फर्टिलिटी क्लिनिक से... गेस व्हाट...’
‘गेस व्हाट?’
‘शिखा भाभी माँ बनने वाली हैं!’
‘क्या...!!’ हर्षातिरेक में, मुनीश के आँसू निकलने वाले थे.
‘आज माँ के अवतरण- दिवस पर...उनका हर सपना पूरा हो गया है!’ उत्साह के कारण, कुमुद, रुक- रूककर, बोल पा रही थी, ‘बुटीक के लिए, बैंक ने, मेरा लोन अप्रूव कर दिया..अब मैं अपनी बुटीक खोल सकती हूँ!’
मुनीश ने प्रेम से, बिटिया के सर पर हाथ फेरा. अपना मोबाइल निकाला तो पाया कि विजय का, मिस्ड- कॉल था, जिसे वे सुन नहीं पाए. उनका मोबाइल, शॉपिंग- बैग में पड़ा था. इस कारण, फोन की घंटी का, पता ही ना चला. जरूर खुशखबर देने के लिए, कॉल किया होगा. उन्होंने मैना, मेघना, को देखा. उनकी उछलकूद भी, माहौल को, खुशनुमा बना रही थी. इधर कुमुद की उमंग, देखते ही बनती थी. हठात ही, पत्नी की तस्वीर पर, मुनीश की दृष्टि, चली गई.
उन्हें लगा, मानों वह कह रही हो, ‘जो आपके दिल के, करीब होते हैं...आपके ही वजूद का, हिस्सा होते हैं. उनके जाने के बाद, उस अंश को, जीवित रखना- आप पर निर्भर है. रोने, बिसूरने से कोई लाभ नहीं...इहलोक में, छूटकर बिखर गये- उनकी खुशियों के, तिनके सहेजना...उनके अधूरे सपनों का पीछा करना, आपका काम है...तभी वजूद का वह हिस्सा, बचा रहेगा!’
मुनीश जी की आँखें नम थीं!!