आपने स्कूल को अपना लिया और स्कूल ने आपको। शुरू में आप स्कूल से 1 किमी दूर बने सोहैपुर कम्युनिटी हॉल में रहे फिर बाद में स्कूल के हॉस्टल में रहने लगे। आप अपने अमरपुरा के संस्कार और व्यवहार सोहैपुर गया में भी चलायमान रखा। सोहैपुर आते ही अपने आसपास की खाली जमीन में शाक सब्जी उगाने लगे। दिनभर स्कूल का काम करते और शाम में या छुट्टी के दिन खेतों की क्यारी बनाते और साग सब्जी उगाते। इस कार्य में अन्य शिक्षक और छात्र भी सहयोग
करते थे। स्कूल में क्लर्की के साथ साथ गणित और विज्ञान भी पढ़ाने लगे। यहाँ यह भी ध्यान देने वाली बात है कि आपको लोग शिक्षक के रूप में ही जानने लगे। कभी कभी बहुत कम या नाम मात्र फीस ले कर बच्चो को अलग से भी पढ़ाते थे।
आपके परिवार में पत्नी, बच्चे, माता, पिता अमरपुरा में संयुक्त परिवार में रह रहे थे। आपके बच्चे अपनी प्रारंभिक पढाई अमरपुरा के प्राइमरी स्कूल में करने लगे। यहाँ सभी बच्चों का कोई ड्रेस कोड नहीं होता था, बच्चे अपना बस्ता और बैठने के
लिए बोरी साथ लाते। यदि आपस में झगडा हो गया और पिट गये तो रोते हुए घर आपने पर दादी से दो चार झापड़ और खाते, यही चलता था ।
सोहैपुर गया शहर से पूर्व दिशा में बसा एक गाँव है जिसकी जनसँख्या करीब 2000 है। यह गाँव दो टुकड़ों में बसा
है एक ओर कुशवाहों की बस्ती है और दूसरी ओर अन्य जातियां रहती हैं। श्रधेय श्री सुदर्शन प्रसाद जो कुशवाहा
समाज से आते थे का घर काफी बड़ा है और चारो ओर से चहारदीवारी से घिरा है। श्रधेय श्री सुदर्शन प्रसाद ने ही लीला
महतो स्मारक उच्च विद्यालय की स्थापना की थी । यह स्कूल पहाड़ी की तराई में जंगली पेड़ो के बीच बना है। यहाँ से कुछ ही दूरी पर ढून्गेश्वरी मंदिर है। जिसके बारे में मान्यता है कि वहाँ भगवान बुद्ध छह वर्ष तक तपस्या किये थे। श्रधेय श्री सुदर्शन प्रसाद अपने समाज और इलाके के जाने माने धनाढ्य किसान थे। वो स्कूल के संस्थापक होने के साथ साथ सेक्रेटरी भी थे। इसकारण उनकी बहुत इज्जत थी।
पहले आषाढ़ आते आते खेत धान बोने के लिए तैयार हो जाते थे। उस समय ‘पहिरोपना’ एक विशेष पर्व की तरह होता था। पहिरोपना का शाब्दिक अर्थ है धान की पहली रोपण। पहली रोपण होने के दिन, रात्रि में सामूहिक भोज का आयोजन किया
जाता था। इस भोज में गोतिया के साथ साथ परिचितों को भी आमंत्रित किया जाता था। सुदर्शन बाबू के पहिरोपना में स्कूल के सभी स्टाफ आमंत्रित होते थे । 1977 के पहिरोपना में सभी शिक्षक के साथ नरेश बाबू भी भोज में आमंत्रित थे। वहाँ पर वह सुदर्शन बाबू के बड़ाहिल श्री तिलक प्रसाद से मिले जो मनियारा, राजगीर के रहने वाले थे और पिछले साल से सुदर्शन बाबू के यहाँ खेती का काम की देख-रेख करते थे। एक बार की बात है श्री तिलक प्रसाद खेत का पटवन करवा रहे थे और नरेश बाबू शाम में स्कूल से लौट रहे थे। नरेश बाबू ने उनसे उनका हालचाल पूछा तो उनको महसूस हुआ कि वो कुछ उदास हैं। पूछने पर बताया कि वो अपने परिवार की सुरक्षा के लिए चिंतित थे क्योंकि उनके बड़े बेटे को चुरा कर शादी कर दिया गया था। और उनको डर था कि उनके छोटे बेटे के साथ भी कहीं ऐसा ही न हो जाये। नरेश बाबू सहायता करने की प्रवृत्ति के कारण खुद को रोक नहीं पाए और उनके सामने उनके छोटे बेटे को अपने साथ रखने का प्रस्ताव दे दिए। तिलक जी को बिन मांगे मुराद पूरी हो गयी, उन्होंने दो तीन दिन में ही अपने छोटे बेटे सुरेश को मनियारा से सोहैपुर बुलवा लिया। नरेश बाबू ने बालक सुरेश को अपने साथ रख लिए और पढ़ाने लगे। 1977 में भारत में इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी। राजनीतिक रूप से अमरपुरा में भी शांति हो गयी थी। परन्तु इस बार मानसून धोखा दे दिया था, बारिश का नामोनिशान नहीं था |