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मैं और मेरे पिताजी - चंद्रमाला शौर्य

26 फरवरी 2022

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 मैं अपने पिताजी कि लाडली बेटी थी . जहाँ तक मुझे याद है वो मुझे बताते थे, मेरे जन्म पर वे पुरे गाँव में लड्डू बटवाए थे | चुकि मैं अपने तीनों भईया से छोटी थी इसलिए मैं पुरे परिवार की लाडली बन कर रही | 

 मेरे बचपन के दिनों में वे “गया” रहते थे | मैं घर पर माँ , माँमाँ (दादी) और छोटे भईया के साथ रहती थी | बीच-बीच में बड़े और मंझले भैया भी आते रहते थे | जब पिताजी ‘गया’ से आते थे, सबसे पहले मैं उनका झोला स्मभालाती थी और उसमे तिलकुट, लाई या कुछ खाने का सामान ढूंढती थी, और मिलते ही ख़ुशी से झूम उठती थी | चूँकि मैं बचपन में शरारती थी, किसी और को खाने के लिए नहीं पूछती थी, खुद ही ज्यादा कहा लेती थी | उसके लिए मैं माँ की डांट खाती थी, पिता जी भी कभी-कभी डांटते थे, किन्तु वे बोलते थे – जितना मन है खा ले | उन्हें मेरे खाने की पसंद पता था – चाहे फल हो या
सब्जी | मुझे और मेरे पिताजी को मकई (भुट्टा) खाना बहुत पसंद था, अक्सर हमलोग मकई को भूनकर खाते थे | 

 फिर जैसे-जैसे मैं बड़ी होने लगी, पिताजी मुझे संस्कार और सलीके सिखाते हुए सबसे ज्यादा जोर मेरे पढ़ाई पर दिया | चूँकि मैं खेल-कूद में भी होशियार थी, दौड़ में हमेशा प्राइज जीतती थी | पिताजी बताते थे कि यह गुण हमारे पूर्वजों से मिला है | दादाजी, पिताजी भी अच्छे धावक थे | हमारे भैया लोग एवं नई पीढ़ी भतीजा-भतीजी भी अच्छे हैं खेल-कूद में | 

 पिताजी मेरे तीनों भैया को गया में अपने पास रखकर पढ़ाए, मैं घर पर रह कर पढ़ी, चूँकि जब मैं आठवीं क्लास में थे, पिताजी रिटायर हो गये थे | वे मुझे मैट्रिक बोर्ड के परीक्षा के समय भोर में जगा देते थे, ताकि मैं ध्यान से पढ़ सकूं किन्तु मुझे बहुत नींद आती थी | मैं दिन में पढ़ाई करती थी | मुझे मैट्रिक के परीक्षा के लिए मेरे छोटे भैया भी खूब पढ़ाए | उनके और पूरे परिवार की मदद से मैं फर्स्ट डिवीज़न से पास की | दसवीं में मेरा मैथमेटिक्स अच्छा था किन्तु बारहवीं में मैं बायोलॉजी विषय लिया था क्योंकि पिताजी की इच्छा थी कि मैं डाक्टर बनूँ | 

 मैं तीन साल तक पटना में रहकर आई.एस.सी के पढ़ाई के साथ-साथ मेडिकल कम्पटीशन की तैयारी की | अंततः मैं पैरा-मेडिकल कोर्स –बैचलर इन ऑडियोलॉजी एंड स्पीच लैंग्वेज पैथोलॉजी (बीएएसएलपी) के प्रवेश परीक्षा पास किया, फिर कलकत्ता के ‘अली जंग ज़वाहिरी नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पीच एंड हियरिंग डिसेबिलिटीज’ में प्रवेश पाया, इस सम्बन्ध में मुझे मेरे मंझले भैया से बहुत सहयोग तथा जानकारी मिली |  

 मैं वहीं से बैचलर डिग्री किया और उसके बाद कलकत्ता में जॉब करने लगी, उसी बीच मेरी शादी की बात चल रही थी | मैं घर में बताई कि मैं अपनी मर्जी से शादी करना चाहती हूँ | मेरी पसंद के लडके को मेरे घर पसंद करते थे किन्तु एक दामाद के रूप में नहीं | पिताजी मेरे इस व्यवहार से बहुत नाराज हो गए थे, शायद वो मेरे से बहुत ज्यादा प्यार करते थे, इसलिए सोच नहीं पाए होंगे कि मैं उनके मर्जी के खिलाफ जा पाऊँगी | फिर मेरे पिताजी और परिवार के लोग मेरे पसंद के लड़के ‘मनीष जी’ से शादी करवा दी . धीरे-धीरे सब कुछ नार्मल हो गया | मेरे पिताजी का मेरे पति के प्रति व्यवहार भी सामान्य हो गया. वे दोनों राजनीतिक विषय पर हमेशा ही चर्चा करते रहते थे |  

 फिर मैं अपने विषय में मास्टर डिग्री करने के लिए हैदराबाद चली गयी | उन दो साल के अन्दर माँ-पिताजी घर पर ही रहते थे | भईया लोग आते-जाते रहते थे , इस बीच सबसे ज्यादा करीब में मेरे पति ही रहे | 

2016 में जब पिताजी को लकवा मारा, उस समय मेरे पति और कुछ पड़ोसी मिलकर पिताजी को दिखवाने के लिए
हॉस्पिटल ले गए | खुद की इच्छा शक्ति और दवाओं और दुआओं के चलते पिताजी जल्द ही रिकवर कर लिये थे | 

जुलाई 2017 में जब मेरा मास्टर डिग्री का फ़ाइनल एग्जाम समाप्त हो गया था, मेरे पति माँ-पिताजी को हवाई जहाज से मेरे पास हैदराबाद लाये थे | माँ-पिताजी को हमने पुरे हैदराबाद शहर घुमाया | चारमिनार, चौमहल, हुसैनसागर करीब-करीब सभी जगह घुमे | फिर हैदराबाद से पढाई ख़त्म करके, मैं कभी अमरपुरा कभी ससुराल रहने लगी. पिताजी चाहते थे कि मैं हमेशा  उनकी नजरों के सामने रहूँ | एक-दो दिनों के लिए भी नारायणपुर जाती थी तो पूछते थे कब आओगी या फिर दिन में क्यों नहीं आयी | उन्होंने कभी भी मेरे और मेरे भाइयों में कोई भेद-भाव नहीं किये | अपनी मर्जी से शादी के बाबजूद, गुस्सा त्यागकर, वे मुझे बहुत प्यार करते थे और वे मुझसे बहुत प्यार चाहते थे |  

बचपन में मुझे याद है, जब भी मेरा हाथ-पैर दर्द करता था, टटाता था, देर रात तक, जब तक मुझे नींद नहीं
आती, पिताजी मेरे पैर दबाते रहते थे | इधर तक भी वे मुझे हर तरह की सहायता करते रहते थे | 

अंततः वे तेरह अक्टूबर 2018 को हमलोगों को अलविदा कह गए | अक्टूबर 2018 की बात है, नवरात्रि आने वाला था , मैं अपने ऑफिस (पिताजी की इच्छा थी मेरे ऑफिस देखने का, किन्तु मैं उन्हें अपना ऑफिस दिखा नहीं पायी) से छुट्टी ली हुई थी | पहली पूजा के दो दिन पहले ही मैं अमरपुरा से अपनी ससुराल नारायणपुर चली गयी थी, ताकि नवरात्र की तैयारी
अच्छी से कर सकूँ | अमावस्या के एक दिन पहले पिताजी को लख पर मिले थे, उनसे सब्जी का झोला लेकर अमरपुरा घर पहुंचा दिए, क्योंकि सब्जी का झोला थोड़ा भारी था | उस शाम भी घर आकर कुछ देर रुके, माँ से मिले , फिर लेट हो रहा था तो हमलोग नारायणपुर जाने के लिए निकल गए, लेकिन जैसे ही हमलोग (मैं और मेरे पति) निकले, पिताजी जी गबड़ा पर मिल गए, वे अभिनेश भैया के मोटरसाइकिल पर बैठ कर लखपर से आ रहे थे | वे बोले ‘ इतना जल्दी जा रही हो’ मैंने बोला था ‘ हाँ पिताजी, फिर आयेंगे’ | 

लेकिन जब हम दुबारा आए, उनकी खराब तबियत की खबर सुनकर | नवरात्री का चौथा दिन, चूँकि हमलोग पूजा कर
रहे थे , सोचे थे अब सप्तमी-अष्ठमी तक ही अमरपूरा जायेंगे | ऐसा पहली बार हुआ था जब चार दिनों तक मैं अमरपुरा नहीं आयी थी, मतलब माँ-पिताजी के दर्शन नहीं हुए थे | 

13 अक्टूबर 2018
हमारे जिन्दगी का सबसे दुखद दिन था | मेरी दादी भी 13 अप्रैल 2012 को गुजरीं थीं. 13 अक्टूबर को दिन में पिताजी से बात हुई थे, वे बोले थे ‘सब ठीक है, मेरी तबियत ठीक है’; शाम ढलते ही आठ बजे के करीब माँ से बात हुई, वो बोली थी ‘सब ठीक है’ | 

अचानक रात नौ- सवा
नौ बजे के बीच मुकेश भईया (पड़ोस) का फोन आता है कि पिताजी की तबियत बहुत ख़राब है गैस से बेचैनी हो रहा है | इतना सुनते ही पता नहीं क्यों बिना सोचे समझे, मैं और मेरे पति मंझले भैया के ऑटो से तुरंत अमरपुरा आ गए | पिताजी की हालत देखते ही उसी ऑटो से मेरे पति, अभिनेश भैया और मुकेश भैया पिताजी को गोपाल अस्पताल, मोड़ पर ले
गए, पिताजी अपने से ऑटो से उतरकर सड़क से हॉस्पिटल में गए | घर पर मैं और माँ पिताजी का इंतजार कर रहे थे | मैं माँ को समझा रही थी कि पिताजी ठीक होकर जल्दी आ जायेंगे | लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था. वो 13 अक्टूबर की काली रात, हमारे पिताजी को हमेशा के लिए लेकर चली गयी, हमलोग रोते – विलखते रह गए | 

बस इसी आसमें....,पिताजी को और जीना चाहिए था |   

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रचनाएँ
कर्मयोगी नरेश बाबू
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जिनका जन्म हुआ है उनकी मृत्यु भी निश्चित है | जीवन-मृत्यु प्रकृति का शाश्वत सत्य है | जिस तरह बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता, उसीतरह जो दिवंगत हो जाते हैं, कभी नहीं लौटते | मात्र उनकी यादें हमारे मानस पर बरबस आती रहती है | उनकी क्रियाकलापें, उनकी बातें, उनकी स्मृतियाँ हमेशा ही हमारे अंतर्मन में आती रहती है | फिर वही स्मृतियाँ हम अपने आने वाली संतानों को बताते हैं, यह प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है, जो स्मृतियाँ उपयोगी होती है अनेक पीढ़ियों तक चलती है, जबकि कुछ यादें एक ही पीढ़ी में समाप्त हो जाती है | मेरी यह किताब, मेरे बाबूजी और पूर्वजों की स्मृतियों को सहेजने की एक छोटी सी कोशिश है | बाबूजी का पूरे परिवार को आगे बढ़ाने में महानतम योगदान रहा है. बाबूजी ने हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके परिणामस्वरूप हम सभी ने एक अच्छा मुकाम हासिल किया| आज हम जो कुछ भी हैं, यह बाबूजी के दूरदर्शिता के बिना संभव नहीं था | हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान कर उन्होंने एक ऐसी परम्परा की नींव रखी है जो आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम करेगी | उन्होंने हमें पढ़ा-लिखाकर ऐसे अवसर प्रदान किये जो उन्हें स्वयं के जीवन में कभी नहीं मिले थे | बाबूजी के शिक्षा के प्रति अथाह लगाव के कारण ही मैं आज इस किताब को लिखने में अपने को सक्षम पा रहा हूँ | बड़े लोगों की जीवनी तो आप सभी जगह पा सकते हैं किन्तु साधारण आदमी, सिर्फ कहानी का पात्र बनता है | मैंने बाबूजी के इस ‘जीवनी’ के माध्यम से एक साधारण आदमी को मुख्य किरदार के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश किया हूँ | मेरे बाबूजी अकसर मुझे अपने पूर्वजों के बारे में बताते रहते थे, इस किताब में बाबूजी से प्राप्त जानकारियों को समेकित किया गया है | बाबूजी के जीवनी लिखने के लिए मैंने अपनी माँ, भाइयों के अलावा बाबूजी के दोस्त श्री प्रेमचंद, श्री रामानंद वर्मा, श्री शिवसमन तिवारी, श्री गजाधर और अनेक सम्बन्धियों से जानकारी प्राप्त किया | इस जीवनी को लिखने में मुझे अपने भाइयों श्री कुणाल (प्रमोद) और श्री अमरेश (आमोद), बहन श्रीमती चंद्रमाला से भी अपेक्षित सहयोग मिला | इस पुस्तक को लिखने में मुझे अपने मित्र श्री राजीव सारस्वत, दिल्ली के पिताजी के द्वारा लिखित “स्मृतियाँ” से भी अपेक्षित मार्गदर्शन मिला | बाबूजी का यह जीवनी अनेक चैप्टर में विभाजित है | इसमें कुछ चैप्टर पूर्वजो से जुड़ी घटनाओं का वर्णन है | इसमें बाबूजी के जन्म से लेकर मृत्यु तक घटनाओं का वर्णन किया गया है | इस किताब में मेरे छोटे भाइयों, बहन और मंझले भाई की पत्नी (भभू) का बाबूजी के प्रति विचार को भी जगह दी गयी है | परिवार के जिन सदस्यों ने अपने संस्मरण लिखे हैं, उनसे इस प्रस्तुति को पूर्णता प्राप्त हुई है, जिससे इसकी पठनीयता बढ़ी है | किताब के अंत में, बाबूजी के दोस्तों और शुभचिंतकों के भाषण का कुछ अंश दिया गया है, जो उन्होंने बाबूजी के शोकसभा के दिन दिया था | इस किताब में बाबूजी के कुछ तस्वीरें भी दी गयी है | उनके कुछ दोस्तों और सम्बन्धियों के भी यादगार तस्वीरों को इस पुस्तक में जगह दी गयी है | इस पुस्तक को आपके हाथ में पहुँचाने तक उपरोक्त महानुभावों के अलावा मेरे मित्र श्री अभय कुमार, दिल्ली एवं श्री शिव शंकर प्रसाद, निसरपुरा, पटना ने प्रूफरिडिंग के अतिरिक्त शब्द एवं वाक्य विन्यास को समुन्नत किया है | सुरेश भैया, गया ने इस पुस्तक की प्रिंटिंग में सहयोग किया, जबकि मनीष जी (बहनोई) का तस्वीर चुनने और सही जगह रखने में अपेक्षित सहयोग मिला | संकलन के विभिन्न स्तरों पर उक्त सदस्यों के सृजनात्मक सहयोग, श्रम एवं उत्साहपूर्ण योगदान से नरेश बाबू की जीवनी “कर्मयोगी नरेश बाबू” अपने वर्तमान स्वरूप आ सका है , इसका श्रेय इन्हीं सदस्यों को जाता है | आभार प्रकट करना उनके निश्छल स्नेह, आदर और प्रयास को कम करना होगा | भगवान से प्रार्थना है कि उनका जीवन मंगलमय हो | मुझे विश्वास है कि यह किताब से आने वाली पीढ़ी पूर्वजों के बारे में जान सकेगी | इससे उन्हें अपने कर्मों को सुविचारित रूप से पूर्ण करने में सहयोग मिलेगा | इस संस्मरणों को लिखने में, प्रस्तुतिकरण में, यथासंभव, मैं सही और शुद्ध लिखने की कोशिश किया हूँ, फिर भी कुछ त्रुटी रह गयी हो, तो मुझे क्षमा करें | और इस पुस्तक से जो कुछ भी ग्राह्य है, उसे पूर्वजों के आशीर्वाद समझकर अवश्य ग्रहण करें |
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पितृ-स्तुति

26 फरवरी 2022
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ॐ नमःपित्रे जन्मदात्रे सर्व देव मयाय च | सुखदायप्रसन्नाय सुप्रिताय महात्मने ||1|| सर्वयज्ञ स्वरूपाय स्वर्गाय परमेष्ठिने | सर्वतिर्थावलोकाय करुणा सागराय च ||2|| नमःसदा शुतोषाय शिव रूपाय ते नमः | स

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वर्तमान अमरपुरा

26 फरवरी 2022
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  बिहार की राजधानी पटना के फुलवारी शरीफ़ से करीब 10 किलोमीटर दक्षिण नौबतपुर थाना में अमरपुरा गांव बसा है इसके दक्षिण तरफ नहर है और उत्तर तरफ नौबतपुर प्रखंड कार्यालय और मोहनिपोखर गाँव है पूर्व तरफ आरोपु

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अमरपुरा और इतिहास

26 फरवरी 2022
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  जब अंग्रेजों का शासन जोरों पर था और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी भारत को स्वतंत्र कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे. अंग्रेज एक तरफ द्वितीय विश्व युद्ध में फंसे थे तो दूसरी तरफ भारतीय स्वतं

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पांडे जी

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 बचपन में नरेश बाबू का धार्मिक पूजा अनुष्ठान में बड़ी रूचि थी, वे अनंत पूजा, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी इत्यादि त्योहारों में उपवास भी रखते थे और पूरी भक्ति भावना से पूजा अर्चना करते। इसके अलावा सरस्वती पूजा

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बाबू जी एवं माँ

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 आपके पिता श्रधेय  श्री राम उग्रह सिंह बहुत ही उग्र स्वाभाव के व्यक्ति थे। वे करीब छह फुट लम्बा और रंग गेहुआ था। वे शारीरिक रूप से काफी मजबूत और काफी ताकतवर व्यक्ति थे। वे तीन लोग से उठ सकने वाले बोझो

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व्यवसाय

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 भारत एक कृषि प्रधान देश है, आपके घर का भी मुख्य व्यवसाय कृषि ही था। किन्तु जब आपके घर का मालिकाना हक़ पढ़े लिखे होने के कारण श्रधेय श्री शीतल प्रसाद को दे दिए गए, तो उन्होंने अन्य व्यवसाय को भी बढ़ावा द

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आपकी शादी

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 अमरपुरा गाँव में बाल विवाह नहीं के बराबर होता था, स्त्रियों को भी शिक्षा प्रदान किया जाता था। स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव या छुआछूत जैसी बुराईयों से यह गाँव दूर था। मास्टर  श्री घनश्याम इसके उदाहरण थे

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जगदेव बाबू और आप

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 जगदेव बाबू 1968 में बिहार सरकार में मंत्री बने, उसके बाद उनकी पार्टी शोषित समाज दल का प्रसार अमरपुरा में भी बढ़ा। आप भी उनके विचारों और सिद्धान्तों से प्रभावित थे। आपके साथ  श्री रजनधारी सिंह,  श्री ओ

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गया प्रवास

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 1969 में खादी ग्रामोद्योग मधुबनी में सहायक के रूप में कार्य किये फिर 1972 में बिहार कॉपरेटिव फेडरेशन में कार्यकर्ता के लिए ट्रेनिंग लिए और कार्य शुरू किये । 1976 में लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय सो

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शिक्षक की भूमिका में

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 ऐसा कहा जाये कि आपके अंदर बचपन से ही शिक्षक का गुण था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आप अपने छात्र जीवन से ही अपने दोस्तों को पढ़ाते रहते थे. आप अपने साले श्रधेय श्री शम्भू प्रसाद को भी पढ़ाया. वे बताते

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स्कूल, आप और परिवार

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 आपने स्कूल को अपना लिया और स्कूल ने आपको। शुरू में आप स्कूल से 1 किमी दूर बने सोहैपुर कम्युनिटी हॉल में रहे फिर बाद में स्कूल के हॉस्टल में रहने लगे। आप अपने अमरपुरा के संस्कार और व्यवहार सोहैपुर गया

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अमरपुरा के उमस

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 मानसून की उमस को याद करते हुए, श्रधेय श्रीमती सुमित्रा देवी बताती हैं कि सावन की दूसरी सोमवारी का उमस भरा दिन था, रात में भी बहुत गर्मी थी न हवा चल रही थी न बारिश ही हो रही थी। रात में खाना खाने के ब

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शिक्षक की ईमानदारी

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 आप अमरपुरा में नाटक मंचन में सहयोग अवश्य करते थे. आप खुद कोई पात्र नहीं बनते थे किन्तु अन्य कार्य जैसे नाटक चयन, चंदा मांगने एवं देने में सहयोग करते थे. सर्वश्री परमेश्वर नारायण, भूपेंद्र सिंह, विजय

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आपके पिताजी का इंतकाल

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 1983-84 आते-आते आपके पिताजी श्रधेय श्री राम उग्रह सिंह काफ़ी थक चुके थे. इसी बीच घर में बंटवारा उन्हें और बुड्ढा बना दिया था. और इसी बीच आपकी छोटी चाची श्रद्धेया श्रीमती महेश्वरी देवी की अचानक मृत्यु

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गया में गृह-निर्माण

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 1991 में गया के लखीबाग, मानपुर में आपने जमीन खरीद ली थी. आपके साथ-साथ सोहैपुर हाई स्कूल के अनेक शिक्षक जैसे श्रधेय  श्री सहजा बाबू, श्रधेय  श्री विरेन्द्र बाबू, श्री विजय बाबू, श्री रामभजू बाबू इत्या

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सेवा-निवृति

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 1998 तकआपके बड़े बेटे चंद्रगुत(विनोद) ने साइंस में स्नातक के बाद सिविल इंजीनियरिंग में दुमका पोलिटेक्निक से डिप्लोमा कर लिया. जबकि आपका मंझला बेटा कुणाल (प्रमोद) ने 2000 में कलकत्ता विश्वविध्यालय से प

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घर-वापसी

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 हाँ ! घर-वापसी ही , क्योंकि श्रद्धेय नरेश बाबू जब से सोहैपुर , गया के लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय में ज्वाइन किया था , स्कूल के आस-पास अपने सहशिक्षकों के साथ रहते थे , खुद खाना बनाना और खुद ही अपन

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माताजी और सेवा

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 2010 साल का आश्विन महीना था, थोड़ी-थोड़ी ठंढ हो रही थी, लेकिन बूढ़ी हड्डी में ठंढ कुछ ज्यादा ही लगती है । आपकी माताजी श्रद्धेय मुंगेश्वरी देवी 93 वर्ष की हो चुकीं थीं । उस दिन तेज हवा बह रही थी, जिससे आ

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लकवा

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 जब आपकी बेटी की भी पारामेडिकल के कंपेटिसन में सेलेक्सन हो गया और उसे स्पीच थेरेपी में ग्रेजुएशन में एड्मिशन के लिए आया तो आप बहुत खुश हुए थे, उस समय आपका मंझला लड़का उसी कालेज के कैम्पस में नेशनल इं

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हैदराबाद यात्रा

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 लकवा से उबरने के बाद आप पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे । या यों कहें कि आप पहले से ज्यादा स्वस्थ हो गए थे । अंतर यही हुआ था कि अब आपके साथ दवा की एक पोटली साथ हो गया । लकवा मारने से करीब एक साल पहले 2015

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बाबूजी का दिल्ली और करनाल भ्रमण

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 जब आपका पोते इशांक का फुटबॉल खेलते समय 24 मार्च 2018 को हाथ टूट गया तो आपलोग बहुत परेशान हुए. आप उससे मिलने के लिए उतावले हो रहे थे. उस समय आपके मंझले लड़के प्रमोद अपने परिवार के साथ घर आया हुआ था. आप

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अंतिम भ्रमण

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 ऐसा लगता है आपके पास समय की कमी थी. आपको इसका अहसास भी हो गया था. तभी तो आप अपनी जान पहचान के लोगों से  जल्दी-जल्दी मिल लेना चाह रहे थे. जब आपसे मिलने आपके बड़ी साली श्रीमती सोना देवी, बाजितपुर की पुत

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गुरूजी चले गये

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 गुरूजी चले गए?  बाबूजी चले गए?  पिताजी चले गए.  दादाजी चले गए. नरेश बाबू चले गए.  यही बातें अमरपुरा गांव में चल रही थी 13 ओक्टुबर 2018 को रात 10 बजे से. फोन पर भी यही बातें हो रही थी. सभी लोगों

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अंतिम यात्रा

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 इस समय रात के करीब पौने दस बजे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. घर पर आपकी पत्नी और बेटी आपके सकुशल लौटने की भगवान से प्रार्थना कर रहे थे. किन्तु जैसे ही आपका निष्प्राण शरीर पहुंचा, घर पूरा अशांत हो गया. आप

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मेरी नजरों में हमारे बाबूजी ------ कुणाल योगेश चन्द्र

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 एक साधारण एवं गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद भी मेरे बाबूजी अपनी कार्य-कुशलता एवं योग्यता के कारण लोकप्रिय रहे. उनका बचपन गरीबी एवं कठिनाई भरा था. अपने सरल स्वभाव के चलते वे बड़ी आसानी से लोगों से घ

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हमारे पिताजी और मेरी स्मृतियाँ -अमरेश चन्द्र

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 मेरा बचपन अधिकांशतः अमरपुरा में बीता है इस कारण प्रथम 10 वर्ष तक मैं पिताजी के अनुशासन और स्नेह से प्रायः वंचित रहा. परन्तु मेरे जीवन पर पिताजी का गहरा प्रभाव रहा है. पिताजी की बहुत सी बातें हैं जो

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मैं और मेरे पिताजी - चंद्रमाला शौर्य

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 मैं अपने पिताजी कि लाडली बेटी थी . जहाँ तक मुझे याद है वो मुझे बताते थे, मेरे जन्म पर वे पुरे गाँव में लड्डू बटवाए थे | चुकि मैं अपने तीनों भईया से छोटी थी इसलिए मैं पुरे परिवार की लाडली बन कर रही | 

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मेरे ससुर जी और मैं – कुमारी सुषमा

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 मेरी शादी अमरपुरा के श्री राम नरेश सिंह के मंझले पुत्र कुणाल योगेश चन्द्र से तय हुई थी. इस शादी में अगुआ मेरे चचेरे जीजा जी करहारा के श्री बलराज सिंह थे जो कि मेरे पति के मौसेरे भाई भी हैं. मेरी शाद

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श्रधेय श्री नरेश बाबू के शोकसभा (25.10.18) में आए कुछ आगंतुकों के आपके प्रति उद्गार

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 1. आँखों में अश्क लिये ; इधर-उधर ढूंढता हूँ | जब नहीं पाता हूँ ; तो खुद को समझाता हूँ || तेरी यांदों को हृदय में संजोय ; अश्क को घूंट –घूंट पीता हूँ ||”  -अजित कुमार सिन्हा, अमरपुरा   2. “सन 1956

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