मैं अपने पिताजी कि लाडली बेटी थी . जहाँ तक मुझे याद है वो मुझे बताते थे, मेरे जन्म पर वे पुरे गाँव में लड्डू बटवाए थे | चुकि मैं अपने तीनों भईया से छोटी थी इसलिए मैं पुरे परिवार की लाडली बन कर रही |
मेरे बचपन के दिनों में वे “गया” रहते थे | मैं घर पर माँ , माँमाँ (दादी) और छोटे भईया के साथ रहती थी | बीच-बीच में बड़े और मंझले भैया भी आते रहते थे | जब पिताजी ‘गया’ से आते थे, सबसे पहले मैं उनका झोला स्मभालाती थी और उसमे तिलकुट, लाई या कुछ खाने का सामान ढूंढती थी, और मिलते ही ख़ुशी से झूम उठती थी | चूँकि मैं बचपन में शरारती थी, किसी और को खाने के लिए नहीं पूछती थी, खुद ही ज्यादा कहा लेती थी | उसके लिए मैं माँ की डांट खाती थी, पिता जी भी कभी-कभी डांटते थे, किन्तु वे बोलते थे – जितना मन है खा ले | उन्हें मेरे खाने की पसंद पता था – चाहे फल हो या
सब्जी | मुझे और मेरे पिताजी को मकई (भुट्टा) खाना बहुत पसंद था, अक्सर हमलोग मकई को भूनकर खाते थे |
फिर जैसे-जैसे मैं बड़ी होने लगी, पिताजी मुझे संस्कार और सलीके सिखाते हुए सबसे ज्यादा जोर मेरे पढ़ाई पर दिया | चूँकि मैं खेल-कूद में भी होशियार थी, दौड़ में हमेशा प्राइज जीतती थी | पिताजी बताते थे कि यह गुण हमारे पूर्वजों से मिला है | दादाजी, पिताजी भी अच्छे धावक थे | हमारे भैया लोग एवं नई पीढ़ी भतीजा-भतीजी भी अच्छे हैं खेल-कूद में |
पिताजी मेरे तीनों भैया को गया में अपने पास रखकर पढ़ाए, मैं घर पर रह कर पढ़ी, चूँकि जब मैं आठवीं क्लास में थे, पिताजी रिटायर हो गये थे | वे मुझे मैट्रिक बोर्ड के परीक्षा के समय भोर में जगा देते थे, ताकि मैं ध्यान से पढ़ सकूं किन्तु मुझे बहुत नींद आती थी | मैं दिन में पढ़ाई करती थी | मुझे मैट्रिक के परीक्षा के लिए मेरे छोटे भैया भी खूब पढ़ाए | उनके और पूरे परिवार की मदद से मैं फर्स्ट डिवीज़न से पास की | दसवीं में मेरा मैथमेटिक्स अच्छा था किन्तु बारहवीं में मैं बायोलॉजी विषय लिया था क्योंकि पिताजी की इच्छा थी कि मैं डाक्टर बनूँ |
मैं तीन साल तक पटना में रहकर आई.एस.सी के पढ़ाई के साथ-साथ मेडिकल कम्पटीशन की तैयारी की | अंततः मैं पैरा-मेडिकल कोर्स –बैचलर इन ऑडियोलॉजी एंड स्पीच लैंग्वेज पैथोलॉजी (बीएएसएलपी) के प्रवेश परीक्षा पास किया, फिर कलकत्ता के ‘अली जंग ज़वाहिरी नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पीच एंड हियरिंग डिसेबिलिटीज’ में प्रवेश पाया, इस सम्बन्ध में मुझे मेरे मंझले भैया से बहुत सहयोग तथा जानकारी मिली |
मैं वहीं से बैचलर डिग्री किया और उसके बाद कलकत्ता में जॉब करने लगी, उसी बीच मेरी शादी की बात चल रही थी | मैं घर में बताई कि मैं अपनी मर्जी से शादी करना चाहती हूँ | मेरी पसंद के लडके को मेरे घर पसंद करते थे किन्तु एक दामाद के रूप में नहीं | पिताजी मेरे इस व्यवहार से बहुत नाराज हो गए थे, शायद वो मेरे से बहुत ज्यादा प्यार करते थे, इसलिए सोच नहीं पाए होंगे कि मैं उनके मर्जी के खिलाफ जा पाऊँगी | फिर मेरे पिताजी और परिवार के लोग मेरे पसंद के लड़के ‘मनीष जी’ से शादी करवा दी . धीरे-धीरे सब कुछ नार्मल हो गया | मेरे पिताजी का मेरे पति के प्रति व्यवहार भी सामान्य हो गया. वे दोनों राजनीतिक विषय पर हमेशा ही चर्चा करते रहते थे |
फिर मैं अपने विषय में मास्टर डिग्री करने के लिए हैदराबाद चली गयी | उन दो साल के अन्दर माँ-पिताजी घर पर ही रहते थे | भईया लोग आते-जाते रहते थे , इस बीच सबसे ज्यादा करीब में मेरे पति ही रहे |
2016 में जब पिताजी को लकवा मारा, उस समय मेरे पति और कुछ पड़ोसी मिलकर पिताजी को दिखवाने के लिए
हॉस्पिटल ले गए | खुद की इच्छा शक्ति और दवाओं और दुआओं के चलते पिताजी जल्द ही रिकवर कर लिये थे |
जुलाई 2017 में जब मेरा मास्टर डिग्री का फ़ाइनल एग्जाम समाप्त हो गया था, मेरे पति माँ-पिताजी को हवाई जहाज से मेरे पास हैदराबाद लाये थे | माँ-पिताजी को हमने पुरे हैदराबाद शहर घुमाया | चारमिनार, चौमहल, हुसैनसागर करीब-करीब सभी जगह घुमे | फिर हैदराबाद से पढाई ख़त्म करके, मैं कभी अमरपुरा कभी ससुराल रहने लगी. पिताजी चाहते थे कि मैं हमेशा उनकी नजरों के सामने रहूँ | एक-दो दिनों के लिए भी नारायणपुर जाती थी तो पूछते थे कब आओगी या फिर दिन में क्यों नहीं आयी | उन्होंने कभी भी मेरे और मेरे भाइयों में कोई भेद-भाव नहीं किये | अपनी मर्जी से शादी के बाबजूद, गुस्सा त्यागकर, वे मुझे बहुत प्यार करते थे और वे मुझसे बहुत प्यार चाहते थे |
बचपन में मुझे याद है, जब भी मेरा हाथ-पैर दर्द करता था, टटाता था, देर रात तक, जब तक मुझे नींद नहीं
आती, पिताजी मेरे पैर दबाते रहते थे | इधर तक भी वे मुझे हर तरह की सहायता करते रहते थे |
अंततः वे तेरह अक्टूबर 2018 को हमलोगों को अलविदा कह गए | अक्टूबर 2018 की बात है, नवरात्रि आने वाला था , मैं अपने ऑफिस (पिताजी की इच्छा थी मेरे ऑफिस देखने का, किन्तु मैं उन्हें अपना ऑफिस दिखा नहीं पायी) से छुट्टी ली हुई थी | पहली पूजा के दो दिन पहले ही मैं अमरपुरा से अपनी ससुराल नारायणपुर चली गयी थी, ताकि नवरात्र की तैयारी
अच्छी से कर सकूँ | अमावस्या के एक दिन पहले पिताजी को लख पर मिले थे, उनसे सब्जी का झोला लेकर अमरपुरा घर पहुंचा दिए, क्योंकि सब्जी का झोला थोड़ा भारी था | उस शाम भी घर आकर कुछ देर रुके, माँ से मिले , फिर लेट हो रहा था तो हमलोग नारायणपुर जाने के लिए निकल गए, लेकिन जैसे ही हमलोग (मैं और मेरे पति) निकले, पिताजी जी गबड़ा पर मिल गए, वे अभिनेश भैया के मोटरसाइकिल पर बैठ कर लखपर से आ रहे थे | वे बोले ‘ इतना जल्दी जा रही हो’ मैंने बोला था ‘ हाँ पिताजी, फिर आयेंगे’ |
लेकिन जब हम दुबारा आए, उनकी खराब तबियत की खबर सुनकर | नवरात्री का चौथा दिन, चूँकि हमलोग पूजा कर
रहे थे , सोचे थे अब सप्तमी-अष्ठमी तक ही अमरपूरा जायेंगे | ऐसा पहली बार हुआ था जब चार दिनों तक मैं अमरपुरा नहीं आयी थी, मतलब माँ-पिताजी के दर्शन नहीं हुए थे |
13 अक्टूबर 2018
हमारे जिन्दगी का सबसे दुखद दिन था | मेरी दादी भी 13 अप्रैल 2012 को गुजरीं थीं. 13 अक्टूबर को दिन में पिताजी से बात हुई थे, वे बोले थे ‘सब ठीक है, मेरी तबियत ठीक है’; शाम ढलते ही आठ बजे के करीब माँ से बात हुई, वो बोली थी ‘सब ठीक है’ |
अचानक रात नौ- सवा
नौ बजे के बीच मुकेश भईया (पड़ोस) का फोन आता है कि पिताजी की तबियत बहुत ख़राब है गैस से बेचैनी हो रहा है | इतना सुनते ही पता नहीं क्यों बिना सोचे समझे, मैं और मेरे पति मंझले भैया के ऑटो से तुरंत अमरपुरा आ गए | पिताजी की हालत देखते ही उसी ऑटो से मेरे पति, अभिनेश भैया और मुकेश भैया पिताजी को गोपाल अस्पताल, मोड़ पर ले
गए, पिताजी अपने से ऑटो से उतरकर सड़क से हॉस्पिटल में गए | घर पर मैं और माँ पिताजी का इंतजार कर रहे थे | मैं माँ को समझा रही थी कि पिताजी ठीक होकर जल्दी आ जायेंगे | लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था. वो 13 अक्टूबर की काली रात, हमारे पिताजी को हमेशा के लिए लेकर चली गयी, हमलोग रोते – विलखते रह गए |
बस इसी आसमें....,पिताजी को और जीना चाहिए था |