एक साधारण एवं गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद भी मेरे बाबूजी अपनी कार्य-कुशलता एवं योग्यता के कारण लोकप्रिय रहे. उनका बचपन गरीबी एवं कठिनाई भरा था. अपने सरल स्वभाव के चलते वे बड़ी आसानी से लोगों से घुल-मिल जाते थे. उनके प्रति लोगों के अपार स्नेह का कारण उनकी स्पष्टवादिता भी थी. वे लोगों को प्रभावित करने के लिए कभी झूठे आश्वासन
नहीं देते थे. वे शांत और मधुर शब्दों में वास्तविक स्थिति समझा देते थे. उनकी यह सच्चाई सदैव उनकी सहायक रही. वे खेलकूद में भी सदा आगे रहा करते थे. वे सीधे-सादे आदमी थे और आम आदमी से जुड़े विषयों में उनकी गहरी रूचि थी. वे हमलोग को भी हमेशा लोगों से अभिवादन के साथ मिलने के लिए कहते रहते थे.
मैं और भैया बचपन के शुरूआती दिनों में अपनी माँ के साथ अपने नानीघर सेल्हौरी, दुल्हिन बाजार में रहते
थे. वहां नाना, नानी, मामा, मामी, मौसी से भरा पूरा परिवार था. नानीघर का दो मंजिला पक्का मकान था. पहली मंजिल पर बड़ा सा सुन्दर एवं हवादार हॉल था. जिसमें एक बड़ा सा दीवार घड़ी, कई पलंगें, एक सोफ़ा लगे थे. वहाँ हमलोग खेलते रहते थे. पिताजी कभी-कभी गया से सेल्हौरी जाते थे. उस समय के माँ के साथ बिताये पल एवं नानीघर की यादें ज्यादा है. एक बार मैं सेल्हौरी नानीघर में माँ के साथ तैयार होकर घर से निकलकर दालान की ओर जा रहा था. उस दिन बारिश हुई थी तथा तेज हवा बह रही थी. घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही रास्ते में एक गड्ढा मिला. जिसमें पानी भरा हुआ था. हवा
इतनी तेज थी कि मैं हवा के चलते एवं गीली मिटटी के चलते पैर फिसलने से गड्ढा में गिर गया. पूरा ड्रेस गन्दा हो गया. माँ ने मुझे गड्ढे से बाहर निकाली. जब घर में वापस गया तो छोटी मौसी मुझे देखकर जोर जोर से हंसने लगी और बोली, “ सिपाही दत्त चोखा, खा गया धोखा.” माँ एवं मामी भी हंसने लगी थी. मुझे नानीघर में लोग प्यार से सिपाही जी एवं भैया को लोग महतो जी कहकर पुकारते थे.
हमलोग जब अमरपुरा आते थे तो वहां पिताजी गर्मी के छुट्टी एवं अन्य छुट्टियों में आते थे. जब मैं चौथी कक्षा में पहुंचा था तो
मेरा नाम मिडिल स्कूल लख, अमरपुरा में लिखा दिया गया था. पिताजी एवं दादी हमलोग को खेत में कुछ काम करने एवं सीखने के लिए ले जाया करते थे. शायद पिताजी हमें ये एहसास कराना चाहते थे कि खेती-बाड़ी बहुत कठिन है इसलिए पढाई पर ध्यान दो. वे बताते रहते थे कि विद्द्या सबसे बड़ा धन है. दादाजी जब थक गए थे तो पिताजी अक्सर उनकी
सेवा में लगे रहते थे. पिताजी अपने बाबूजी की पहलवानी एवं ईमानदारी की किस्से सुनाते रहते थे. वे हमलोगों को अपने पूर्वजों के कहानी भी सुनाते रहते थे. पिताजी झाड़-फूँक एवं अन्धविश्वास पर विश्वास नहीं करते थे. लेकिन ज्योतिष विद्द्या में रूचि रखते थे. वे एक बार की घटना बताते थे कि जब वे मधुबनी में रहते थे, एक माँ अपने बीमार बच्चा को लेकर पिताजी के पास पहुंचा. और उनसे बच्चे को किसी तरह ठीक करने के लिए आग्रह करने लगी. पिताजी ने ईश्वर का मनन कर बच्चे के ऊपर हाथ फेर दिया. बच्चा जल्द ही ठीक हो गया. पिताजी को भी यह चमत्कार समझ में नहीं आया था.
मैं पिताजी, माँ एवं आमोद के साथ रांची चंद्रशेखर भैया के बहन पूनम दीदी के शादी में गया था. आमोद उस समय करीब दो साल का रहा होगा. जाते समय ट्रेन में कुछ लोग जयकारे लगाते जा रहे थे. आमोद भी पुरे रास्ते जय-जय करते हुए गया था.
पिताजी अपने बच्चों के साथ- साथ कई लोगों को अपनी निगरानी में शिक्षा दी. वे कहा करते थे विद्या ग्रहण करना एक तपस्या है. मैं जनवरी 1988 में पिताजी के साथ सोहैपुर गया. शिक्षा ग्रहण करने के लिए मैं वहां बाबूजी के साथ 1988 से लेकर 1994 तक रहा. मैं साईकिल द्वारा सोहैपुर से गया अपने कॉलेज जाता था. हमलोग सोहैपुर में सामुदायिक भवन में
रहते थे. वह एक पक्का मकान था. बारह बाई आठ फीट के कमरे में मैं पिताजी के साथ रहता था. थोड़ी दूरी पर दुसरे कमरे में एवं उसके बालकनी में खाना बनता था. वहीँ खाना खाते थे. पीछे की तरफ के कमरे में बीरेंद्र बाबू रहते थे.
वहां से हाई स्कूल सोहैपुर करीब आधे किलोमीटर दूरी पर था. सुबह में ही खाना तैयार कर लिया जाता था. सुबह में ही हमलोग खाना खाकर स्कूल चले जाते थे. मैं पहले हरी सब्जी बहुत कम खाता था. बाद में पिताजी के समझाने एवं दबाव पर मैं हरी सब्जी खाना शुरू किया. वे कहा करते थे, “खाओगे बड़े-बड़े कौर तो पाओगे दुनिया में ठौर.” मैं खाना बनाना सीख लिया था. एक बार की बात है मैं शाम में रोटी बना रहा था. तभी कुछ कुत्ते वहां पर आपस में लड़ने लगे. मैं डरकर एवं
घबराकर बेलन ही जमीन पर पटक कर कुत्ता को भगाने की कोशिश करने लगा. कुत्ते तो किसी तरह कुछ देर में भाग गए. लेकिन बेलन का एक साइड का हैंडल टूट गया. शायद मैं दूसरी बार बेलन का हैंडल तोड़ा था. इस बार पिताजी ज्यादा गुस्सा हुए और बोले, “कैसे कुत्ते को भगाते हो, जरा भी समझदारी नहीं है.” मुझे कई महीनों तक एक तरफ टूटे बेलन से रोटी बनाने की सजा मिली.
वहां पर शिक्षा ग्रहण करना आश्रम की तरह श्रम से भरा था. गर्मी के दिनों में हमलोग बोरिंग पर से या किशोर बाबू के घर के पास चापाकल (हैण्ड पम्प) से पीने का पानी लाते थे. स्कूल के पास ही बड़ा सा धोंग्सरी पहाड़ था. बरसात के दिनों में लगता था कि जैसे बादल पहाड़ से टकरा रहा हो. प्रकृति का वह छटा निहारने लायक होता था. हमलोग कभी-कभी पहाड़ पर
झरना में नहाने जाते थे. खाना पकाने के लिए शुरू-शुरू में कोयले का चूल्हा, फिर बाद में किरासन तेल के स्टोव का उपयोग किया जाने लगा था. पिताजी सुबह और शाम पास के जमीन को कुदाल एवं खुरपी से खोदकर खेती और बागवानी करते थे तथा सब्जी उगाते थे. उसमें हमलोग भी कुछ मदद करते थे. पिताजी का संघर्षपूर्ण जीवन ही हमलोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा. पिताजी एवं किशोर बाबू अच्छे दोस्त थे. अक्सर किशोर बाबू शाम में घूमते हुए वहां आ जाते थे. वे भी हमलोग को अपने घर बुलाते रहते थे. पिताजी उनके लड़के आनंद को जो कि मुझसे एक क्लास पीछे था पढ़ाते रहते थे. पिताजी सरयू बाबू
के लड़का विजय कुमार एवं भतीजा संजय कुमार को भी पढ़ाते रहते थे. संजय कुमार बाद में डॉक्टर बने. वे मुझसे एक क्लास आगे थे.
जाड़े की सुबह हमलोग सामुदायिक भवन के छत पर पढाई करते थे. पिताजी मुझे अक्सर गणित बनाने एवं अंग्रेजी
में अनुवाद करने के लिए देते रहते थे. हिंदी एवं अंग्रेजी में पत्र एवं निबंध लिखने को कहते थे. पिताजी सुबह भोर होने से पहले ही या यूँ कहे कि जब उनकी नींद खुलती थी तभी कभी-कभी तो दो-तीन बजे रात में ही पढ़ने के लिए जगा देते थे. लैंप
जलाकर पढ़ना बैठते थे. पढ़ते कम नींद में झुंकते ज्यादा थे. पिताजी बार-बार आँख धोने के लिए कहते रहते थे. पिताजी जब कभी ज्यादा थके होते थे तो अपना पैर दबाने के लिए बोलते थे.
पिताजी को झूठ एवं लापरवाही बरदास्त नहीं होती थी. एक बार मैं बिना बताये दोस्तों के साथ बोधगया घुमने के लिए चला गया. लौटने पर पिताजी बहुत गुस्सा हुए और मुझे कान पकड़कर उठक-बैठक करने के लिए बोला गया. पिताजी हमलोगों को शाम में फुटबॉल एवं कबड्डी खेलने के लिए भेजते थे. करीब हर हफ्ते पिताजी साइकिल द्वारा गया जाते थे, कभी-कभी मुझे भी साइकिल पर बैठाकर गया ले जाते थे. वहां से गया करीब 8 किलोमीटर दूर था.
एक बार की बात है मैं पिताजी के साथ गया से अमरपुरा घर लौट रहा था. हमलोग ट्रेन द्वारा गया से तरेगना (मसौढ़ी) पहुँच गए. हड़ताल की वजह से उस दिन घर तरफ जाने के लिए बस या अन्य सवारी नहीं चल रही थी. पिताजी की जीवटता एवं हिम्मत के बारे में इस बात से पता चलता है कि पिताजी ने पैदल ही घर जाने की ठान ली. बीच-बीच में कुछ विश्राम करते
हुए हमलोग अमरपुरा घर पहुँच गए. लेकिन हमलोग बहुत थक गए थे.
सन 1989 में मैं जब पिताजी के साथ सोहैपुर रहता था. उस समय उनके साथ ट्रेन द्वारा अपने शीला मौसी के यहाँ
सरिया, हजारीबाग रोड गए थे. सरिया से हमलोग मौसाजी के पैतृक गांव लेढ़ासिमर पैदल नदी एवं जंगल के रास्ते गए थे.
मई 1996 में मेरा चयनराष्ट्रीय अस्थि विकलांग संस्थान, कलकत्ता में बैचलर ऑफ़ प्रोस्थेटिक्स &ओर्थोटिक्स कोर्स के लिए हो गया था. मैं नामांकन के लिए पिताजी के साथ कलकत्ता गया था. बाद में मैं उसी इंस्टिट्यूट से मास्टर डिग्री किया. 2006 में मेरी सलाह पर आमोद इंजीनियरिंग कॉलेज में नामांकन के लिए काउन्सेल्लिंग में मेरे साथ भोपाल गया. उसका नामांकन इंदिरा गाँधी राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज, सागर में हो गया. उसी समय आमोद माँ एवं पिताजी को उज्जैन लेकर
आया. हमलोग उज्जैन में सभी जगह घूमें. माँ-पिताजी को अच्छा लगा. 2016 में पिताजी मेरे पास मेवात एवं अप्रैल 2018 में करनाल आये थे.
सादा जीवन, उच्च विचार रखने वाले हमारे बाबूजी का दर्शन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ा था. वे स्वयं परिवार में होनेवाले खर्चों का लेखा-जोखा रखते थे. वे कम खर्च में भी सही प्रकार से जीवन का निर्वाह करते थे. मुझे नहीं लगता वे कभी बैंक या दोस्तों से उधार लिये होंगे. उनका व्यक्तित्व सहज ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था. नित्य व्यायाम एवं उचित खान-पान के कारण उनका स्वास्थ्य सदैव उत्तम रहता था.
13 अक्तूबर 2018 को हृदयाघात के चलते मेरे बाबूजी का देहांत हो गया. अपने बाबूजी, प्रथम गुरु और जीवन आदर्श के देहावसान की पीड़ा ने मेरे साथ बहुतों को भीतर तक झकझोर दिया. जो दृष्टिकोण वे अपने पीछे छोड़ गए, उसके लिए न केवल परिवार वरन पूरी समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा. आज हमारे बाबूजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके
विचारों की महत्ता आज भी कायम है. वे हमारे दिलमें सदैव विराजमान रहेंगे. हम अपने बाबूजी के पद चिन्हों पर चलेंगे, तभी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. मैं सच्चे भाव से उनको श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ |
आप से जुदा होकर आपको याद करते हैं,
फिर से मिलने की खुदा से फरियाद करते
हैं.
हम को सुना छोड़कर, आप नई दुनिया में
चले गए.
हमसब आपके बिना इस दुनिया में तन्हा
रह गए.
क्रंदन के साथ आंसू आ गए नयन में.
जैसे तारा बन गए हो नील गगन में.
यादों के झरोखों से मन बहा जा रहा है.
आपकी दास्तां को जैसे कोई कानों में
कहे जा रहा है.
यादों के अनगिनत लम्हों पर धुल की परत
न चढ़ने देंगे.
बीच-बीच में हम आपकी यादों को कुरेदते
रहेंगे. आप
जहाँ भी रहें आपको याद करते रहेंगे.