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मेरी नजरों में हमारे बाबूजी ------ कुणाल योगेश चन्द्र

26 फरवरी 2022

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 एक साधारण एवं गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद भी मेरे बाबूजी अपनी कार्य-कुशलता एवं योग्यता के कारण लोकप्रिय रहे. उनका बचपन गरीबी एवं कठिनाई भरा था. अपने सरल स्वभाव के चलते वे बड़ी आसानी से लोगों से घुल-मिल जाते थे. उनके प्रति लोगों के अपार स्नेह का कारण उनकी स्पष्टवादिता भी थी. वे लोगों को प्रभावित करने के लिए कभी झूठे आश्वासन
नहीं देते थे. वे शांत और मधुर शब्दों में वास्तविक स्थिति समझा देते थे. उनकी यह सच्चाई सदैव उनकी सहायक रही. वे खेलकूद में भी सदा आगे रहा करते थे. वे सीधे-सादे आदमी थे और आम आदमी से जुड़े विषयों में उनकी गहरी रूचि थी. वे हमलोग को भी हमेशा लोगों से अभिवादन के साथ मिलने के लिए कहते रहते थे. 

मैं और भैया बचपन के शुरूआती दिनों में अपनी माँ के साथ अपने नानीघर सेल्हौरी, दुल्हिन बाजार में रहते
थे. वहां नाना, नानी, मामा, मामी, मौसी से भरा पूरा परिवार था. नानीघर का दो मंजिला पक्का मकान था. पहली मंजिल पर बड़ा सा सुन्दर एवं हवादार हॉल था. जिसमें एक बड़ा सा दीवार घड़ी, कई पलंगें, एक सोफ़ा लगे थे. वहाँ हमलोग खेलते रहते थे. पिताजी कभी-कभी गया से सेल्हौरी जाते थे. उस समय के माँ के साथ बिताये पल एवं नानीघर की यादें ज्यादा है. एक बार मैं सेल्हौरी नानीघर में माँ के साथ तैयार होकर घर से निकलकर दालान की ओर जा रहा था. उस दिन बारिश हुई थी तथा तेज हवा बह रही थी. घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही रास्ते में एक गड्ढा मिला. जिसमें पानी भरा हुआ था. हवा
इतनी तेज थी कि मैं हवा के चलते एवं गीली मिटटी के चलते पैर फिसलने से गड्ढा में गिर गया. पूरा ड्रेस गन्दा हो गया. माँ ने मुझे गड्ढे से बाहर निकाली. जब घर में वापस गया तो छोटी मौसी मुझे देखकर जोर जोर से हंसने लगी और बोली, “ सिपाही दत्त चोखा, खा गया धोखा.” माँ एवं मामी भी हंसने लगी थी. मुझे नानीघर में लोग प्यार से सिपाही जी एवं भैया को लोग महतो जी कहकर पुकारते थे.   

 हमलोग जब अमरपुरा आते थे तो वहां पिताजी गर्मी के छुट्टी एवं अन्य छुट्टियों में आते थे. जब मैं चौथी कक्षा में पहुंचा था तो
मेरा नाम मिडिल स्कूल लख, अमरपुरा में लिखा दिया गया था. पिताजी एवं दादी हमलोग को खेत में कुछ काम करने एवं सीखने के लिए ले जाया करते थे. शायद पिताजी हमें ये एहसास कराना चाहते थे कि खेती-बाड़ी बहुत कठिन है इसलिए पढाई पर ध्यान दो. वे बताते रहते थे कि विद्द्या सबसे बड़ा धन है. दादाजी जब थक गए थे तो पिताजी अक्सर उनकी
सेवा में लगे रहते थे. पिताजी अपने बाबूजी की पहलवानी एवं ईमानदारी की किस्से सुनाते रहते थे. वे हमलोगों को अपने पूर्वजों के कहानी भी सुनाते रहते थे. पिताजी झाड़-फूँक एवं अन्धविश्वास पर विश्वास नहीं करते थे. लेकिन ज्योतिष विद्द्या में रूचि रखते थे. वे एक बार की घटना बताते थे कि जब वे मधुबनी में रहते थे, एक माँ अपने बीमार बच्चा को लेकर पिताजी के पास पहुंचा. और उनसे बच्चे को किसी तरह ठीक करने के लिए आग्रह करने लगी. पिताजी ने ईश्वर का मनन कर बच्चे के ऊपर हाथ फेर दिया. बच्चा जल्द ही ठीक हो गया. पिताजी को भी यह चमत्कार समझ में नहीं आया था.  

मैं पिताजी, माँ एवं आमोद के साथ रांची चंद्रशेखर भैया के बहन पूनम दीदी के शादी में गया था. आमोद उस समय करीब दो साल का रहा होगा. जाते समय ट्रेन में कुछ लोग जयकारे लगाते जा रहे थे. आमोद भी पुरे रास्ते जय-जय करते हुए गया था.  

पिताजी अपने बच्चों के साथ- साथ कई लोगों को अपनी निगरानी में शिक्षा दी. वे कहा करते थे विद्या ग्रहण करना एक तपस्या है. मैं जनवरी 1988 में पिताजी के साथ सोहैपुर गया. शिक्षा ग्रहण करने के लिए मैं वहां बाबूजी के साथ 1988 से लेकर 1994 तक रहा. मैं साईकिल द्वारा सोहैपुर से गया अपने कॉलेज जाता था. हमलोग सोहैपुर में सामुदायिक भवन में
रहते थे. वह एक पक्का मकान था. बारह बाई आठ फीट के कमरे में मैं पिताजी के साथ रहता था. थोड़ी दूरी पर दुसरे कमरे में एवं उसके बालकनी में खाना बनता था. वहीँ खाना खाते थे. पीछे की तरफ के कमरे में बीरेंद्र बाबू रहते थे.  

  वहां से हाई स्कूल सोहैपुर करीब आधे किलोमीटर दूरी पर था. सुबह में ही खाना तैयार कर लिया जाता था. सुबह में ही हमलोग खाना खाकर स्कूल चले जाते थे. मैं पहले हरी सब्जी बहुत कम खाता था. बाद में पिताजी के समझाने एवं दबाव पर मैं हरी सब्जी खाना शुरू किया. वे कहा करते थे, “खाओगे बड़े-बड़े कौर तो पाओगे दुनिया में ठौर.” मैं खाना बनाना सीख लिया था. एक बार की बात है मैं शाम में रोटी बना रहा था. तभी कुछ कुत्ते वहां पर आपस में लड़ने लगे. मैं डरकर एवं
घबराकर बेलन ही जमीन पर पटक कर कुत्ता को भगाने की कोशिश करने लगा. कुत्ते तो किसी तरह कुछ देर में भाग गए. लेकिन बेलन का एक साइड का हैंडल टूट गया. शायद मैं दूसरी बार बेलन का हैंडल तोड़ा था. इस बार पिताजी ज्यादा गुस्सा हुए और बोले, “कैसे कुत्ते को भगाते हो, जरा भी समझदारी नहीं है.” मुझे कई महीनों तक एक तरफ टूटे बेलन से रोटी बनाने की सजा मिली. 

वहां पर शिक्षा ग्रहण करना आश्रम की तरह श्रम से भरा था. गर्मी के दिनों में हमलोग बोरिंग पर से या किशोर बाबू के घर के पास चापाकल (हैण्ड पम्प) से पीने का पानी लाते थे. स्कूल के पास ही बड़ा सा धोंग्सरी पहाड़ था. बरसात के दिनों में लगता था कि जैसे बादल पहाड़ से टकरा रहा हो. प्रकृति का वह छटा निहारने लायक होता था. हमलोग कभी-कभी पहाड़ पर
झरना में नहाने जाते थे. खाना पकाने के लिए शुरू-शुरू में कोयले का चूल्हा, फिर बाद में किरासन तेल के स्टोव का उपयोग किया जाने लगा था. पिताजी सुबह और शाम पास के जमीन को कुदाल एवं खुरपी से खोदकर खेती और बागवानी करते थे तथा सब्जी उगाते थे. उसमें हमलोग भी कुछ मदद करते थे. पिताजी का संघर्षपूर्ण जीवन ही हमलोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा. पिताजी एवं किशोर बाबू अच्छे दोस्त थे. अक्सर किशोर बाबू शाम में घूमते हुए वहां आ जाते थे. वे भी हमलोग को अपने घर बुलाते रहते थे. पिताजी उनके लड़के आनंद को जो कि मुझसे एक क्लास पीछे था पढ़ाते रहते थे. पिताजी सरयू बाबू
के लड़का विजय कुमार एवं भतीजा संजय कुमार को भी पढ़ाते रहते थे. संजय कुमार बाद में डॉक्टर बने. वे मुझसे एक क्लास आगे थे.    

जाड़े की सुबह हमलोग सामुदायिक भवन के छत पर पढाई करते थे. पिताजी मुझे अक्सर गणित बनाने एवं अंग्रेजी
में अनुवाद करने के लिए देते रहते थे. हिंदी एवं अंग्रेजी में पत्र एवं निबंध लिखने को कहते थे. पिताजी सुबह भोर होने से पहले ही या यूँ कहे कि जब उनकी नींद खुलती थी तभी कभी-कभी तो दो-तीन बजे रात में ही पढ़ने के लिए जगा देते थे. लैंप
जलाकर पढ़ना बैठते थे. पढ़ते कम नींद में झुंकते ज्यादा थे. पिताजी बार-बार आँख धोने के लिए कहते रहते थे. पिताजी जब कभी ज्यादा थके होते थे तो अपना पैर दबाने के लिए बोलते थे.  

पिताजी को झूठ एवं  लापरवाही बरदास्त नहीं होती थी. एक बार मैं बिना बताये दोस्तों के साथ बोधगया घुमने के लिए चला गया. लौटने पर पिताजी बहुत गुस्सा हुए और मुझे कान पकड़कर उठक-बैठक करने के लिए बोला गया. पिताजी हमलोगों को शाम में फुटबॉल एवं कबड्डी खेलने के लिए भेजते थे. करीब हर हफ्ते पिताजी साइकिल द्वारा गया जाते थे, कभी-कभी मुझे भी साइकिल पर बैठाकर गया ले जाते थे. वहां से गया करीब 8 किलोमीटर दूर था.  

एक बार की बात है मैं पिताजी के साथ गया से अमरपुरा घर लौट रहा था. हमलोग ट्रेन द्वारा गया से तरेगना (मसौढ़ी) पहुँच गए. हड़ताल की वजह से उस दिन घर तरफ जाने के लिए बस या अन्य सवारी नहीं चल रही थी. पिताजी की जीवटता एवं हिम्मत के बारे में इस बात से पता चलता है कि पिताजी ने पैदल ही घर जाने की ठान ली. बीच-बीच में कुछ विश्राम करते
हुए हमलोग अमरपुरा घर पहुँच गए. लेकिन हमलोग बहुत थक गए थे. 

सन 1989 में मैं जब पिताजी के साथ सोहैपुर रहता था. उस समय उनके साथ ट्रेन द्वारा अपने शीला मौसी के यहाँ
सरिया, हजारीबाग रोड गए थे. सरिया से हमलोग मौसाजी के पैतृक गांव लेढ़ासिमर पैदल नदी एवं जंगल के रास्ते गए थे.
 

मई 1996 में मेरा चयनराष्ट्रीय अस्थि विकलांग संस्थान, कलकत्ता में बैचलर ऑफ़ प्रोस्थेटिक्स &ओर्थोटिक्स कोर्स के लिए हो गया था. मैं नामांकन के लिए पिताजी के साथ कलकत्ता गया था. बाद में मैं उसी इंस्टिट्यूट से मास्टर डिग्री किया. 2006 में मेरी सलाह पर आमोद इंजीनियरिंग कॉलेज में नामांकन के लिए काउन्सेल्लिंग में मेरे साथ भोपाल गया. उसका नामांकन इंदिरा गाँधी राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज, सागर में हो गया. उसी समय आमोद माँ एवं पिताजी को उज्जैन लेकर
आया. हमलोग उज्जैन में सभी जगह घूमें. माँ-पिताजी को अच्छा लगा. 2016 में पिताजी मेरे पास मेवात एवं अप्रैल 2018 में करनाल आये थे. 

सादा जीवन, उच्च विचार रखने वाले हमारे बाबूजी का दर्शन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ा था. वे स्वयं परिवार में होनेवाले खर्चों का लेखा-जोखा रखते थे. वे कम खर्च में भी सही प्रकार से जीवन का निर्वाह करते थे. मुझे नहीं लगता वे कभी बैंक या दोस्तों से उधार लिये होंगे. उनका व्यक्तित्व सहज ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था. नित्य व्यायाम एवं उचित खान-पान के कारण उनका स्वास्थ्य सदैव उत्तम रहता था.  

13 अक्तूबर 2018 को हृदयाघात के चलते मेरे बाबूजी का देहांत हो गया. अपने बाबूजी, प्रथम गुरु और जीवन आदर्श के देहावसान की पीड़ा ने मेरे साथ बहुतों को भीतर तक झकझोर दिया. जो दृष्टिकोण वे अपने पीछे छोड़ गए, उसके लिए न केवल परिवार वरन पूरी समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा. आज हमारे बाबूजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके
विचारों की महत्ता आज भी कायम है. वे हमारे दिलमें सदैव विराजमान रहेंगे. हम अपने बाबूजी के पद चिन्हों पर चलेंगे, तभी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. मैं सच्चे भाव से उनको श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ |  

आप से जुदा होकर आपको याद करते हैं, 

फिर से मिलने की खुदा से फरियाद करते
हैं. 

हम को सुना छोड़कर, आप नई दुनिया में
चले गए. 

हमसब आपके बिना इस दुनिया में तन्हा
रह गए. 

क्रंदन के साथ आंसू आ गए नयन में. 

जैसे तारा बन गए हो नील गगन में. 

यादों के झरोखों से मन बहा जा रहा है. 

आपकी दास्तां को जैसे कोई कानों में
कहे जा रहा है. 

यादों के अनगिनत लम्हों पर धुल की परत
न चढ़ने देंगे. 

बीच-बीच में हम आपकी यादों को कुरेदते
रहेंगे. आप
जहाँ भी रहें आपको याद करते रहेंगे. 

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रचनाएँ
कर्मयोगी नरेश बाबू
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जिनका जन्म हुआ है उनकी मृत्यु भी निश्चित है | जीवन-मृत्यु प्रकृति का शाश्वत सत्य है | जिस तरह बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता, उसीतरह जो दिवंगत हो जाते हैं, कभी नहीं लौटते | मात्र उनकी यादें हमारे मानस पर बरबस आती रहती है | उनकी क्रियाकलापें, उनकी बातें, उनकी स्मृतियाँ हमेशा ही हमारे अंतर्मन में आती रहती है | फिर वही स्मृतियाँ हम अपने आने वाली संतानों को बताते हैं, यह प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है, जो स्मृतियाँ उपयोगी होती है अनेक पीढ़ियों तक चलती है, जबकि कुछ यादें एक ही पीढ़ी में समाप्त हो जाती है | मेरी यह किताब, मेरे बाबूजी और पूर्वजों की स्मृतियों को सहेजने की एक छोटी सी कोशिश है | बाबूजी का पूरे परिवार को आगे बढ़ाने में महानतम योगदान रहा है. बाबूजी ने हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके परिणामस्वरूप हम सभी ने एक अच्छा मुकाम हासिल किया| आज हम जो कुछ भी हैं, यह बाबूजी के दूरदर्शिता के बिना संभव नहीं था | हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान कर उन्होंने एक ऐसी परम्परा की नींव रखी है जो आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम करेगी | उन्होंने हमें पढ़ा-लिखाकर ऐसे अवसर प्रदान किये जो उन्हें स्वयं के जीवन में कभी नहीं मिले थे | बाबूजी के शिक्षा के प्रति अथाह लगाव के कारण ही मैं आज इस किताब को लिखने में अपने को सक्षम पा रहा हूँ | बड़े लोगों की जीवनी तो आप सभी जगह पा सकते हैं किन्तु साधारण आदमी, सिर्फ कहानी का पात्र बनता है | मैंने बाबूजी के इस ‘जीवनी’ के माध्यम से एक साधारण आदमी को मुख्य किरदार के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश किया हूँ | मेरे बाबूजी अकसर मुझे अपने पूर्वजों के बारे में बताते रहते थे, इस किताब में बाबूजी से प्राप्त जानकारियों को समेकित किया गया है | बाबूजी के जीवनी लिखने के लिए मैंने अपनी माँ, भाइयों के अलावा बाबूजी के दोस्त श्री प्रेमचंद, श्री रामानंद वर्मा, श्री शिवसमन तिवारी, श्री गजाधर और अनेक सम्बन्धियों से जानकारी प्राप्त किया | इस जीवनी को लिखने में मुझे अपने भाइयों श्री कुणाल (प्रमोद) और श्री अमरेश (आमोद), बहन श्रीमती चंद्रमाला से भी अपेक्षित सहयोग मिला | इस पुस्तक को लिखने में मुझे अपने मित्र श्री राजीव सारस्वत, दिल्ली के पिताजी के द्वारा लिखित “स्मृतियाँ” से भी अपेक्षित मार्गदर्शन मिला | बाबूजी का यह जीवनी अनेक चैप्टर में विभाजित है | इसमें कुछ चैप्टर पूर्वजो से जुड़ी घटनाओं का वर्णन है | इसमें बाबूजी के जन्म से लेकर मृत्यु तक घटनाओं का वर्णन किया गया है | इस किताब में मेरे छोटे भाइयों, बहन और मंझले भाई की पत्नी (भभू) का बाबूजी के प्रति विचार को भी जगह दी गयी है | परिवार के जिन सदस्यों ने अपने संस्मरण लिखे हैं, उनसे इस प्रस्तुति को पूर्णता प्राप्त हुई है, जिससे इसकी पठनीयता बढ़ी है | किताब के अंत में, बाबूजी के दोस्तों और शुभचिंतकों के भाषण का कुछ अंश दिया गया है, जो उन्होंने बाबूजी के शोकसभा के दिन दिया था | इस किताब में बाबूजी के कुछ तस्वीरें भी दी गयी है | उनके कुछ दोस्तों और सम्बन्धियों के भी यादगार तस्वीरों को इस पुस्तक में जगह दी गयी है | इस पुस्तक को आपके हाथ में पहुँचाने तक उपरोक्त महानुभावों के अलावा मेरे मित्र श्री अभय कुमार, दिल्ली एवं श्री शिव शंकर प्रसाद, निसरपुरा, पटना ने प्रूफरिडिंग के अतिरिक्त शब्द एवं वाक्य विन्यास को समुन्नत किया है | सुरेश भैया, गया ने इस पुस्तक की प्रिंटिंग में सहयोग किया, जबकि मनीष जी (बहनोई) का तस्वीर चुनने और सही जगह रखने में अपेक्षित सहयोग मिला | संकलन के विभिन्न स्तरों पर उक्त सदस्यों के सृजनात्मक सहयोग, श्रम एवं उत्साहपूर्ण योगदान से नरेश बाबू की जीवनी “कर्मयोगी नरेश बाबू” अपने वर्तमान स्वरूप आ सका है , इसका श्रेय इन्हीं सदस्यों को जाता है | आभार प्रकट करना उनके निश्छल स्नेह, आदर और प्रयास को कम करना होगा | भगवान से प्रार्थना है कि उनका जीवन मंगलमय हो | मुझे विश्वास है कि यह किताब से आने वाली पीढ़ी पूर्वजों के बारे में जान सकेगी | इससे उन्हें अपने कर्मों को सुविचारित रूप से पूर्ण करने में सहयोग मिलेगा | इस संस्मरणों को लिखने में, प्रस्तुतिकरण में, यथासंभव, मैं सही और शुद्ध लिखने की कोशिश किया हूँ, फिर भी कुछ त्रुटी रह गयी हो, तो मुझे क्षमा करें | और इस पुस्तक से जो कुछ भी ग्राह्य है, उसे पूर्वजों के आशीर्वाद समझकर अवश्य ग्रहण करें |
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पितृ-स्तुति

26 फरवरी 2022
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ॐ नमःपित्रे जन्मदात्रे सर्व देव मयाय च | सुखदायप्रसन्नाय सुप्रिताय महात्मने ||1|| सर्वयज्ञ स्वरूपाय स्वर्गाय परमेष्ठिने | सर्वतिर्थावलोकाय करुणा सागराय च ||2|| नमःसदा शुतोषाय शिव रूपाय ते नमः | स

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वर्तमान अमरपुरा

26 फरवरी 2022
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  बिहार की राजधानी पटना के फुलवारी शरीफ़ से करीब 10 किलोमीटर दक्षिण नौबतपुर थाना में अमरपुरा गांव बसा है इसके दक्षिण तरफ नहर है और उत्तर तरफ नौबतपुर प्रखंड कार्यालय और मोहनिपोखर गाँव है पूर्व तरफ आरोपु

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अमरपुरा और इतिहास

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  जब अंग्रेजों का शासन जोरों पर था और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी भारत को स्वतंत्र कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे. अंग्रेज एक तरफ द्वितीय विश्व युद्ध में फंसे थे तो दूसरी तरफ भारतीय स्वतं

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पांडे जी

26 फरवरी 2022
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 बचपन में नरेश बाबू का धार्मिक पूजा अनुष्ठान में बड़ी रूचि थी, वे अनंत पूजा, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी इत्यादि त्योहारों में उपवास भी रखते थे और पूरी भक्ति भावना से पूजा अर्चना करते। इसके अलावा सरस्वती पूजा

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बाबू जी एवं माँ

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 आपके पिता श्रधेय  श्री राम उग्रह सिंह बहुत ही उग्र स्वाभाव के व्यक्ति थे। वे करीब छह फुट लम्बा और रंग गेहुआ था। वे शारीरिक रूप से काफी मजबूत और काफी ताकतवर व्यक्ति थे। वे तीन लोग से उठ सकने वाले बोझो

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व्यवसाय

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 भारत एक कृषि प्रधान देश है, आपके घर का भी मुख्य व्यवसाय कृषि ही था। किन्तु जब आपके घर का मालिकाना हक़ पढ़े लिखे होने के कारण श्रधेय श्री शीतल प्रसाद को दे दिए गए, तो उन्होंने अन्य व्यवसाय को भी बढ़ावा द

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आपकी शादी

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 अमरपुरा गाँव में बाल विवाह नहीं के बराबर होता था, स्त्रियों को भी शिक्षा प्रदान किया जाता था। स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव या छुआछूत जैसी बुराईयों से यह गाँव दूर था। मास्टर  श्री घनश्याम इसके उदाहरण थे

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जगदेव बाबू और आप

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 जगदेव बाबू 1968 में बिहार सरकार में मंत्री बने, उसके बाद उनकी पार्टी शोषित समाज दल का प्रसार अमरपुरा में भी बढ़ा। आप भी उनके विचारों और सिद्धान्तों से प्रभावित थे। आपके साथ  श्री रजनधारी सिंह,  श्री ओ

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गया प्रवास

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 1969 में खादी ग्रामोद्योग मधुबनी में सहायक के रूप में कार्य किये फिर 1972 में बिहार कॉपरेटिव फेडरेशन में कार्यकर्ता के लिए ट्रेनिंग लिए और कार्य शुरू किये । 1976 में लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय सो

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शिक्षक की भूमिका में

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 ऐसा कहा जाये कि आपके अंदर बचपन से ही शिक्षक का गुण था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आप अपने छात्र जीवन से ही अपने दोस्तों को पढ़ाते रहते थे. आप अपने साले श्रधेय श्री शम्भू प्रसाद को भी पढ़ाया. वे बताते

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स्कूल, आप और परिवार

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 आपने स्कूल को अपना लिया और स्कूल ने आपको। शुरू में आप स्कूल से 1 किमी दूर बने सोहैपुर कम्युनिटी हॉल में रहे फिर बाद में स्कूल के हॉस्टल में रहने लगे। आप अपने अमरपुरा के संस्कार और व्यवहार सोहैपुर गया

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अमरपुरा के उमस

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 मानसून की उमस को याद करते हुए, श्रधेय श्रीमती सुमित्रा देवी बताती हैं कि सावन की दूसरी सोमवारी का उमस भरा दिन था, रात में भी बहुत गर्मी थी न हवा चल रही थी न बारिश ही हो रही थी। रात में खाना खाने के ब

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शिक्षक की ईमानदारी

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 आप अमरपुरा में नाटक मंचन में सहयोग अवश्य करते थे. आप खुद कोई पात्र नहीं बनते थे किन्तु अन्य कार्य जैसे नाटक चयन, चंदा मांगने एवं देने में सहयोग करते थे. सर्वश्री परमेश्वर नारायण, भूपेंद्र सिंह, विजय

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आपके पिताजी का इंतकाल

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 1983-84 आते-आते आपके पिताजी श्रधेय श्री राम उग्रह सिंह काफ़ी थक चुके थे. इसी बीच घर में बंटवारा उन्हें और बुड्ढा बना दिया था. और इसी बीच आपकी छोटी चाची श्रद्धेया श्रीमती महेश्वरी देवी की अचानक मृत्यु

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गया में गृह-निर्माण

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 1991 में गया के लखीबाग, मानपुर में आपने जमीन खरीद ली थी. आपके साथ-साथ सोहैपुर हाई स्कूल के अनेक शिक्षक जैसे श्रधेय  श्री सहजा बाबू, श्रधेय  श्री विरेन्द्र बाबू, श्री विजय बाबू, श्री रामभजू बाबू इत्या

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सेवा-निवृति

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 1998 तकआपके बड़े बेटे चंद्रगुत(विनोद) ने साइंस में स्नातक के बाद सिविल इंजीनियरिंग में दुमका पोलिटेक्निक से डिप्लोमा कर लिया. जबकि आपका मंझला बेटा कुणाल (प्रमोद) ने 2000 में कलकत्ता विश्वविध्यालय से प

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घर-वापसी

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 हाँ ! घर-वापसी ही , क्योंकि श्रद्धेय नरेश बाबू जब से सोहैपुर , गया के लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय में ज्वाइन किया था , स्कूल के आस-पास अपने सहशिक्षकों के साथ रहते थे , खुद खाना बनाना और खुद ही अपन

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माताजी और सेवा

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 2010 साल का आश्विन महीना था, थोड़ी-थोड़ी ठंढ हो रही थी, लेकिन बूढ़ी हड्डी में ठंढ कुछ ज्यादा ही लगती है । आपकी माताजी श्रद्धेय मुंगेश्वरी देवी 93 वर्ष की हो चुकीं थीं । उस दिन तेज हवा बह रही थी, जिससे आ

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लकवा

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 जब आपकी बेटी की भी पारामेडिकल के कंपेटिसन में सेलेक्सन हो गया और उसे स्पीच थेरेपी में ग्रेजुएशन में एड्मिशन के लिए आया तो आप बहुत खुश हुए थे, उस समय आपका मंझला लड़का उसी कालेज के कैम्पस में नेशनल इं

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हैदराबाद यात्रा

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 लकवा से उबरने के बाद आप पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे । या यों कहें कि आप पहले से ज्यादा स्वस्थ हो गए थे । अंतर यही हुआ था कि अब आपके साथ दवा की एक पोटली साथ हो गया । लकवा मारने से करीब एक साल पहले 2015

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बाबूजी का दिल्ली और करनाल भ्रमण

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 जब आपका पोते इशांक का फुटबॉल खेलते समय 24 मार्च 2018 को हाथ टूट गया तो आपलोग बहुत परेशान हुए. आप उससे मिलने के लिए उतावले हो रहे थे. उस समय आपके मंझले लड़के प्रमोद अपने परिवार के साथ घर आया हुआ था. आप

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अंतिम भ्रमण

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 ऐसा लगता है आपके पास समय की कमी थी. आपको इसका अहसास भी हो गया था. तभी तो आप अपनी जान पहचान के लोगों से  जल्दी-जल्दी मिल लेना चाह रहे थे. जब आपसे मिलने आपके बड़ी साली श्रीमती सोना देवी, बाजितपुर की पुत

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गुरूजी चले गये

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 गुरूजी चले गए?  बाबूजी चले गए?  पिताजी चले गए.  दादाजी चले गए. नरेश बाबू चले गए.  यही बातें अमरपुरा गांव में चल रही थी 13 ओक्टुबर 2018 को रात 10 बजे से. फोन पर भी यही बातें हो रही थी. सभी लोगों

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अंतिम यात्रा

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 इस समय रात के करीब पौने दस बजे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. घर पर आपकी पत्नी और बेटी आपके सकुशल लौटने की भगवान से प्रार्थना कर रहे थे. किन्तु जैसे ही आपका निष्प्राण शरीर पहुंचा, घर पूरा अशांत हो गया. आप

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मेरी नजरों में हमारे बाबूजी ------ कुणाल योगेश चन्द्र

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 एक साधारण एवं गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद भी मेरे बाबूजी अपनी कार्य-कुशलता एवं योग्यता के कारण लोकप्रिय रहे. उनका बचपन गरीबी एवं कठिनाई भरा था. अपने सरल स्वभाव के चलते वे बड़ी आसानी से लोगों से घ

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हमारे पिताजी और मेरी स्मृतियाँ -अमरेश चन्द्र

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 मेरा बचपन अधिकांशतः अमरपुरा में बीता है इस कारण प्रथम 10 वर्ष तक मैं पिताजी के अनुशासन और स्नेह से प्रायः वंचित रहा. परन्तु मेरे जीवन पर पिताजी का गहरा प्रभाव रहा है. पिताजी की बहुत सी बातें हैं जो

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मैं और मेरे पिताजी - चंद्रमाला शौर्य

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 मैं अपने पिताजी कि लाडली बेटी थी . जहाँ तक मुझे याद है वो मुझे बताते थे, मेरे जन्म पर वे पुरे गाँव में लड्डू बटवाए थे | चुकि मैं अपने तीनों भईया से छोटी थी इसलिए मैं पुरे परिवार की लाडली बन कर रही | 

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मेरे ससुर जी और मैं – कुमारी सुषमा

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 मेरी शादी अमरपुरा के श्री राम नरेश सिंह के मंझले पुत्र कुणाल योगेश चन्द्र से तय हुई थी. इस शादी में अगुआ मेरे चचेरे जीजा जी करहारा के श्री बलराज सिंह थे जो कि मेरे पति के मौसेरे भाई भी हैं. मेरी शाद

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श्रधेय श्री नरेश बाबू के शोकसभा (25.10.18) में आए कुछ आगंतुकों के आपके प्रति उद्गार

26 फरवरी 2022
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 1. आँखों में अश्क लिये ; इधर-उधर ढूंढता हूँ | जब नहीं पाता हूँ ; तो खुद को समझाता हूँ || तेरी यांदों को हृदय में संजोय ; अश्क को घूंट –घूंट पीता हूँ ||”  -अजित कुमार सिन्हा, अमरपुरा   2. “सन 1956

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