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माताजी और सेवा

26 फरवरी 2022

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 2010 साल का आश्विन महीना था, थोड़ी-थोड़ी ठंढ हो रही थी, लेकिन बूढ़ी हड्डी में ठंढ कुछ ज्यादा ही लगती है । आपकी माताजी श्रद्धेय मुंगेश्वरी देवी 93 वर्ष की हो चुकीं थीं । उस दिन तेज हवा बह रही थी, जिससे आपकी माताजी को ठंड भी लग
रही थी, उन्हें आज बुखार भी था । प्रतिदिन की तरह आज भी आपकी माताजी रात में कुएं के बगल वाले कमरे में सो रहीं थीं, उसी कमरे में दूसरे बेड पर आपकी पत्नी श्रद्धेय श्रीमति सुमित्रा देवी भी सो रही थीं । सास-बहू में बहुत सामजस्य था, दोनों एक-दूसरे का बहुत ख्याल रखते थे । रात में आपकी माताजी को पेशाब का अनुभव हुआ, भोर का समय था, आपकी माताजी अपनी बहू को आवाज लगायी , किन्तु वो शायद गाढ़ी नींद की वजह से जाग नहीं पायीं । इसी बीच उन्होने खुद ही उठने का प्रयास किया, दो कदम दरवाजे से बाहर आते ही वो गिर गयी, वो बहुत तेज आवाज के साथ वो कराहीं , बाप रे बाप....! उन्हें असहनीय दर्द था । उनकी बहू आवाज सुनते ही उठकर उन्हें किसी तरह बैठायी, फिर तुरंत ही उनका प्यारा पोता ‘आमोद’ भी जागकर भागते हुए आया । पहले तो लगा पैर की हड्डी कमर के पास चलहक गया है , दो दिनों तक तो देशी इलाज किया जाता रहा किन्तु कोई आराम नहीं मिल रहा था, ऐसा लग रहा था कि उनका कूल्हा टूट चुका है ।  

इस बीच आपका बड़ा लड़का ‘विनोद’ भी आ चुका था, फिर उन्हें पटना हड्डी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के पास ले जाया गया, डॉक्टर ने एक्स-रे के बाद बता दिया कि आपकी माताजी का कूल्हा टूट चुका है और इसका एक मात्र इलाज़ कूल्हा बदलना है । किन्तु इतनी अधिक उम्र में कूल्हा ट्रांसप्लांट का सफल होने की गारंटी नहीं था । आपलोग ने उन्हें वापस घर ले आए । आपके मँझले लड़का 'प्रमोद' ने भी अपने पढ़ाई प्रोस्थेटिक और ओरेस्थेटिक का पूरा उपयोग किया ताकि वह अपनी दादी को अधिकतम आराम दिला सके ।किन्तु इस उम्र मे हड्डी न जुटना था न जुड़ा । आप उन्हें घर पर रख कर सेवा करने लगे
। आपका पूर्ण सहयोग आपके छोटे लड़के 'आमोद' कर रहा था । दिन में वह एम टेक की पढ़ाई के लिए बी आई टी पटना जाता और सुबह -शाम और रात में अपनी दादी की देखभाल करता । आप भी अपनी माँ को आराम पहुंचाने के लिए कभी डा. बिटेश्वर महतो, लखपर से होम्योपैथिक दवा लाते, तो कभी खुद ही किताब से पढ़कर उन्हें होम्योपैथिक दवा देते रहते ।  

कभी कभार आपकी माताजी का पेट खराब रहता , तो वे शौचालय कुर्सी पर भी नहीं बैठ पातीं और कपड़े में ही टट्टी हो जाता था । आप दोनों पति-पत्नी मिलकर उनकी कपड़ा बदलवाते । फिर आप उनके कपड़े को अच्छी तरह रगड़ -रगड़ कर धोते, ताकि कोई भी गंदगी न रह जाये। आपके, आपकी पत्नी और आपके छोटे लड़के 'आमोद' के बेहतर सेवा के कारण ही आपकी माताजी कूल्हे टूटने के बाद भी दो साल से ज्यादा जीवित रहीं । आपके परिवार के सेवा भाव को देखकर आस-पास के लोग भी दंग रह जाते ।  

12 अप्रैल 2012 बृहष्पतिवार की रात में आपकी माताजी को तकलीफ बहुत बढ़ गया था, डा. बिन्दु कुमार को, लखपर से बुलाया गया, वे आपकी माताजी को दवा दिया, पानी भी चढ़ाया गया, किन्तु सुबह होते- होते वे चीर निंद्रा में सो गयी। सुबह-सुबह आपके मँझले लड़के अपनी पत्नी और बच्चे के साथ आ गए थे, दोपहर तक आपकी प्यारी बेटी ‘चंद्रमाला’ भी घर पहुँच चुकी थी । ‘राम नाम सत्य है’ के उद्घोष के साथ आपकी माँ की अश्रुपूर्ण विदाई दी गयी, करींब 60-70 गाँव के लोग एक बस द्वारा आपकी माँ की अंतिम यात्रा में  शामिल होने के लिए गया गए थे । आपने अपनी माँ का अंतिम संस्कार गया के फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर के पास किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि गया का विष्णुपद मंदिर बहुत पवित्र स्थान है । वे हमेशा ही गया को गयाजी कहती थीं | आपकी माताजी के दाह-संस्कार में आपके शिष्य श्री सुरेश प्रसाद ने आपका भरपुर सहयोग किया । गया में दाह-संस्कार के वजह से गया के आपके ज़्यादातर दोस्त शामिल हुए ।  

आपके बड़े बेटे ‘विनोद’ अपनी दादी को याद करते हुए बताते हैं कि वो सब्जी बहुत ही स्वादिष्ट बनाती थीं, तीखा होता था किन्तु सभी को पसंद आता था । फिर आगे बताते हैं कि ठंड के मौसम में बचपन में दादी इनका मुंह जबर्दस्ती साफ करतीं थीं, उनके हाथ के गोबर का दुर्गंध इनके नाक में समा जाती थी। वे प्रतिदिन अपने बैल-भैंस का गोबर साफ करतीं थीं और फिर गोबर के गोईठा दीवार में थापती थीं, जिससे उनके हाथ से गोबर का दुर्गंध आता था । इसीतरह एक बार बालक विनोद बिना कुछ खाये देर तक काँच की गोली पक्काथान पर खेलता रहा, आपकी माताजी ढूंढते हुए उसे खेलते हुए पकड़ ली, फिर वहाँ से झापड़-तबराक मारते हुए, घर ले आयीं। आपकी माताजी प्यारीभी थी, तो सख़्त भी थीं।  

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रचनाएँ
कर्मयोगी नरेश बाबू
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जिनका जन्म हुआ है उनकी मृत्यु भी निश्चित है | जीवन-मृत्यु प्रकृति का शाश्वत सत्य है | जिस तरह बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता, उसीतरह जो दिवंगत हो जाते हैं, कभी नहीं लौटते | मात्र उनकी यादें हमारे मानस पर बरबस आती रहती है | उनकी क्रियाकलापें, उनकी बातें, उनकी स्मृतियाँ हमेशा ही हमारे अंतर्मन में आती रहती है | फिर वही स्मृतियाँ हम अपने आने वाली संतानों को बताते हैं, यह प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है, जो स्मृतियाँ उपयोगी होती है अनेक पीढ़ियों तक चलती है, जबकि कुछ यादें एक ही पीढ़ी में समाप्त हो जाती है | मेरी यह किताब, मेरे बाबूजी और पूर्वजों की स्मृतियों को सहेजने की एक छोटी सी कोशिश है | बाबूजी का पूरे परिवार को आगे बढ़ाने में महानतम योगदान रहा है. बाबूजी ने हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके परिणामस्वरूप हम सभी ने एक अच्छा मुकाम हासिल किया| आज हम जो कुछ भी हैं, यह बाबूजी के दूरदर्शिता के बिना संभव नहीं था | हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान कर उन्होंने एक ऐसी परम्परा की नींव रखी है जो आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम करेगी | उन्होंने हमें पढ़ा-लिखाकर ऐसे अवसर प्रदान किये जो उन्हें स्वयं के जीवन में कभी नहीं मिले थे | बाबूजी के शिक्षा के प्रति अथाह लगाव के कारण ही मैं आज इस किताब को लिखने में अपने को सक्षम पा रहा हूँ | बड़े लोगों की जीवनी तो आप सभी जगह पा सकते हैं किन्तु साधारण आदमी, सिर्फ कहानी का पात्र बनता है | मैंने बाबूजी के इस ‘जीवनी’ के माध्यम से एक साधारण आदमी को मुख्य किरदार के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश किया हूँ | मेरे बाबूजी अकसर मुझे अपने पूर्वजों के बारे में बताते रहते थे, इस किताब में बाबूजी से प्राप्त जानकारियों को समेकित किया गया है | बाबूजी के जीवनी लिखने के लिए मैंने अपनी माँ, भाइयों के अलावा बाबूजी के दोस्त श्री प्रेमचंद, श्री रामानंद वर्मा, श्री शिवसमन तिवारी, श्री गजाधर और अनेक सम्बन्धियों से जानकारी प्राप्त किया | इस जीवनी को लिखने में मुझे अपने भाइयों श्री कुणाल (प्रमोद) और श्री अमरेश (आमोद), बहन श्रीमती चंद्रमाला से भी अपेक्षित सहयोग मिला | इस पुस्तक को लिखने में मुझे अपने मित्र श्री राजीव सारस्वत, दिल्ली के पिताजी के द्वारा लिखित “स्मृतियाँ” से भी अपेक्षित मार्गदर्शन मिला | बाबूजी का यह जीवनी अनेक चैप्टर में विभाजित है | इसमें कुछ चैप्टर पूर्वजो से जुड़ी घटनाओं का वर्णन है | इसमें बाबूजी के जन्म से लेकर मृत्यु तक घटनाओं का वर्णन किया गया है | इस किताब में मेरे छोटे भाइयों, बहन और मंझले भाई की पत्नी (भभू) का बाबूजी के प्रति विचार को भी जगह दी गयी है | परिवार के जिन सदस्यों ने अपने संस्मरण लिखे हैं, उनसे इस प्रस्तुति को पूर्णता प्राप्त हुई है, जिससे इसकी पठनीयता बढ़ी है | किताब के अंत में, बाबूजी के दोस्तों और शुभचिंतकों के भाषण का कुछ अंश दिया गया है, जो उन्होंने बाबूजी के शोकसभा के दिन दिया था | इस किताब में बाबूजी के कुछ तस्वीरें भी दी गयी है | उनके कुछ दोस्तों और सम्बन्धियों के भी यादगार तस्वीरों को इस पुस्तक में जगह दी गयी है | इस पुस्तक को आपके हाथ में पहुँचाने तक उपरोक्त महानुभावों के अलावा मेरे मित्र श्री अभय कुमार, दिल्ली एवं श्री शिव शंकर प्रसाद, निसरपुरा, पटना ने प्रूफरिडिंग के अतिरिक्त शब्द एवं वाक्य विन्यास को समुन्नत किया है | सुरेश भैया, गया ने इस पुस्तक की प्रिंटिंग में सहयोग किया, जबकि मनीष जी (बहनोई) का तस्वीर चुनने और सही जगह रखने में अपेक्षित सहयोग मिला | संकलन के विभिन्न स्तरों पर उक्त सदस्यों के सृजनात्मक सहयोग, श्रम एवं उत्साहपूर्ण योगदान से नरेश बाबू की जीवनी “कर्मयोगी नरेश बाबू” अपने वर्तमान स्वरूप आ सका है , इसका श्रेय इन्हीं सदस्यों को जाता है | आभार प्रकट करना उनके निश्छल स्नेह, आदर और प्रयास को कम करना होगा | भगवान से प्रार्थना है कि उनका जीवन मंगलमय हो | मुझे विश्वास है कि यह किताब से आने वाली पीढ़ी पूर्वजों के बारे में जान सकेगी | इससे उन्हें अपने कर्मों को सुविचारित रूप से पूर्ण करने में सहयोग मिलेगा | इस संस्मरणों को लिखने में, प्रस्तुतिकरण में, यथासंभव, मैं सही और शुद्ध लिखने की कोशिश किया हूँ, फिर भी कुछ त्रुटी रह गयी हो, तो मुझे क्षमा करें | और इस पुस्तक से जो कुछ भी ग्राह्य है, उसे पूर्वजों के आशीर्वाद समझकर अवश्य ग्रहण करें |
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पितृ-स्तुति

26 फरवरी 2022
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ॐ नमःपित्रे जन्मदात्रे सर्व देव मयाय च | सुखदायप्रसन्नाय सुप्रिताय महात्मने ||1|| सर्वयज्ञ स्वरूपाय स्वर्गाय परमेष्ठिने | सर्वतिर्थावलोकाय करुणा सागराय च ||2|| नमःसदा शुतोषाय शिव रूपाय ते नमः | स

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वर्तमान अमरपुरा

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  बिहार की राजधानी पटना के फुलवारी शरीफ़ से करीब 10 किलोमीटर दक्षिण नौबतपुर थाना में अमरपुरा गांव बसा है इसके दक्षिण तरफ नहर है और उत्तर तरफ नौबतपुर प्रखंड कार्यालय और मोहनिपोखर गाँव है पूर्व तरफ आरोपु

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अमरपुरा और इतिहास

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  जब अंग्रेजों का शासन जोरों पर था और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी भारत को स्वतंत्र कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे. अंग्रेज एक तरफ द्वितीय विश्व युद्ध में फंसे थे तो दूसरी तरफ भारतीय स्वतं

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पांडे जी

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 बचपन में नरेश बाबू का धार्मिक पूजा अनुष्ठान में बड़ी रूचि थी, वे अनंत पूजा, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी इत्यादि त्योहारों में उपवास भी रखते थे और पूरी भक्ति भावना से पूजा अर्चना करते। इसके अलावा सरस्वती पूजा

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बाबू जी एवं माँ

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 आपके पिता श्रधेय  श्री राम उग्रह सिंह बहुत ही उग्र स्वाभाव के व्यक्ति थे। वे करीब छह फुट लम्बा और रंग गेहुआ था। वे शारीरिक रूप से काफी मजबूत और काफी ताकतवर व्यक्ति थे। वे तीन लोग से उठ सकने वाले बोझो

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व्यवसाय

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 भारत एक कृषि प्रधान देश है, आपके घर का भी मुख्य व्यवसाय कृषि ही था। किन्तु जब आपके घर का मालिकाना हक़ पढ़े लिखे होने के कारण श्रधेय श्री शीतल प्रसाद को दे दिए गए, तो उन्होंने अन्य व्यवसाय को भी बढ़ावा द

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आपकी शादी

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 अमरपुरा गाँव में बाल विवाह नहीं के बराबर होता था, स्त्रियों को भी शिक्षा प्रदान किया जाता था। स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव या छुआछूत जैसी बुराईयों से यह गाँव दूर था। मास्टर  श्री घनश्याम इसके उदाहरण थे

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जगदेव बाबू और आप

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 जगदेव बाबू 1968 में बिहार सरकार में मंत्री बने, उसके बाद उनकी पार्टी शोषित समाज दल का प्रसार अमरपुरा में भी बढ़ा। आप भी उनके विचारों और सिद्धान्तों से प्रभावित थे। आपके साथ  श्री रजनधारी सिंह,  श्री ओ

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गया प्रवास

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 1969 में खादी ग्रामोद्योग मधुबनी में सहायक के रूप में कार्य किये फिर 1972 में बिहार कॉपरेटिव फेडरेशन में कार्यकर्ता के लिए ट्रेनिंग लिए और कार्य शुरू किये । 1976 में लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय सो

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शिक्षक की भूमिका में

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 ऐसा कहा जाये कि आपके अंदर बचपन से ही शिक्षक का गुण था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आप अपने छात्र जीवन से ही अपने दोस्तों को पढ़ाते रहते थे. आप अपने साले श्रधेय श्री शम्भू प्रसाद को भी पढ़ाया. वे बताते

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स्कूल, आप और परिवार

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 आपने स्कूल को अपना लिया और स्कूल ने आपको। शुरू में आप स्कूल से 1 किमी दूर बने सोहैपुर कम्युनिटी हॉल में रहे फिर बाद में स्कूल के हॉस्टल में रहने लगे। आप अपने अमरपुरा के संस्कार और व्यवहार सोहैपुर गया

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अमरपुरा के उमस

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 मानसून की उमस को याद करते हुए, श्रधेय श्रीमती सुमित्रा देवी बताती हैं कि सावन की दूसरी सोमवारी का उमस भरा दिन था, रात में भी बहुत गर्मी थी न हवा चल रही थी न बारिश ही हो रही थी। रात में खाना खाने के ब

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शिक्षक की ईमानदारी

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 आप अमरपुरा में नाटक मंचन में सहयोग अवश्य करते थे. आप खुद कोई पात्र नहीं बनते थे किन्तु अन्य कार्य जैसे नाटक चयन, चंदा मांगने एवं देने में सहयोग करते थे. सर्वश्री परमेश्वर नारायण, भूपेंद्र सिंह, विजय

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आपके पिताजी का इंतकाल

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 1983-84 आते-आते आपके पिताजी श्रधेय श्री राम उग्रह सिंह काफ़ी थक चुके थे. इसी बीच घर में बंटवारा उन्हें और बुड्ढा बना दिया था. और इसी बीच आपकी छोटी चाची श्रद्धेया श्रीमती महेश्वरी देवी की अचानक मृत्यु

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गया में गृह-निर्माण

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 1991 में गया के लखीबाग, मानपुर में आपने जमीन खरीद ली थी. आपके साथ-साथ सोहैपुर हाई स्कूल के अनेक शिक्षक जैसे श्रधेय  श्री सहजा बाबू, श्रधेय  श्री विरेन्द्र बाबू, श्री विजय बाबू, श्री रामभजू बाबू इत्या

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सेवा-निवृति

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 1998 तकआपके बड़े बेटे चंद्रगुत(विनोद) ने साइंस में स्नातक के बाद सिविल इंजीनियरिंग में दुमका पोलिटेक्निक से डिप्लोमा कर लिया. जबकि आपका मंझला बेटा कुणाल (प्रमोद) ने 2000 में कलकत्ता विश्वविध्यालय से प

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घर-वापसी

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 हाँ ! घर-वापसी ही , क्योंकि श्रद्धेय नरेश बाबू जब से सोहैपुर , गया के लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय में ज्वाइन किया था , स्कूल के आस-पास अपने सहशिक्षकों के साथ रहते थे , खुद खाना बनाना और खुद ही अपन

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माताजी और सेवा

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 2010 साल का आश्विन महीना था, थोड़ी-थोड़ी ठंढ हो रही थी, लेकिन बूढ़ी हड्डी में ठंढ कुछ ज्यादा ही लगती है । आपकी माताजी श्रद्धेय मुंगेश्वरी देवी 93 वर्ष की हो चुकीं थीं । उस दिन तेज हवा बह रही थी, जिससे आ

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लकवा

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 जब आपकी बेटी की भी पारामेडिकल के कंपेटिसन में सेलेक्सन हो गया और उसे स्पीच थेरेपी में ग्रेजुएशन में एड्मिशन के लिए आया तो आप बहुत खुश हुए थे, उस समय आपका मंझला लड़का उसी कालेज के कैम्पस में नेशनल इं

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हैदराबाद यात्रा

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 लकवा से उबरने के बाद आप पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे । या यों कहें कि आप पहले से ज्यादा स्वस्थ हो गए थे । अंतर यही हुआ था कि अब आपके साथ दवा की एक पोटली साथ हो गया । लकवा मारने से करीब एक साल पहले 2015

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बाबूजी का दिल्ली और करनाल भ्रमण

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 जब आपका पोते इशांक का फुटबॉल खेलते समय 24 मार्च 2018 को हाथ टूट गया तो आपलोग बहुत परेशान हुए. आप उससे मिलने के लिए उतावले हो रहे थे. उस समय आपके मंझले लड़के प्रमोद अपने परिवार के साथ घर आया हुआ था. आप

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अंतिम भ्रमण

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 ऐसा लगता है आपके पास समय की कमी थी. आपको इसका अहसास भी हो गया था. तभी तो आप अपनी जान पहचान के लोगों से  जल्दी-जल्दी मिल लेना चाह रहे थे. जब आपसे मिलने आपके बड़ी साली श्रीमती सोना देवी, बाजितपुर की पुत

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गुरूजी चले गये

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 गुरूजी चले गए?  बाबूजी चले गए?  पिताजी चले गए.  दादाजी चले गए. नरेश बाबू चले गए.  यही बातें अमरपुरा गांव में चल रही थी 13 ओक्टुबर 2018 को रात 10 बजे से. फोन पर भी यही बातें हो रही थी. सभी लोगों

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अंतिम यात्रा

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 इस समय रात के करीब पौने दस बजे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. घर पर आपकी पत्नी और बेटी आपके सकुशल लौटने की भगवान से प्रार्थना कर रहे थे. किन्तु जैसे ही आपका निष्प्राण शरीर पहुंचा, घर पूरा अशांत हो गया. आप

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मेरी नजरों में हमारे बाबूजी ------ कुणाल योगेश चन्द्र

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 एक साधारण एवं गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद भी मेरे बाबूजी अपनी कार्य-कुशलता एवं योग्यता के कारण लोकप्रिय रहे. उनका बचपन गरीबी एवं कठिनाई भरा था. अपने सरल स्वभाव के चलते वे बड़ी आसानी से लोगों से घ

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हमारे पिताजी और मेरी स्मृतियाँ -अमरेश चन्द्र

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 मेरा बचपन अधिकांशतः अमरपुरा में बीता है इस कारण प्रथम 10 वर्ष तक मैं पिताजी के अनुशासन और स्नेह से प्रायः वंचित रहा. परन्तु मेरे जीवन पर पिताजी का गहरा प्रभाव रहा है. पिताजी की बहुत सी बातें हैं जो

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मैं और मेरे पिताजी - चंद्रमाला शौर्य

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 मैं अपने पिताजी कि लाडली बेटी थी . जहाँ तक मुझे याद है वो मुझे बताते थे, मेरे जन्म पर वे पुरे गाँव में लड्डू बटवाए थे | चुकि मैं अपने तीनों भईया से छोटी थी इसलिए मैं पुरे परिवार की लाडली बन कर रही | 

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मेरे ससुर जी और मैं – कुमारी सुषमा

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 मेरी शादी अमरपुरा के श्री राम नरेश सिंह के मंझले पुत्र कुणाल योगेश चन्द्र से तय हुई थी. इस शादी में अगुआ मेरे चचेरे जीजा जी करहारा के श्री बलराज सिंह थे जो कि मेरे पति के मौसेरे भाई भी हैं. मेरी शाद

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श्रधेय श्री नरेश बाबू के शोकसभा (25.10.18) में आए कुछ आगंतुकों के आपके प्रति उद्गार

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 1. आँखों में अश्क लिये ; इधर-उधर ढूंढता हूँ | जब नहीं पाता हूँ ; तो खुद को समझाता हूँ || तेरी यांदों को हृदय में संजोय ; अश्क को घूंट –घूंट पीता हूँ ||”  -अजित कुमार सिन्हा, अमरपुरा   2. “सन 1956

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