2010 साल का आश्विन महीना था, थोड़ी-थोड़ी ठंढ हो रही थी, लेकिन बूढ़ी हड्डी में ठंढ कुछ ज्यादा ही लगती है । आपकी माताजी श्रद्धेय मुंगेश्वरी देवी 93 वर्ष की हो चुकीं थीं । उस दिन तेज हवा बह रही थी, जिससे आपकी माताजी को ठंड भी लग
रही थी, उन्हें आज बुखार भी था । प्रतिदिन की तरह आज भी आपकी माताजी रात में कुएं के बगल वाले कमरे में सो रहीं थीं, उसी कमरे में दूसरे बेड पर आपकी पत्नी श्रद्धेय श्रीमति सुमित्रा देवी भी सो रही थीं । सास-बहू में बहुत सामजस्य था, दोनों एक-दूसरे का बहुत ख्याल रखते थे । रात में आपकी माताजी को पेशाब का अनुभव हुआ, भोर का समय था, आपकी माताजी अपनी बहू को आवाज लगायी , किन्तु वो शायद गाढ़ी नींद की वजह से जाग नहीं पायीं । इसी बीच उन्होने खुद ही उठने का प्रयास किया, दो कदम दरवाजे से बाहर आते ही वो गिर गयी, वो बहुत तेज आवाज के साथ वो कराहीं , बाप रे बाप....! उन्हें असहनीय दर्द था । उनकी बहू आवाज सुनते ही उठकर उन्हें किसी तरह बैठायी, फिर तुरंत ही उनका प्यारा पोता ‘आमोद’ भी जागकर भागते हुए आया । पहले तो लगा पैर की हड्डी कमर के पास चलहक गया है , दो दिनों तक तो देशी इलाज किया जाता रहा किन्तु कोई आराम नहीं मिल रहा था, ऐसा लग रहा था कि उनका कूल्हा टूट चुका है ।
इस बीच आपका बड़ा लड़का ‘विनोद’ भी आ चुका था, फिर उन्हें पटना हड्डी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के पास ले जाया गया, डॉक्टर ने एक्स-रे के बाद बता दिया कि आपकी माताजी का कूल्हा टूट चुका है और इसका एक मात्र इलाज़ कूल्हा बदलना है । किन्तु इतनी अधिक उम्र में कूल्हा ट्रांसप्लांट का सफल होने की गारंटी नहीं था । आपलोग ने उन्हें वापस घर ले आए । आपके मँझले लड़का 'प्रमोद' ने भी अपने पढ़ाई प्रोस्थेटिक और ओरेस्थेटिक का पूरा उपयोग किया ताकि वह अपनी दादी को अधिकतम आराम दिला सके ।किन्तु इस उम्र मे हड्डी न जुटना था न जुड़ा । आप उन्हें घर पर रख कर सेवा करने लगे
। आपका पूर्ण सहयोग आपके छोटे लड़के 'आमोद' कर रहा था । दिन में वह एम टेक की पढ़ाई के लिए बी आई टी पटना जाता और सुबह -शाम और रात में अपनी दादी की देखभाल करता । आप भी अपनी माँ को आराम पहुंचाने के लिए कभी डा. बिटेश्वर महतो, लखपर से होम्योपैथिक दवा लाते, तो कभी खुद ही किताब से पढ़कर उन्हें होम्योपैथिक दवा देते रहते ।
कभी कभार आपकी माताजी का पेट खराब रहता , तो वे शौचालय कुर्सी पर भी नहीं बैठ पातीं और कपड़े में ही टट्टी हो जाता था । आप दोनों पति-पत्नी मिलकर उनकी कपड़ा बदलवाते । फिर आप उनके कपड़े को अच्छी तरह रगड़ -रगड़ कर धोते, ताकि कोई भी गंदगी न रह जाये। आपके, आपकी पत्नी और आपके छोटे लड़के 'आमोद' के बेहतर सेवा के कारण ही आपकी माताजी कूल्हे टूटने के बाद भी दो साल से ज्यादा जीवित रहीं । आपके परिवार के सेवा भाव को देखकर आस-पास के लोग भी दंग रह जाते ।
12 अप्रैल 2012 बृहष्पतिवार की रात में आपकी माताजी को तकलीफ बहुत बढ़ गया था, डा. बिन्दु कुमार को, लखपर से बुलाया गया, वे आपकी माताजी को दवा दिया, पानी भी चढ़ाया गया, किन्तु सुबह होते- होते वे चीर निंद्रा में सो गयी। सुबह-सुबह आपके मँझले लड़के अपनी पत्नी और बच्चे के साथ आ गए थे, दोपहर तक आपकी प्यारी बेटी ‘चंद्रमाला’ भी घर पहुँच चुकी थी । ‘राम नाम सत्य है’ के उद्घोष के साथ आपकी माँ की अश्रुपूर्ण विदाई दी गयी, करींब 60-70 गाँव के लोग एक बस द्वारा आपकी माँ की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए गया गए थे । आपने अपनी माँ का अंतिम संस्कार गया के फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर के पास किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि गया का विष्णुपद मंदिर बहुत पवित्र स्थान है । वे हमेशा ही गया को गयाजी कहती थीं | आपकी माताजी के दाह-संस्कार में आपके शिष्य श्री सुरेश प्रसाद ने आपका भरपुर सहयोग किया । गया में दाह-संस्कार के वजह से गया के आपके ज़्यादातर दोस्त शामिल हुए ।
आपके बड़े बेटे ‘विनोद’ अपनी दादी को याद करते हुए बताते हैं कि वो सब्जी बहुत ही स्वादिष्ट बनाती थीं, तीखा होता था किन्तु सभी को पसंद आता था । फिर आगे बताते हैं कि ठंड के मौसम में बचपन में दादी इनका मुंह जबर्दस्ती साफ करतीं थीं, उनके हाथ के गोबर का दुर्गंध इनके नाक में समा जाती थी। वे प्रतिदिन अपने बैल-भैंस का गोबर साफ करतीं थीं और फिर गोबर के गोईठा दीवार में थापती थीं, जिससे उनके हाथ से गोबर का दुर्गंध आता था । इसीतरह एक बार बालक विनोद बिना कुछ खाये देर तक काँच की गोली पक्काथान पर खेलता रहा, आपकी माताजी ढूंढते हुए उसे खेलते हुए पकड़ ली, फिर वहाँ से झापड़-तबराक मारते हुए, घर ले आयीं। आपकी माताजी प्यारीभी थी, तो सख़्त भी थीं।