मेरा बचपन अधिकांशतः अमरपुरा में बीता है इस कारण प्रथम 10 वर्ष तक मैं पिताजी के अनुशासन और स्नेह से
प्रायः वंचित रहा. परन्तु मेरे जीवन पर पिताजी का गहरा प्रभाव रहा है. पिताजी की बहुत सी बातें हैं जो मेरे लिए प्रेरणास्रोत रही है.
बचपन में जब वो गया से घर आते थे तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती थी. पिताजी बताते थे कि मैं उनको देखते ही
पहचान लेता था और उनकी गोद में चला जाता था. वो जब भी अमरपुरा आते मेरे लिए किताबें और पत्रिकाएं ले कर आते. जिसकी वजह से मुझे किताबें पढने का शौक हो गया और मेरी पढाई के प्रति लगाव बढता गया. पिताजी को गणित और अंग्रेजी विषय से विशेष प्रेम था इस कारण मुझे भी उसे ज्यादा पढने के लिए प्रेरित करते. अंग्रेजी का अनुवाद और गणित के सवाल मैं जल्दी ही सीख गया. जिसका फायदा मुझे बाद में मिला.पिताजी अनुशासन और परिश्रम के महत्व को समझाते रहते थे. बच्चों को अनुशासन में रखना उन्हें अच्छी तरह आता था. उनका गुस्सा देख कर बदमाश से बदमाश बच्चे भी डर
जाते थे.
मैं जब 6ठी कक्षा पास किया तब मुझे आगे पढ़ने के लिए पिताजी अपने साथ गया ले गये. मै बहुत खुश था कि गया
जाऊंगा जहाँ पहाड़ भी है बहुत मजा आयेगा. लेकिन वहाँ जाने के बाद मेरा मन बिलकुल
नही लगा. माँ, दादी और बहन की बहुत याद आती थी. मैं गया में लक्खीबाग स्थित अपने घर
में पिताजी और सुरेश भैया के साथ रहता था. पहले सुरेश भैया खाना बनाते थे धीरे
धीरे मैं भी खाना बनाने लगा. वहाँ रहने पर अपना काम खुद करना सीखा. अपने कपडे
धोना, प्रेस करना इत्यादि. लेकिन बचपन की आदतें गयी नही थी. एक बार मैं गलती
दरवाजे खुले छोड़ कर स्कूल चला गया जबकि मुझे ही दरवाजे में ताले लगाना था. शाम में
जब यह बात पिताजी को पता चला तो मुझे दस बार उठक-बैठक करने की सजा मिली. वहाँ का
खाना मुझे पसंद नही आता था क्योंकि मुझे आलू खाना पसंद था जबकि पिताजी केवल हरी
सब्जियां ही बनवाते थे. लेकिन मैं मना भी नहीं कर सकता था. क्योंकि इस बात के लिए
अमरपुरा में मुझे कई बार पिताजी से डांट पड़ चुकीथी. मुझे घर की बहुत याद आती थी.
जब मैं गया में ही था बेला के सूरज भैया की शादी थी और बारात गया हो कर ही बोकारो
जाने वाली थी. यह बात जानकर मैं बहुत खुश हुआ बारात में जाने के लिए मै बहुत उत्साहित
था. अपने लिए कपडे भी रख लिया था. लेकिन जिस दिन बारात जाना था उस दिन मैं स्कूल
में था तो पिताजी मुझे छोड़कर बारात चले गये. स्कूल से आने के बाद मुझे रोना आ गया
लेकिन अब कोई उपाय नही था.
पिताजी जन्मदिन मनाने के खिलाफ थे उनका कहना था कि जन्मदिन बड़े और महान लोगो का मनाया जाता है. तुम भी महान बनो तो पूरी दुनिया तुम्हारा जन्मदिन मनाएगी. पिताजी मेरा नाम अमरेश चन्द्र रखे थे
क्योंकि इसमें हमारे आदिपूर्वज और पिताजी दोनों का नाम शामिल था. लेकिन जब पहली
बार मैं नाम सुना तो मुझे पसंद नहीं आया क्योंकि यह नाम हिंदी सिनेमा के खलनायक
अमरीश पुरी से मिलता जुलता था. मैं यह बात पिताजी को बताया तो वो बोले कि तुम इतना
नाम कमाओ कि अमरीश पुरी का नाम छोटा पड़ जाये, मैं निरुत्तर हो गया.
पिताजी रिटायरमेंट के बाद अमरपुरा रहने लगे. रिटायर होने के बाद भी उनका पढ़ाने का जूनून खत्मन हीं हुआ थाइस
कारण यहाँ भी भानु भैया के साथ एक स्कूल खोल लिए- विद्याभारती पब्लिक स्कूल. घर
में सुबह शाम गाय की सेवा करते और दिन भर स्कूल में बच्चों को पढ़ाते. पिताजीको
किताबों से बहुत लगाव था. उनके पास बहुतेरे किताबों का संग्रह था जिसे वो बहुत
करीने से रखते थे. वो कभी किताबों को बेचने नहीं दिए क्योंकि उनको अपने पढाई के
समय में जरुरत की किताबें नहीं मिल पाती थी. उनकी इच्छा एक नई लाइब्रेरी खोलने की
थी जहाँ जरूरतमंद बच्चे पढाई कर सकें.
इस बीच मैं इंजीनियरिंग की पढाई करने मध्यप्रदेश चला गया और बहन चंद्रमाला कोलकाता में पढने चली गयी. घर पर
माँ, पिताजी और दादी रहने लगे. 2011 में दादी बिस्तर से गिर गयी और उनके कूल्हे
में फ्रैक्चर हो गया. काफी इलाज के बाद भी उनका कुल्हा ठीक नही हो पाया. थक हार कर
हमलोग दादी को घर ले आये. वो बिस्तर पर आ गयी और पूरी तरह से चलना फिरना बंद हो
गया. हर काम के लिए दूसरों पर आश्रित हो गयी. इस कारण मैं भी घर आ गया. हम सब लोग
मिल कर दादी की देखभाल करने लगे. पिताजी पुरे मन से सेवा करते थे खुद अपने हाथों
से खाना खिलाना, नहलाना, शौच कराना, उनके गंदे कपड़ो को खुद धोना, रातरात भर जाग कर
दादी के पास बैठे रहना. इसी बीच मैं पॉलिटेक्निक कॉलेज पटना में पढ़ाने लगा. मैं
दिन में कॉलेज जाता और रात में दादी के पास रहता. दादी को रात में नींद नही आती थी
बार बार पुकारने लगती थी इसकारण हमेशा उनके पास कोई न कोई रहते थे. पिताजी और माँ
रात के 2 बजे से जाग जाते थे तब तक मैं दादी के पास रहता था. पिताजी की सेवा भावना
देख कर लोग उनको श्रवण कुमार से तुलना करने लगे थे. पिताजी की सेवा के कारण दादी लगभग
2 वर्ष तक जीवित रही.
पिताजी बहुत मेहनती और दृढ
प्रतिज्ञ थे, एक वर्ष बारिश बहुत कम हुई थी गाँव के सभी चापाकल सूखने लगे. घर का
चापाकल भी सूख गया. जबतक मिस्त्री नहीं मिला पिताजी रोज मुन्ना के दलान सेदसियों
बाल्टी पानी खुद भरकर लाते थे. लगभग 1 महीने तक पानी की किल्लत रही.
पिताजी रिश्तेदारी निभाने में हमेशा आगे रहते थे जब भी किसी के यहाँ से न्योता आता तो वे पूरी कोशिश करते थे
कि जरुर जाएँ. ज्यादातर मैं ही उनको लेकर जाता था. वहाँ पहुँच कर वो सबसे मिलते और मुझे भी मिलवाते. अपरिचित बुजुर्गों से मिल कर मैं बोर होने लगता था लेकिन पिताजी के कारण ही मैं दूर के रिश्तेदारों से भी मिल पाया.
पिताजी बहुत अच्छे मेहमाननवाज भी थे कोई भी उनके पास आता तो उनका आदर के साथ स्वागत करते और बिना कुछ
खिलाये पिलाये वापस नहीं जाने देते. मुझेभी बुला कर सबसे मिलवाते थे और पैर छू कर आशीर्वाद लेने को कहते, मैं बेमन से सबसे आशीर्वाद ले लेता था. अब अहसास होता है कि पिताजी ऐसा ना करते तो तो मैं समाज के लोगों से मिल ही नहीं पाता और समाज में रह कर भी किसी को नहीं पहचानता. पिताजी का मानना था कि जीवन में सबसे मेलजोल रखना चाहिए. अंतिम समय तक पिताजी लोगों के बीच ही रहे इसी कारण वो सभी लोगों के बीच सम्माननीय और लोकप्रिय थे.
पिताजी भले ही सरकारी नौकरी करते थे लेकिन वो खुद को हमेशा किसान ही मानते रहे. जहाँ भी रहे सब्जी खुद उगा कर
खाए. पिताजी जब घर पर रहते थे तो अक्सर मुझे भी खेतों में ले जाते थे. खेत में खुद
मेहनत करते थे और मुझसे भी करवाते थे. डीह वाले खेत में आलू, हल्दी, लहसुन, मकई इत्यादि
की खेती करते थे. मुझे भी खेत कोड़ना, क्यारी बनाना, आलूकोड़ना और भरना, मकई कोड़ना
इत्यादि काम सिखाये. पटवन करने के लिए लाठा-कुड़ी चलाना भी सिखाये. उन्होंने मुझे
समझाया कि कोई भी काम करने में शर्म नहीं आनी चाहिए. वास्तव में खेतों में खुद काम
करने के बाद ही यह एहसास होता है कि किसान को फसल उगाने में कितनी मेहनत करनी पड़ती
है. पिताजी अपने आखिरी वक्त तक कुदाल चलाते रहे उनके हाथो से रोपी हुई हल्दी अभी
भी लगी है. घर पर आगे की जमीन में कई तरह के पेड़ पौधे लगाये थे जिनमे से कई पौधे
औषधीय गुणों से भरपूर हैं जिसके बारे में पिताजी हमेशा बताते रहते थे. उनको जड़ी बूटियों का भी अच्छा ज्ञान था.
पिताजी शुद्ध शाकाहारी और सादा भोजन करते थे, लेकिन उन्हें भोजन में कई तरह की सब्जियां खाना पसंद था. दादी
बताती थी कि बचपन में सब्जी नहीं रहने पर भात का चोखा बना कर दे देती थी. उनको लिट्टी खाना भी बहुत पसंद था. फलों में उनको आम से विशेष लगाव था, आम का चस्का उनको बचपन से ही था. सरबदीपुर में आम के बहुत से बाग़ थे, पिताजी वहाँ जाते थे तो दिन भर केवल आम ही खाते थे.
पिताजी आजकल के नए फैशनबाजी से बहुत चिढ़ते थे. कहीं जाना हो और मैं यदि टी शर्ट पहन कर चला गया तो डांट पड़ना पक्का है. इसीलिए उनके साथ कही जाना हो तो शर्ट और पैंट पहन कर ही जाता था. बाल
बड़े रखना मना था और कंघी किनारे से ही करना था. उनको रेडीमेड कपडे पसंद नहीं थे.
उनके कपड़े 10-10 साल तक चलते थे या वे चलाते थे. उनके कपडे हमेशा साफ़ सुथरे होते
थे वो अपने कपडे खुद ही धोते थे. नए कपड़ों पर पैसे खर्च करना उनको फिजूलखर्ची लगती
थी. एक बार विनोद भैया पिताजी के लिए सफारी सूट ले आये थे लेकिन पिताजी उसको कभी
नहीं पहने. बोलते थे किसान सफारी पहनेगा तो कुदाल कैसे चलाएगा.
वैसे तो पिताजी धार्मिक कर्मकाण्डों और मूर्ति पूजा के विरोधी थे, लेकिन भगवान में उनका विश्वास था. वो
किसी एक पंथ को मानते नहीं थे लेकिन वो स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा प्रचारित
आर्यसमाज के समर्थक थे. वो उनकी लिखित पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन किये थे.
पिताजी का कहना था कि प्रकृति ही ईश्वर है. हमें प्रकृति की ही पूजा करनी चाहिए और
मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म है. पिताजी प्रत्येक मंगलवार और पूर्णिमा के दिन पूजा
करते थे. जिसमे वो हवन करते थे और संस्कृत में मंत्रोच्चार करते थे. लय पूर्वक
मंत्रोच्चार सुनने में बड़ा आनंद आता था. माँ हनुमान चालीसा और रामायण की चौपाईयां
पढ़ती थी. हम भी साथ साथ गाया करते थे.
पिताजी बहुत सहृदय और दयालु थे दूसरों की परेशानी को सहज ही भांप लेते थे. वो अपने मेहनत से कमायेपैसों को खुद
पर खर्च न कर के दुसरे की सहायता करने में लगाना पसंद करते थे. कभी भी कोई उनके
पास मदद मांगने आता तो उसको निराश नहीं करते थे. उन्होंने अपने रिश्तेदारों,
दोस्तों, पड़ोसियों सबकी सहायता की लेकिन कभी वापस मांगने नहीं गये. इस बात को लेकर
कभी कभी माँ के साथ बहस भी हो जाती थी. उन्होंने अपने चचेरे भाइयों की भीबहुत मदद
की. कौलेश्वर और शैलेश, जो उनके छोटे चाचा के बेटे हैं, को समय-समय पर पैसों से
मदद करते रहे. कौलेश्वर बाबू की तीनों बेटियों की शादियों में बीसियों हजार रुपये
दिए, तीसरी बेटी की शादी के समय भी पैसे दिए जबकि उनको शादी में बुलाया तक नहीं
गया था. शैलेश बाबू को पिताजी अपने सगे भाई से भी ज्यादा प्रेम करते थे, उनकी शादी
करवाए, बुरे वक्त में सहायता किये, चुनाव लड़ने के समय पैसे दिए, गांव गांव घूमकर
प्रचार भी किया लेकिन पिताजी को उनलोगों से प्रत्युत्तर में ओछा व्यव्हार, ईर्ष्या
और गाली गलौज ही मिला. परन्तु पिताजी किसी के लिए मन में कड़वाहट नहीं रखते थे.
चचेरे भाइयों के ख़राब व्यवहार होने के बावजूद वो कभी उनको बुरा भला नहीं बोले
उल्टा जब भी आवश्यकता हुई आगे बढ़कर सहायता किये. फिर भी जब पिताजी मृत्यु शय्या पर
थे दोनों भाई में से कोई देखने तक नहीं आए. ईर्ष्या आदमी को किस हद तक पतित कर
सकता है ?
पिताजी अपने सभी बच्चों को बराबर प्यार करते थे. हमें पढाई के महत्व को समझाते थे और पढ़ने के लिए प्रेरित
करते थे. पिताजी की प्रेरणासे हम चारो भाई बहन अपने अपने क्षेत्र में स्नातकोत्तर
तक की पढाई किये और सरकारी नौकरी प्राप्त कर पाए.विनोद भैया MBA और LLB भी किये.
सुरेश भैया जिनको पिताजी पुत्र समान मानते थे वो पीएचडी तक की पढाई किये. उनकी
छोटी बहु भी पीएचडी कर रही है. इस बात का पिताजी को बहुत गर्व था और अक्सर हमारी
चर्चा दूसरों से करते रहते थे. पिताजी अपने तीनों बहुओं को उचित स्नेह और सम्मान
देते थे. हमेशा कोशिश किये कि परिवार में मेलजोल और स्नेह का वातावरण बना रहे. माँ
पिताजी के बारे में रुधे गले से बताती है कि वे हमेशा खुद खुश रहते थे और दूसरों
को भी खुश रखने का कोशिश करते थे, वे अपने सभी बच्चों को शादी कर दिए सभी की नौकरी
लग गयी लेकिन उन्हें अपने दो छोटे बेटा-बेटी के बच्चों को नहीं देख पाए, यही अफ़सोस
रह गया |
पिताजी को 2016 में लकवा मार दिया था जिसके कारण वो कई महीनों तक बिस्तर पर रहे. लेकिन अपनी जीवटता के कारण पुनः उठ खड़े हुए. लेकिन 2 वर्ष बाद अचानक आये हृदयाघात को वह मात नहीं दे पाए. मुझे
सदैव इस बात का दुःख रहेगा कि मैं उनकी मृत्यु के समय उनके पास नहीं था. मैं हरेक
रविवार को बरौनी से अमरपुरा जाता था तो पिताजी मुझे मिलते थे. लेकिन आखिरी बार
पिताजी से बात नहीं कर पाया. पिताजी के जाने के बाद मुझे उनकी कमी बहुत खलती है.
लेकिन संसार का यही नियम है हर किसी को यहाँ से जाना ही है. मैं कोशिश करुँगा कि
पिताजी के अधूरे सपनों को पूरा कर सकूँ. उनका आशीर्वाद हमेशा हमारा मार्गदर्शन
करता रहेगा.