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हमारे पिताजी और मेरी स्मृतियाँ -अमरेश चन्द्र

26 फरवरी 2022

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 मेरा बचपन अधिकांशतः अमरपुरा में बीता है इस कारण प्रथम 10 वर्ष तक मैं पिताजी के अनुशासन और स्नेह से
प्रायः वंचित रहा. परन्तु मेरे जीवन पर पिताजी का गहरा प्रभाव रहा है. पिताजी की बहुत सी बातें हैं जो मेरे लिए प्रेरणास्रोत रही है. 

बचपन में जब वो गया से घर आते थे तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती थी. पिताजी बताते थे कि मैं उनको देखते ही
पहचान लेता था और उनकी गोद में चला जाता था. वो जब भी अमरपुरा आते मेरे लिए किताबें और पत्रिकाएं ले कर आते. जिसकी वजह से मुझे किताबें पढने का शौक हो गया और मेरी पढाई के प्रति लगाव बढता गया. पिताजी को गणित और अंग्रेजी विषय से विशेष प्रेम था इस कारण मुझे भी उसे ज्यादा पढने के लिए प्रेरित करते. अंग्रेजी का अनुवाद और गणित के सवाल मैं जल्दी ही सीख गया. जिसका फायदा मुझे बाद में मिला.पिताजी अनुशासन और परिश्रम के महत्व को समझाते रहते थे. बच्चों को अनुशासन में रखना उन्हें अच्छी तरह आता था. उनका गुस्सा देख कर बदमाश से बदमाश बच्चे भी डर
जाते थे.  

मैं जब 6ठी कक्षा पास किया तब मुझे आगे पढ़ने के लिए पिताजी अपने साथ गया ले गये. मै बहुत खुश था कि गया
जाऊंगा जहाँ पहाड़ भी है बहुत मजा आयेगा. लेकिन वहाँ जाने के बाद मेरा मन बिलकुल
नही लगा. माँ, दादी और बहन की बहुत याद आती थी. मैं गया में लक्खीबाग स्थित अपने घर
में पिताजी और सुरेश भैया के साथ रहता था. पहले सुरेश भैया खाना बनाते थे धीरे
धीरे मैं भी खाना बनाने लगा. वहाँ रहने पर अपना काम खुद करना सीखा. अपने कपडे
धोना, प्रेस करना इत्यादि. लेकिन बचपन की आदतें गयी नही थी. एक बार मैं गलती
दरवाजे खुले छोड़ कर स्कूल चला गया जबकि मुझे ही दरवाजे में ताले लगाना था. शाम में
जब यह बात पिताजी को पता चला तो मुझे दस बार उठक-बैठक करने की सजा मिली. वहाँ का
खाना मुझे पसंद नही आता था क्योंकि मुझे आलू खाना पसंद था जबकि पिताजी केवल हरी
सब्जियां ही बनवाते थे. लेकिन मैं मना भी नहीं कर सकता था. क्योंकि इस बात के लिए
अमरपुरा में मुझे कई बार पिताजी से डांट पड़ चुकीथी. मुझे घर की बहुत याद आती थी.
जब मैं गया में ही था बेला के सूरज भैया की शादी थी और बारात गया हो कर ही बोकारो
जाने वाली थी. यह बात जानकर मैं बहुत खुश हुआ बारात में जाने के लिए मै बहुत उत्साहित
था. अपने लिए कपडे भी रख लिया था. लेकिन जिस दिन बारात जाना था उस दिन मैं स्कूल
में था तो पिताजी मुझे छोड़कर बारात चले गये. स्कूल से आने के बाद मुझे रोना आ गया
लेकिन अब कोई उपाय नही था.  

पिताजी जन्मदिन मनाने के खिलाफ थे उनका कहना था कि जन्मदिन बड़े और महान लोगो का मनाया जाता है. तुम भी महान बनो तो पूरी दुनिया तुम्हारा जन्मदिन मनाएगी. पिताजी मेरा नाम अमरेश चन्द्र रखे थे
क्योंकि इसमें हमारे आदिपूर्वज और पिताजी दोनों का नाम शामिल था. लेकिन जब पहली
बार मैं नाम सुना तो मुझे पसंद नहीं आया क्योंकि यह नाम हिंदी सिनेमा के खलनायक
अमरीश पुरी से मिलता जुलता था. मैं यह बात पिताजी को बताया तो वो बोले कि तुम इतना
नाम कमाओ कि अमरीश पुरी का नाम छोटा पड़ जाये, मैं निरुत्तर हो गया. 

पिताजी रिटायरमेंट के बाद अमरपुरा रहने लगे. रिटायर होने के बाद भी उनका पढ़ाने का जूनून खत्मन हीं हुआ थाइस
कारण यहाँ भी भानु भैया के साथ एक स्कूल खोल लिए- विद्याभारती पब्लिक स्कूल. घर
में सुबह शाम गाय की सेवा करते और दिन भर स्कूल में बच्चों को पढ़ाते. पिताजीको
किताबों से बहुत लगाव था. उनके पास बहुतेरे किताबों का संग्रह था जिसे वो बहुत
करीने से रखते थे. वो कभी किताबों को बेचने नहीं दिए क्योंकि उनको अपने पढाई के
समय में जरुरत की किताबें नहीं मिल पाती थी. उनकी इच्छा एक नई लाइब्रेरी खोलने की
थी जहाँ जरूरतमंद बच्चे पढाई कर सकें. 

इस बीच मैं इंजीनियरिंग की पढाई करने मध्यप्रदेश चला गया और बहन चंद्रमाला कोलकाता में पढने चली गयी. घर पर
माँ, पिताजी और दादी रहने लगे. 2011 में दादी बिस्तर से गिर गयी और उनके कूल्हे
में फ्रैक्चर हो गया. काफी इलाज के बाद भी उनका कुल्हा ठीक नही हो पाया. थक हार कर
हमलोग दादी को घर ले आये. वो बिस्तर पर आ गयी और पूरी तरह से चलना फिरना बंद हो
गया. हर काम के लिए दूसरों पर आश्रित हो गयी. इस कारण मैं भी घर आ गया. हम सब लोग
मिल कर दादी की देखभाल करने लगे. पिताजी पुरे मन से सेवा करते थे खुद अपने हाथों
से खाना खिलाना, नहलाना, शौच कराना, उनके गंदे कपड़ो को खुद धोना, रातरात भर जाग कर
दादी के पास बैठे रहना. इसी बीच मैं पॉलिटेक्निक कॉलेज पटना में पढ़ाने लगा. मैं
दिन में कॉलेज जाता और रात में दादी के पास रहता. दादी को रात में नींद नही आती थी
बार बार पुकारने लगती थी इसकारण हमेशा उनके पास कोई न कोई रहते थे. पिताजी और माँ
रात के 2 बजे से जाग जाते थे तब तक मैं दादी के पास रहता था. पिताजी की सेवा भावना
देख कर लोग उनको श्रवण कुमार से तुलना करने लगे थे. पिताजी की सेवा के कारण दादी लगभग
2 वर्ष तक जीवित रही. 

पिताजी बहुत मेहनती और दृढ
प्रतिज्ञ थे, एक वर्ष बारिश बहुत कम हुई थी गाँव के सभी चापाकल सूखने लगे. घर का
चापाकल भी सूख गया. जबतक मिस्त्री नहीं मिला पिताजी रोज मुन्ना के दलान सेदसियों
बाल्टी पानी खुद भरकर लाते थे. लगभग 1 महीने तक पानी की किल्लत रही. 

पिताजी रिश्तेदारी निभाने में हमेशा आगे रहते थे जब भी किसी के यहाँ से न्योता आता तो वे पूरी कोशिश करते थे
कि जरुर जाएँ. ज्यादातर मैं ही उनको लेकर जाता था. वहाँ पहुँच कर वो सबसे मिलते और मुझे भी मिलवाते. अपरिचित बुजुर्गों से मिल कर मैं बोर होने लगता था लेकिन पिताजी के कारण ही मैं दूर के रिश्तेदारों से भी मिल पाया. 

पिताजी बहुत अच्छे मेहमाननवाज भी थे कोई भी उनके पास आता तो उनका आदर के साथ स्वागत करते और बिना कुछ
खिलाये पिलाये वापस नहीं जाने देते. मुझेभी बुला कर सबसे मिलवाते थे और पैर छू कर आशीर्वाद लेने को कहते, मैं बेमन से सबसे आशीर्वाद ले लेता था. अब अहसास होता है कि पिताजी ऐसा ना करते तो तो मैं समाज के लोगों से मिल ही नहीं पाता और समाज में रह कर भी किसी को नहीं पहचानता. पिताजी का मानना था कि जीवन में सबसे मेलजोल रखना चाहिए. अंतिम समय तक पिताजी लोगों के बीच ही रहे इसी कारण वो सभी लोगों के बीच सम्माननीय और लोकप्रिय थे. 

पिताजी भले ही सरकारी नौकरी करते थे लेकिन वो खुद को हमेशा किसान ही मानते रहे. जहाँ भी रहे सब्जी खुद उगा कर
खाए. पिताजी जब घर पर रहते थे तो अक्सर मुझे भी खेतों में ले जाते थे. खेत में खुद
मेहनत करते थे और मुझसे भी करवाते थे. डीह वाले खेत में आलू, हल्दी, लहसुन, मकई इत्यादि
की खेती करते थे. मुझे भी खेत कोड़ना, क्यारी बनाना, आलूकोड़ना और भरना, मकई कोड़ना
इत्यादि काम सिखाये. पटवन करने के लिए लाठा-कुड़ी चलाना भी सिखाये. उन्होंने मुझे
समझाया कि कोई भी काम करने में शर्म नहीं आनी चाहिए. वास्तव में खेतों में खुद काम
करने के बाद ही यह एहसास होता है कि किसान को फसल उगाने में कितनी मेहनत करनी पड़ती
है. पिताजी अपने आखिरी वक्त तक कुदाल चलाते रहे उनके हाथो से रोपी हुई हल्दी अभी
भी लगी है. घर पर आगे की जमीन में कई तरह के पेड़ पौधे लगाये थे जिनमे से कई पौधे
औषधीय गुणों से भरपूर हैं जिसके बारे में पिताजी हमेशा बताते रहते थे. उनको जड़ी बूटियों का भी अच्छा ज्ञान था. 

पिताजी शुद्ध शाकाहारी और सादा भोजन करते थे, लेकिन उन्हें भोजन में कई तरह की सब्जियां खाना पसंद था. दादी
बताती थी कि बचपन में सब्जी नहीं रहने पर भात का चोखा बना कर दे देती थी. उनको लिट्टी खाना भी बहुत पसंद था. फलों में उनको आम से विशेष लगाव था, आम का चस्का उनको बचपन से ही था. सरबदीपुर में आम के बहुत से बाग़ थे, पिताजी वहाँ जाते थे तो दिन भर केवल आम ही खाते थे.  

पिताजी आजकल के नए फैशनबाजी से बहुत चिढ़ते थे. कहीं जाना हो और मैं यदि टी शर्ट पहन कर चला गया तो डांट पड़ना पक्का है. इसीलिए उनके साथ कही जाना हो तो शर्ट और पैंट पहन कर ही जाता था. बाल
बड़े रखना मना था और कंघी किनारे से ही करना था. उनको रेडीमेड कपडे पसंद नहीं थे.
उनके कपड़े 10-10 साल तक चलते थे या वे चलाते थे. उनके कपडे हमेशा साफ़ सुथरे होते
थे वो अपने कपडे खुद ही धोते थे. नए कपड़ों पर पैसे खर्च करना उनको फिजूलखर्ची लगती
थी. एक बार विनोद भैया पिताजी के लिए सफारी सूट ले आये थे लेकिन पिताजी उसको कभी
नहीं पहने. बोलते थे किसान सफारी पहनेगा तो कुदाल कैसे चलाएगा. 

वैसे तो पिताजी धार्मिक कर्मकाण्डों और मूर्ति पूजा के विरोधी थे, लेकिन भगवान में उनका विश्वास था. वो
किसी एक पंथ को मानते नहीं थे लेकिन वो स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा प्रचारित
आर्यसमाज के समर्थक थे. वो उनकी लिखित पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन किये थे.
पिताजी का कहना था कि प्रकृति ही ईश्वर है. हमें प्रकृति की ही पूजा करनी चाहिए और
मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म है. पिताजी प्रत्येक मंगलवार और पूर्णिमा के दिन पूजा
करते थे. जिसमे वो हवन करते थे और संस्कृत में मंत्रोच्चार करते थे. लय पूर्वक
मंत्रोच्चार सुनने में बड़ा आनंद आता था. माँ हनुमान चालीसा और रामायण की चौपाईयां
पढ़ती थी. हम भी साथ साथ गाया करते थे.  

पिताजी बहुत सहृदय और दयालु थे दूसरों की परेशानी को सहज ही भांप लेते थे. वो अपने मेहनत से कमायेपैसों को खुद
पर खर्च न कर के दुसरे की सहायता करने में लगाना पसंद करते थे. कभी भी कोई उनके
पास मदद मांगने आता तो उसको निराश नहीं करते थे. उन्होंने अपने रिश्तेदारों,
दोस्तों, पड़ोसियों सबकी सहायता की लेकिन कभी वापस मांगने नहीं गये. इस बात को लेकर
कभी कभी माँ के साथ बहस भी हो जाती थी. उन्होंने अपने चचेरे भाइयों की भीबहुत मदद
की. कौलेश्वर और शैलेश, जो उनके छोटे चाचा के बेटे हैं, को समय-समय पर पैसों से
मदद करते रहे. कौलेश्वर बाबू की तीनों बेटियों की शादियों में बीसियों हजार रुपये
दिए, तीसरी बेटी की शादी के समय भी पैसे दिए जबकि उनको शादी में बुलाया तक नहीं
गया था. शैलेश बाबू को पिताजी अपने सगे भाई से भी ज्यादा प्रेम करते थे, उनकी शादी
करवाए, बुरे वक्त में सहायता किये, चुनाव लड़ने के समय पैसे दिए, गांव गांव घूमकर
प्रचार भी किया लेकिन पिताजी को उनलोगों से प्रत्युत्तर में ओछा व्यव्हार, ईर्ष्या
और गाली गलौज ही मिला. परन्तु पिताजी किसी के लिए मन में कड़वाहट नहीं रखते थे.
चचेरे भाइयों के ख़राब व्यवहार होने के बावजूद वो कभी उनको बुरा भला नहीं बोले
उल्टा जब भी आवश्यकता हुई आगे बढ़कर सहायता किये. फिर भी जब पिताजी मृत्यु शय्या पर
थे दोनों भाई में से कोई देखने तक नहीं आए. ईर्ष्या आदमी को किस हद तक पतित कर
सकता है ? 

पिताजी अपने सभी बच्चों को बराबर प्यार करते थे. हमें पढाई के महत्व को समझाते थे और पढ़ने के लिए प्रेरित
करते थे. पिताजी की प्रेरणासे हम चारो भाई बहन अपने अपने क्षेत्र में स्नातकोत्तर
तक की पढाई किये और सरकारी नौकरी प्राप्त कर पाए.विनोद भैया MBA और LLB भी किये.
सुरेश भैया जिनको पिताजी पुत्र समान मानते थे वो पीएचडी तक की पढाई किये. उनकी
छोटी बहु भी पीएचडी कर रही है. इस बात का पिताजी को बहुत गर्व था और अक्सर हमारी
चर्चा दूसरों से करते रहते थे. पिताजी अपने तीनों बहुओं को उचित स्नेह और सम्मान
देते थे. हमेशा कोशिश किये कि परिवार में मेलजोल और स्नेह का वातावरण बना रहे. माँ
पिताजी के बारे में रुधे गले से बताती है कि वे हमेशा खुद खुश रहते थे और दूसरों
को भी खुश रखने का कोशिश करते थे, वे अपने सभी बच्चों को शादी कर दिए सभी की नौकरी
लग गयी लेकिन उन्हें अपने दो छोटे बेटा-बेटी के बच्चों को नहीं देख पाए, यही अफ़सोस
रह गया | 

पिताजी को 2016 में लकवा मार दिया था जिसके कारण वो कई महीनों तक बिस्तर पर रहे. लेकिन अपनी जीवटता के कारण पुनः उठ खड़े हुए. लेकिन 2 वर्ष बाद अचानक आये हृदयाघात को वह मात नहीं दे पाए. मुझे
सदैव इस बात का दुःख रहेगा कि मैं उनकी मृत्यु के समय उनके पास नहीं था. मैं हरेक
रविवार को बरौनी से अमरपुरा जाता था तो पिताजी मुझे मिलते थे. लेकिन आखिरी बार
पिताजी से बात नहीं कर पाया. पिताजी के जाने के बाद मुझे उनकी कमी बहुत खलती है.
लेकिन संसार का यही नियम है हर किसी को यहाँ से जाना ही है. मैं कोशिश करुँगा कि
पिताजी के अधूरे सपनों को पूरा कर सकूँ. उनका आशीर्वाद हमेशा हमारा मार्गदर्शन
करता रहेगा. 

   

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रचनाएँ
कर्मयोगी नरेश बाबू
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जिनका जन्म हुआ है उनकी मृत्यु भी निश्चित है | जीवन-मृत्यु प्रकृति का शाश्वत सत्य है | जिस तरह बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता, उसीतरह जो दिवंगत हो जाते हैं, कभी नहीं लौटते | मात्र उनकी यादें हमारे मानस पर बरबस आती रहती है | उनकी क्रियाकलापें, उनकी बातें, उनकी स्मृतियाँ हमेशा ही हमारे अंतर्मन में आती रहती है | फिर वही स्मृतियाँ हम अपने आने वाली संतानों को बताते हैं, यह प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है, जो स्मृतियाँ उपयोगी होती है अनेक पीढ़ियों तक चलती है, जबकि कुछ यादें एक ही पीढ़ी में समाप्त हो जाती है | मेरी यह किताब, मेरे बाबूजी और पूर्वजों की स्मृतियों को सहेजने की एक छोटी सी कोशिश है | बाबूजी का पूरे परिवार को आगे बढ़ाने में महानतम योगदान रहा है. बाबूजी ने हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके परिणामस्वरूप हम सभी ने एक अच्छा मुकाम हासिल किया| आज हम जो कुछ भी हैं, यह बाबूजी के दूरदर्शिता के बिना संभव नहीं था | हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान कर उन्होंने एक ऐसी परम्परा की नींव रखी है जो आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम करेगी | उन्होंने हमें पढ़ा-लिखाकर ऐसे अवसर प्रदान किये जो उन्हें स्वयं के जीवन में कभी नहीं मिले थे | बाबूजी के शिक्षा के प्रति अथाह लगाव के कारण ही मैं आज इस किताब को लिखने में अपने को सक्षम पा रहा हूँ | बड़े लोगों की जीवनी तो आप सभी जगह पा सकते हैं किन्तु साधारण आदमी, सिर्फ कहानी का पात्र बनता है | मैंने बाबूजी के इस ‘जीवनी’ के माध्यम से एक साधारण आदमी को मुख्य किरदार के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश किया हूँ | मेरे बाबूजी अकसर मुझे अपने पूर्वजों के बारे में बताते रहते थे, इस किताब में बाबूजी से प्राप्त जानकारियों को समेकित किया गया है | बाबूजी के जीवनी लिखने के लिए मैंने अपनी माँ, भाइयों के अलावा बाबूजी के दोस्त श्री प्रेमचंद, श्री रामानंद वर्मा, श्री शिवसमन तिवारी, श्री गजाधर और अनेक सम्बन्धियों से जानकारी प्राप्त किया | इस जीवनी को लिखने में मुझे अपने भाइयों श्री कुणाल (प्रमोद) और श्री अमरेश (आमोद), बहन श्रीमती चंद्रमाला से भी अपेक्षित सहयोग मिला | इस पुस्तक को लिखने में मुझे अपने मित्र श्री राजीव सारस्वत, दिल्ली के पिताजी के द्वारा लिखित “स्मृतियाँ” से भी अपेक्षित मार्गदर्शन मिला | बाबूजी का यह जीवनी अनेक चैप्टर में विभाजित है | इसमें कुछ चैप्टर पूर्वजो से जुड़ी घटनाओं का वर्णन है | इसमें बाबूजी के जन्म से लेकर मृत्यु तक घटनाओं का वर्णन किया गया है | इस किताब में मेरे छोटे भाइयों, बहन और मंझले भाई की पत्नी (भभू) का बाबूजी के प्रति विचार को भी जगह दी गयी है | परिवार के जिन सदस्यों ने अपने संस्मरण लिखे हैं, उनसे इस प्रस्तुति को पूर्णता प्राप्त हुई है, जिससे इसकी पठनीयता बढ़ी है | किताब के अंत में, बाबूजी के दोस्तों और शुभचिंतकों के भाषण का कुछ अंश दिया गया है, जो उन्होंने बाबूजी के शोकसभा के दिन दिया था | इस किताब में बाबूजी के कुछ तस्वीरें भी दी गयी है | उनके कुछ दोस्तों और सम्बन्धियों के भी यादगार तस्वीरों को इस पुस्तक में जगह दी गयी है | इस पुस्तक को आपके हाथ में पहुँचाने तक उपरोक्त महानुभावों के अलावा मेरे मित्र श्री अभय कुमार, दिल्ली एवं श्री शिव शंकर प्रसाद, निसरपुरा, पटना ने प्रूफरिडिंग के अतिरिक्त शब्द एवं वाक्य विन्यास को समुन्नत किया है | सुरेश भैया, गया ने इस पुस्तक की प्रिंटिंग में सहयोग किया, जबकि मनीष जी (बहनोई) का तस्वीर चुनने और सही जगह रखने में अपेक्षित सहयोग मिला | संकलन के विभिन्न स्तरों पर उक्त सदस्यों के सृजनात्मक सहयोग, श्रम एवं उत्साहपूर्ण योगदान से नरेश बाबू की जीवनी “कर्मयोगी नरेश बाबू” अपने वर्तमान स्वरूप आ सका है , इसका श्रेय इन्हीं सदस्यों को जाता है | आभार प्रकट करना उनके निश्छल स्नेह, आदर और प्रयास को कम करना होगा | भगवान से प्रार्थना है कि उनका जीवन मंगलमय हो | मुझे विश्वास है कि यह किताब से आने वाली पीढ़ी पूर्वजों के बारे में जान सकेगी | इससे उन्हें अपने कर्मों को सुविचारित रूप से पूर्ण करने में सहयोग मिलेगा | इस संस्मरणों को लिखने में, प्रस्तुतिकरण में, यथासंभव, मैं सही और शुद्ध लिखने की कोशिश किया हूँ, फिर भी कुछ त्रुटी रह गयी हो, तो मुझे क्षमा करें | और इस पुस्तक से जो कुछ भी ग्राह्य है, उसे पूर्वजों के आशीर्वाद समझकर अवश्य ग्रहण करें |
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पितृ-स्तुति

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वर्तमान अमरपुरा

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अमरपुरा और इतिहास

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पांडे जी

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बाबू जी एवं माँ

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जगदेव बाबू और आप

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गया प्रवास

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शिक्षक की भूमिका में

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 ऐसा कहा जाये कि आपके अंदर बचपन से ही शिक्षक का गुण था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आप अपने छात्र जीवन से ही अपने दोस्तों को पढ़ाते रहते थे. आप अपने साले श्रधेय श्री शम्भू प्रसाद को भी पढ़ाया. वे बताते

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स्कूल, आप और परिवार

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अमरपुरा के उमस

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 1983-84 आते-आते आपके पिताजी श्रधेय श्री राम उग्रह सिंह काफ़ी थक चुके थे. इसी बीच घर में बंटवारा उन्हें और बुड्ढा बना दिया था. और इसी बीच आपकी छोटी चाची श्रद्धेया श्रीमती महेश्वरी देवी की अचानक मृत्यु

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सेवा-निवृति

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 1998 तकआपके बड़े बेटे चंद्रगुत(विनोद) ने साइंस में स्नातक के बाद सिविल इंजीनियरिंग में दुमका पोलिटेक्निक से डिप्लोमा कर लिया. जबकि आपका मंझला बेटा कुणाल (प्रमोद) ने 2000 में कलकत्ता विश्वविध्यालय से प

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 हाँ ! घर-वापसी ही , क्योंकि श्रद्धेय नरेश बाबू जब से सोहैपुर , गया के लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय में ज्वाइन किया था , स्कूल के आस-पास अपने सहशिक्षकों के साथ रहते थे , खुद खाना बनाना और खुद ही अपन

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 ऐसा लगता है आपके पास समय की कमी थी. आपको इसका अहसास भी हो गया था. तभी तो आप अपनी जान पहचान के लोगों से  जल्दी-जल्दी मिल लेना चाह रहे थे. जब आपसे मिलने आपके बड़ी साली श्रीमती सोना देवी, बाजितपुर की पुत

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 गुरूजी चले गए?  बाबूजी चले गए?  पिताजी चले गए.  दादाजी चले गए. नरेश बाबू चले गए.  यही बातें अमरपुरा गांव में चल रही थी 13 ओक्टुबर 2018 को रात 10 बजे से. फोन पर भी यही बातें हो रही थी. सभी लोगों

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अंतिम यात्रा

26 फरवरी 2022
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 इस समय रात के करीब पौने दस बजे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. घर पर आपकी पत्नी और बेटी आपके सकुशल लौटने की भगवान से प्रार्थना कर रहे थे. किन्तु जैसे ही आपका निष्प्राण शरीर पहुंचा, घर पूरा अशांत हो गया. आप

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मेरी नजरों में हमारे बाबूजी ------ कुणाल योगेश चन्द्र

26 फरवरी 2022
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 एक साधारण एवं गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद भी मेरे बाबूजी अपनी कार्य-कुशलता एवं योग्यता के कारण लोकप्रिय रहे. उनका बचपन गरीबी एवं कठिनाई भरा था. अपने सरल स्वभाव के चलते वे बड़ी आसानी से लोगों से घ

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हमारे पिताजी और मेरी स्मृतियाँ -अमरेश चन्द्र

26 फरवरी 2022
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 मेरा बचपन अधिकांशतः अमरपुरा में बीता है इस कारण प्रथम 10 वर्ष तक मैं पिताजी के अनुशासन और स्नेह से प्रायः वंचित रहा. परन्तु मेरे जीवन पर पिताजी का गहरा प्रभाव रहा है. पिताजी की बहुत सी बातें हैं जो

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मैं और मेरे पिताजी - चंद्रमाला शौर्य

26 फरवरी 2022
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 मैं अपने पिताजी कि लाडली बेटी थी . जहाँ तक मुझे याद है वो मुझे बताते थे, मेरे जन्म पर वे पुरे गाँव में लड्डू बटवाए थे | चुकि मैं अपने तीनों भईया से छोटी थी इसलिए मैं पुरे परिवार की लाडली बन कर रही | 

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मेरे ससुर जी और मैं – कुमारी सुषमा

26 फरवरी 2022
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 मेरी शादी अमरपुरा के श्री राम नरेश सिंह के मंझले पुत्र कुणाल योगेश चन्द्र से तय हुई थी. इस शादी में अगुआ मेरे चचेरे जीजा जी करहारा के श्री बलराज सिंह थे जो कि मेरे पति के मौसेरे भाई भी हैं. मेरी शाद

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श्रधेय श्री नरेश बाबू के शोकसभा (25.10.18) में आए कुछ आगंतुकों के आपके प्रति उद्गार

26 फरवरी 2022
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 1. आँखों में अश्क लिये ; इधर-उधर ढूंढता हूँ | जब नहीं पाता हूँ ; तो खुद को समझाता हूँ || तेरी यांदों को हृदय में संजोय ; अश्क को घूंट –घूंट पीता हूँ ||”  -अजित कुमार सिन्हा, अमरपुरा   2. “सन 1956

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