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मेरे ससुर जी और मैं – कुमारी सुषमा

26 फरवरी 2022

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 मेरी शादी अमरपुरा के श्री राम नरेश सिंह के मंझले पुत्र कुणाल योगेश चन्द्र से तय हुई थी. इस शादी
में अगुआ मेरे चचेरे जीजा जी करहारा के श्री बलराज सिंह थे जो कि मेरे पति के मौसेरे भाई भी हैं. मेरी शादी 14 दिसंबर 2004 में हुई थी. शादी से पहले पहली बार लड़की दिखाने के लिए चिड़िया घर, पटना में 17 जून 2004 को बुलाया गया था.
पसंद आने पर शादी तय कर दी गई थी. उस समय मेरे होने वाले ससुर वहां नहीं आये थे. वे 28 जुलाई 2004 को मुझे और मेरा घर देखने छतोई, कुर्था आये थे. उनके साथ आमोद जी, सुरेश भैया एवं दयानंद चाचा आये थे. पहली बार मैं उस दिन उनसे मिली. वे सभी परिवार से मिलकर खुश हुए थे. नए होने वाले समधी के रूप में उनका जोरदार स्वागत किया गया था. खाने-पीने की भी अच्छी व्यवस्था की गई थी. वे लोग शनिवार के शाम में वह पहुंचे थे. सुबह रविवार को लड़की देखे. पता
चला कि समधी जी रविवार को नमक नहीं खाते हैं. दो तरह का खाना बनना शुरू हो गया. एक नमक डला हुआ खाना बना, तथा दूसरा मैं नहा कर बिना नमक डला मीठा खाना बनाई. खाना खाते-खाते अगल-बगल चटपटा खाना देखकर मेरे
ससुर जी भी नमक वाले खाना खाने लगे. जब ससुर जी खाना खा कर दालान पर चले गए. तो मेरे बाबूजी हँसते-हँसते बोले, ” नरेश बाबू तो खाना देखकर, नमक वाला भी खाना खा लिये.” मैं बोली, “ मुझे नहाकर खाना बनाना फालतू हुआ.” सब ठीक ठाक रहा. उसी समय छेका के लिए सावन चतुर्दर्शी को 29 अगस्त 2004 की तारीख तय कर दी गई. बिदाई के समय सभी को शर्ट, पैंट देकर विदा किया गया. 

  दूसरी बार मैं उनसे छेका के समय बिरला मंदिर, पटना में मिली.. तिलक का कार्यक्रम 10 दिसंबर को था. मेरे ससुर जी अपने चचेरे भाइयों को भी इतनी इज्जत देते थे कि उन्होंने अपने मंझले लड़के के शादी में तिलक के समय अपने बड़े चचेरे भाई श्री राम प्रसाद सिंह को अपनी जगह तिलक के रश्म के लिए बैठाये थे. तिलक में सभी का अच्छे से स्वागत किया गया था. सुबह में सभी अतिथियों को छोले-बटूरे खिलाकर विदा किया गया. शादी के लिए भैया बारात लेकर छतोई नहीं जाना चाहते थे उन्हें लगता था कि कुर्था नक्सल प्रभावित क्षेत्र है. वे पटना होटल में शादी का कार्यक्रम करवाना चाहते थे. उनकी दादी को लगता था कुर्था बहुत दूर है तथा कहा करती थी कि दक्षिण में 80 कोस दूर शादी तय किये हो. मेरे बाबूजी अपने समधी से बोले,“नरेश बाबू आप बेझिझक बारात ले कर आईये, किसी तरह का इधर डर नहीं है. मेरे घर में मेरी सबसे छोटी बेटी की शादी है. मुंह छिपाकर पटना में जाकर शादी कैसे कर सकता हूँ, लोग क्या कहेंगे, किस-किस को क्या जवाब दूंगा.” ये सब सुनकर मेरे ससुरजी तैयार हो गए और धूम-धाम से 14 दिसंबर को बारात लेकर छतोई पहुँच गए. बारात में
ऑर्केस्ट्रा का भी इंतजाम था. बारातियों का खूब स्वागत किये. अच्छे से शादी संपन हो गई. सुबह में सभी बारातियों को मालपुआ खिलाकर विदाई किया गया. जो ससुरजी को बहुत पसंद आया. मैं शादी के बाद 15 दिसंबर को पहली बार अपने ससुराल गई. उस समय मैं एक महीने तक वहां रही. मैं, मेरे पति, ससुर जी, दादी और ननद साथ में रहती थी. मेरे
देवर आमोदजी उस समय पटना रहते थे. वे शनिवार, रविवार को आते थे. माँ 18 दिसंबर को ही आंख दिखाने के लिए भैया के साथ दिल्ली चली गई थी. और करीब 5 फ़रवरी 2005 को दिल्ली से अमरपुरा वापस आई थी. उनदिनों मैं जबतक ससुराल में रही खाना बनाती थी. दादी थोड़ी मदद कर देती थी. मैं अपने ससुर जी को पापा कहा करती थी. मैं पापा (अपने ससुर) को डरते-डरते खाना खिलाती थी. क्योंकि मुझे पापा का खाना का पसंद पता नहीं था. मैं दादी से पापा के खाने का पसंद पूछते रहती थी. मेरे बनाये खाना पापा को पसंद आता था. और धीरे-धीरे अपना पसंद बताने लगे थे.  

मैं अक्तूबर 2010 में सोहम के जन्म से पहले तक अक्सर ससुराल जाया करती थी और वहाँ रहती थी. बीच-बीच में अपने पति के पास एवं मायके भी जाया करती थी. शादी के समय मेरे पति उज्जैन में रहते थे. सोहम का
जन्म इंदौर में हुआ था. उस समय हमलोगों के साथ आमोदजी भी वहीँ रहते थे. सोहम के जन्म के समय माँ 25 सितम्बर को इंदौर आई थी एवं 15 अक्टूबर को आमोद जी के साथ घर वापस लौट गई थी. जब भी मैं ससुराल आती थी तो पापा दिन का खाना खाकर बैठते तो मुझसे बातें किया करते थे. वे अपने पूर्वजों और घराने के बारे में बताते थे. वे अपने बाबूजी, माँ, चारों बच्चे तथा अपनी पत्नी के बारे में बताते रहते थे. उन्हें बातें करना पसंद था. फ़ोन पर भी हमेशा बातें करते रहते थे. अपने बेटे से तो जल्दी ही बातें खत्म कर लेते थे.लेकिन मैं ही देर तक उनसे बातें करती थी. वे मेरे बच्चों के पढाई के बारे में
और मायके के लोग के बारे में पूछते रहते थे. मेरे ससुरजी का मेरे बाबूजी के साथ बहुत अच्छा सम्बन्ध था. वे बोलते थे कि ये
समधी ही मेरे जैसे हैं. दोनों का सब कुछ एक-दुसरे से मिलता है. सबको मदद करना, अर्जक संघ को मानने वाले, जगदेव प्रसाद के समर्थक और मिलनसार हम दोनों हैं. मेरे बाबूजी की अचानक हृदयघात के चलते मृत्यु 7 फ़रवरी 2008 को भोर में हुई थी. उस समय मैं मायके में ही थी. मेरी माँ का एवं मेरा रो-रोकर बुरा हाल हो गया था. ये खबर सुनकर मेरे ससुरजी बहुत दुखी हुए थे. खबर मिलते ही वे सोनुजी के साथ बाइक से मेरे मायके छतोई आ गए थे. मेरे पति उस समय कलकत्ता में मास्टर डिग्री कोर्स कर रहे थे. जो कि दुसरे दिन दाह-संस्कार के समय पहुंचे थे. 

मैं जब भी ससुराल जाती थी तो पापा के पसंद का खाना बनाकर उन्हें खिलाती थी. गुड़ का जलेबी दादाजी के पुण्यतिथि पर बनाती थी. उसी से पूजा होता और पड़ोसियों के प्रसाद के रूप में जाता था. मैं जब भी वहां जाती थी, वे लिट्टी जरुर बनवाते थे और बोलते, पहले तो मैं पन्द्रह से ज्यादा लिट्टी खा जाता था, पर अब नहीं पचता है.” मैं जिन्दगी भर उनको इज्जत
देती रही तथा वे भी मेरे मिलनसार व्यवहार से हमेशा खुश रहते थे.  

सुकून का कुछ जन्मदिन एवं सोहम का पहला जन्म दिन ससुराल में ही मनाई थी. दादी भी सोहम के पहला जन्मदिन
मनाने में शामिल थी. पापा बहुत खुश होते थे. पहले हमलोग हमेशा पर्व में घर पहुँचती थे. पापा को जब फ़ोन करती थी तो घर आने का पूछते रहते थे. जब हमलोग घर जाते थे तो बच्चों से पढाई के बारे जरुर पूछा करते थे. बच्चों को किताब पढ़कर सुनाने तथा कुछ लिखने के लिए बोलते थे. वे बच्चों से पूछते थे कि बड़ा होकर क्या बनना है. 

13 अप्रैल 2012 को दादी की मृत्यु हो गई. 10 अप्रैल को जब मैं घर पर फोन की तो पता चला कि दादी अब खाना भी नहीं खा रही हैं. हमलोग उसी दिन तत्काल रेलवे टिकट बुक कर लिये. 11 अप्रैल को हमलोग घर के लिए रवाना हो गए. लेकिन टिकट कन्फर्म न हो सका. ट्रेन में बहुत भीड़ थी. मेरे पति की तबियत ख़राब हो गई थी. हमलोग 13 अप्रैल को सुबह घर पहुँच गए. हमलोग दादी से मिलने गए तो माँ बोली कि कुछ देर पहले दादी रामायण सुनकर सो गई हैं. हमलोग दादी को
जगाने की कोशिश किये लेकिन नहीं जगी क्योंकि वो चिर निंद्रा में सो चुकी थी. हमलोग पछताते रह गए. उस समय दादी के भतीजा सरबदीपुर के मोहन चाचा भी आये हुए थे.  

फ़रवरी 2016 में पापा, माँ एवं भैया के साथ मेरे पास मेवात आये थे तो हमसभी साथ में मथुरा, वृन्दावन एवं आगरा
घुमने गए थे. आगरा में ताजमहल देखने के अलावा हमलोग राधा स्वामी आश्रम में रुके थे क्योंकि उस समय मेरी दीदी के बेटी के ससुर बेदौली के श्री वीरेंदर बाबू अपनी पत्नी के साथ वहां गए हुए थे. पापा ही मेरी दीदी की बेटी की शादी में अगुआ थे. मुझे सभी परिवार के साथ घूमना अच्छा लगा था. हम सभी मेडिकल कॉलेज के पास अरावली पहाड़ पर एवं शिव मंदिर भी घुमने गए थे. 

मुझे मेरे देवर की शादी के समय पापा के साथ का एक मनोरंजक घटना याद है. 24 नवम्बर 2016 को शादी थी, हम सभी
बारात में गए थे. हमारे यहाँ शादी में साली द्वारा अपने नए जीजा का जूता चोरी का रश्म होता है. पापा और लोगों के साथ जलमासा में बैठे थे. ‘द्वार’ लगाने जाने से पहले पापा अपना जूता पहनने लगे तो उनका एक जूता नहीं मिल रहा था. सभी लोग तथा पापा के साला साहब भी जूता ढूँढने में लगे थे. अचानक उनके मंझले साला साहब का ध्यान अपने पैरों पर गया. उनके एक पैर में अपना सैंडल तथा दुसरे पैर में पापा का जूता था. सभी लोग ये तमाशा देखकर खूब हँसे थे. यहाँ तो दुल्हे के पिताजी की जूता चोरी उनके साला द्वारा हो गई थी. वैसे शादी के समय मेरे देवर के जूते चोरी की रश्म भी
उनके सालियों ने की थी. बाद में घर आने के बाद पापा के छोटी साली ने हँसते हुए पापा से जूता चोरी के एवज में इनाम ली.
इस तरह ये घटना यादगार बन गई.   अंतिम बार पापा छतोई जून 2017 में मुझे अमरपुरा लाने के लिए गए थे. वहां सभी से
मिलकर खुश हुए थे. मैं अंतिम बार पापा से 7 अप्रैल 2018 को मिली. वे 6 अप्रैल को करनाल आये थे तथा 7 अप्रैल को ही वापस चले गए थे उन्हें यहाँ क्वार्टर एवं कैंपस बहुत अच्छा लगा था. वे यहाँ से कुरुक्षेत्र घुमने गये. दुसरे दिन पापा को बस स्टैंड तक छोड़ने मेरे पति और बच्चे सुकून एवं सोहम भी गए. जाने से थोड़ी देर पहले ही बिल्डिंग के नीचे उतरकर वे बोले की बच्चों के साथ मेरा फोटो खिंच दीजिए. मैंने फोटो खिंची तथा कार में बैठाकर विदा कर दी. ये मुझे नहीं पता था कि ये मेरे तरफ से अंतिम विदाई थी. 13 अक्तूबर 2018 को पापा पौने 10 बजे रात में हृदयाघात के चलते अपने निवास
स्थान अमरपुरा में संसार को अलविदा कर दिए. ये बुरी खबर सुनकर हमलोग बहुत दुखी हुए थे. तथा तुरंत ही हमलोग घर के लिए रवाना हो गए थे. मैं सच्चे भाव से उनको श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ तथा ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ उनकी आत्मा को शांति मिले. 

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रचनाएँ
कर्मयोगी नरेश बाबू
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जिनका जन्म हुआ है उनकी मृत्यु भी निश्चित है | जीवन-मृत्यु प्रकृति का शाश्वत सत्य है | जिस तरह बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता, उसीतरह जो दिवंगत हो जाते हैं, कभी नहीं लौटते | मात्र उनकी यादें हमारे मानस पर बरबस आती रहती है | उनकी क्रियाकलापें, उनकी बातें, उनकी स्मृतियाँ हमेशा ही हमारे अंतर्मन में आती रहती है | फिर वही स्मृतियाँ हम अपने आने वाली संतानों को बताते हैं, यह प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है, जो स्मृतियाँ उपयोगी होती है अनेक पीढ़ियों तक चलती है, जबकि कुछ यादें एक ही पीढ़ी में समाप्त हो जाती है | मेरी यह किताब, मेरे बाबूजी और पूर्वजों की स्मृतियों को सहेजने की एक छोटी सी कोशिश है | बाबूजी का पूरे परिवार को आगे बढ़ाने में महानतम योगदान रहा है. बाबूजी ने हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके परिणामस्वरूप हम सभी ने एक अच्छा मुकाम हासिल किया| आज हम जो कुछ भी हैं, यह बाबूजी के दूरदर्शिता के बिना संभव नहीं था | हम चारो भाई-बहन को उच्च शिक्षा प्रदान कर उन्होंने एक ऐसी परम्परा की नींव रखी है जो आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम करेगी | उन्होंने हमें पढ़ा-लिखाकर ऐसे अवसर प्रदान किये जो उन्हें स्वयं के जीवन में कभी नहीं मिले थे | बाबूजी के शिक्षा के प्रति अथाह लगाव के कारण ही मैं आज इस किताब को लिखने में अपने को सक्षम पा रहा हूँ | बड़े लोगों की जीवनी तो आप सभी जगह पा सकते हैं किन्तु साधारण आदमी, सिर्फ कहानी का पात्र बनता है | मैंने बाबूजी के इस ‘जीवनी’ के माध्यम से एक साधारण आदमी को मुख्य किरदार के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश किया हूँ | मेरे बाबूजी अकसर मुझे अपने पूर्वजों के बारे में बताते रहते थे, इस किताब में बाबूजी से प्राप्त जानकारियों को समेकित किया गया है | बाबूजी के जीवनी लिखने के लिए मैंने अपनी माँ, भाइयों के अलावा बाबूजी के दोस्त श्री प्रेमचंद, श्री रामानंद वर्मा, श्री शिवसमन तिवारी, श्री गजाधर और अनेक सम्बन्धियों से जानकारी प्राप्त किया | इस जीवनी को लिखने में मुझे अपने भाइयों श्री कुणाल (प्रमोद) और श्री अमरेश (आमोद), बहन श्रीमती चंद्रमाला से भी अपेक्षित सहयोग मिला | इस पुस्तक को लिखने में मुझे अपने मित्र श्री राजीव सारस्वत, दिल्ली के पिताजी के द्वारा लिखित “स्मृतियाँ” से भी अपेक्षित मार्गदर्शन मिला | बाबूजी का यह जीवनी अनेक चैप्टर में विभाजित है | इसमें कुछ चैप्टर पूर्वजो से जुड़ी घटनाओं का वर्णन है | इसमें बाबूजी के जन्म से लेकर मृत्यु तक घटनाओं का वर्णन किया गया है | इस किताब में मेरे छोटे भाइयों, बहन और मंझले भाई की पत्नी (भभू) का बाबूजी के प्रति विचार को भी जगह दी गयी है | परिवार के जिन सदस्यों ने अपने संस्मरण लिखे हैं, उनसे इस प्रस्तुति को पूर्णता प्राप्त हुई है, जिससे इसकी पठनीयता बढ़ी है | किताब के अंत में, बाबूजी के दोस्तों और शुभचिंतकों के भाषण का कुछ अंश दिया गया है, जो उन्होंने बाबूजी के शोकसभा के दिन दिया था | इस किताब में बाबूजी के कुछ तस्वीरें भी दी गयी है | उनके कुछ दोस्तों और सम्बन्धियों के भी यादगार तस्वीरों को इस पुस्तक में जगह दी गयी है | इस पुस्तक को आपके हाथ में पहुँचाने तक उपरोक्त महानुभावों के अलावा मेरे मित्र श्री अभय कुमार, दिल्ली एवं श्री शिव शंकर प्रसाद, निसरपुरा, पटना ने प्रूफरिडिंग के अतिरिक्त शब्द एवं वाक्य विन्यास को समुन्नत किया है | सुरेश भैया, गया ने इस पुस्तक की प्रिंटिंग में सहयोग किया, जबकि मनीष जी (बहनोई) का तस्वीर चुनने और सही जगह रखने में अपेक्षित सहयोग मिला | संकलन के विभिन्न स्तरों पर उक्त सदस्यों के सृजनात्मक सहयोग, श्रम एवं उत्साहपूर्ण योगदान से नरेश बाबू की जीवनी “कर्मयोगी नरेश बाबू” अपने वर्तमान स्वरूप आ सका है , इसका श्रेय इन्हीं सदस्यों को जाता है | आभार प्रकट करना उनके निश्छल स्नेह, आदर और प्रयास को कम करना होगा | भगवान से प्रार्थना है कि उनका जीवन मंगलमय हो | मुझे विश्वास है कि यह किताब से आने वाली पीढ़ी पूर्वजों के बारे में जान सकेगी | इससे उन्हें अपने कर्मों को सुविचारित रूप से पूर्ण करने में सहयोग मिलेगा | इस संस्मरणों को लिखने में, प्रस्तुतिकरण में, यथासंभव, मैं सही और शुद्ध लिखने की कोशिश किया हूँ, फिर भी कुछ त्रुटी रह गयी हो, तो मुझे क्षमा करें | और इस पुस्तक से जो कुछ भी ग्राह्य है, उसे पूर्वजों के आशीर्वाद समझकर अवश्य ग्रहण करें |
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पितृ-स्तुति

26 फरवरी 2022
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ॐ नमःपित्रे जन्मदात्रे सर्व देव मयाय च | सुखदायप्रसन्नाय सुप्रिताय महात्मने ||1|| सर्वयज्ञ स्वरूपाय स्वर्गाय परमेष्ठिने | सर्वतिर्थावलोकाय करुणा सागराय च ||2|| नमःसदा शुतोषाय शिव रूपाय ते नमः | स

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वर्तमान अमरपुरा

26 फरवरी 2022
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  बिहार की राजधानी पटना के फुलवारी शरीफ़ से करीब 10 किलोमीटर दक्षिण नौबतपुर थाना में अमरपुरा गांव बसा है इसके दक्षिण तरफ नहर है और उत्तर तरफ नौबतपुर प्रखंड कार्यालय और मोहनिपोखर गाँव है पूर्व तरफ आरोपु

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अमरपुरा और इतिहास

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  जब अंग्रेजों का शासन जोरों पर था और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी भारत को स्वतंत्र कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे. अंग्रेज एक तरफ द्वितीय विश्व युद्ध में फंसे थे तो दूसरी तरफ भारतीय स्वतं

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पांडे जी

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 बचपन में नरेश बाबू का धार्मिक पूजा अनुष्ठान में बड़ी रूचि थी, वे अनंत पूजा, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी इत्यादि त्योहारों में उपवास भी रखते थे और पूरी भक्ति भावना से पूजा अर्चना करते। इसके अलावा सरस्वती पूजा

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बाबू जी एवं माँ

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 आपके पिता श्रधेय  श्री राम उग्रह सिंह बहुत ही उग्र स्वाभाव के व्यक्ति थे। वे करीब छह फुट लम्बा और रंग गेहुआ था। वे शारीरिक रूप से काफी मजबूत और काफी ताकतवर व्यक्ति थे। वे तीन लोग से उठ सकने वाले बोझो

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व्यवसाय

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 भारत एक कृषि प्रधान देश है, आपके घर का भी मुख्य व्यवसाय कृषि ही था। किन्तु जब आपके घर का मालिकाना हक़ पढ़े लिखे होने के कारण श्रधेय श्री शीतल प्रसाद को दे दिए गए, तो उन्होंने अन्य व्यवसाय को भी बढ़ावा द

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आपकी शादी

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 अमरपुरा गाँव में बाल विवाह नहीं के बराबर होता था, स्त्रियों को भी शिक्षा प्रदान किया जाता था। स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव या छुआछूत जैसी बुराईयों से यह गाँव दूर था। मास्टर  श्री घनश्याम इसके उदाहरण थे

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जगदेव बाबू और आप

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 जगदेव बाबू 1968 में बिहार सरकार में मंत्री बने, उसके बाद उनकी पार्टी शोषित समाज दल का प्रसार अमरपुरा में भी बढ़ा। आप भी उनके विचारों और सिद्धान्तों से प्रभावित थे। आपके साथ  श्री रजनधारी सिंह,  श्री ओ

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गया प्रवास

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 1969 में खादी ग्रामोद्योग मधुबनी में सहायक के रूप में कार्य किये फिर 1972 में बिहार कॉपरेटिव फेडरेशन में कार्यकर्ता के लिए ट्रेनिंग लिए और कार्य शुरू किये । 1976 में लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय सो

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शिक्षक की भूमिका में

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 ऐसा कहा जाये कि आपके अंदर बचपन से ही शिक्षक का गुण था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आप अपने छात्र जीवन से ही अपने दोस्तों को पढ़ाते रहते थे. आप अपने साले श्रधेय श्री शम्भू प्रसाद को भी पढ़ाया. वे बताते

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स्कूल, आप और परिवार

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 आपने स्कूल को अपना लिया और स्कूल ने आपको। शुरू में आप स्कूल से 1 किमी दूर बने सोहैपुर कम्युनिटी हॉल में रहे फिर बाद में स्कूल के हॉस्टल में रहने लगे। आप अपने अमरपुरा के संस्कार और व्यवहार सोहैपुर गया

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अमरपुरा के उमस

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 मानसून की उमस को याद करते हुए, श्रधेय श्रीमती सुमित्रा देवी बताती हैं कि सावन की दूसरी सोमवारी का उमस भरा दिन था, रात में भी बहुत गर्मी थी न हवा चल रही थी न बारिश ही हो रही थी। रात में खाना खाने के ब

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शिक्षक की ईमानदारी

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 आप अमरपुरा में नाटक मंचन में सहयोग अवश्य करते थे. आप खुद कोई पात्र नहीं बनते थे किन्तु अन्य कार्य जैसे नाटक चयन, चंदा मांगने एवं देने में सहयोग करते थे. सर्वश्री परमेश्वर नारायण, भूपेंद्र सिंह, विजय

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आपके पिताजी का इंतकाल

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 1983-84 आते-आते आपके पिताजी श्रधेय श्री राम उग्रह सिंह काफ़ी थक चुके थे. इसी बीच घर में बंटवारा उन्हें और बुड्ढा बना दिया था. और इसी बीच आपकी छोटी चाची श्रद्धेया श्रीमती महेश्वरी देवी की अचानक मृत्यु

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गया में गृह-निर्माण

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 1991 में गया के लखीबाग, मानपुर में आपने जमीन खरीद ली थी. आपके साथ-साथ सोहैपुर हाई स्कूल के अनेक शिक्षक जैसे श्रधेय  श्री सहजा बाबू, श्रधेय  श्री विरेन्द्र बाबू, श्री विजय बाबू, श्री रामभजू बाबू इत्या

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सेवा-निवृति

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 1998 तकआपके बड़े बेटे चंद्रगुत(विनोद) ने साइंस में स्नातक के बाद सिविल इंजीनियरिंग में दुमका पोलिटेक्निक से डिप्लोमा कर लिया. जबकि आपका मंझला बेटा कुणाल (प्रमोद) ने 2000 में कलकत्ता विश्वविध्यालय से प

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घर-वापसी

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 हाँ ! घर-वापसी ही , क्योंकि श्रद्धेय नरेश बाबू जब से सोहैपुर , गया के लीला महतो स्मारक उच्च विद्यालय में ज्वाइन किया था , स्कूल के आस-पास अपने सहशिक्षकों के साथ रहते थे , खुद खाना बनाना और खुद ही अपन

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माताजी और सेवा

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 2010 साल का आश्विन महीना था, थोड़ी-थोड़ी ठंढ हो रही थी, लेकिन बूढ़ी हड्डी में ठंढ कुछ ज्यादा ही लगती है । आपकी माताजी श्रद्धेय मुंगेश्वरी देवी 93 वर्ष की हो चुकीं थीं । उस दिन तेज हवा बह रही थी, जिससे आ

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लकवा

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 जब आपकी बेटी की भी पारामेडिकल के कंपेटिसन में सेलेक्सन हो गया और उसे स्पीच थेरेपी में ग्रेजुएशन में एड्मिशन के लिए आया तो आप बहुत खुश हुए थे, उस समय आपका मंझला लड़का उसी कालेज के कैम्पस में नेशनल इं

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हैदराबाद यात्रा

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 लकवा से उबरने के बाद आप पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे । या यों कहें कि आप पहले से ज्यादा स्वस्थ हो गए थे । अंतर यही हुआ था कि अब आपके साथ दवा की एक पोटली साथ हो गया । लकवा मारने से करीब एक साल पहले 2015

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बाबूजी का दिल्ली और करनाल भ्रमण

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 जब आपका पोते इशांक का फुटबॉल खेलते समय 24 मार्च 2018 को हाथ टूट गया तो आपलोग बहुत परेशान हुए. आप उससे मिलने के लिए उतावले हो रहे थे. उस समय आपके मंझले लड़के प्रमोद अपने परिवार के साथ घर आया हुआ था. आप

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अंतिम भ्रमण

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 ऐसा लगता है आपके पास समय की कमी थी. आपको इसका अहसास भी हो गया था. तभी तो आप अपनी जान पहचान के लोगों से  जल्दी-जल्दी मिल लेना चाह रहे थे. जब आपसे मिलने आपके बड़ी साली श्रीमती सोना देवी, बाजितपुर की पुत

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गुरूजी चले गये

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 गुरूजी चले गए?  बाबूजी चले गए?  पिताजी चले गए.  दादाजी चले गए. नरेश बाबू चले गए.  यही बातें अमरपुरा गांव में चल रही थी 13 ओक्टुबर 2018 को रात 10 बजे से. फोन पर भी यही बातें हो रही थी. सभी लोगों

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अंतिम यात्रा

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 इस समय रात के करीब पौने दस बजे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. घर पर आपकी पत्नी और बेटी आपके सकुशल लौटने की भगवान से प्रार्थना कर रहे थे. किन्तु जैसे ही आपका निष्प्राण शरीर पहुंचा, घर पूरा अशांत हो गया. आप

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मेरी नजरों में हमारे बाबूजी ------ कुणाल योगेश चन्द्र

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 एक साधारण एवं गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद भी मेरे बाबूजी अपनी कार्य-कुशलता एवं योग्यता के कारण लोकप्रिय रहे. उनका बचपन गरीबी एवं कठिनाई भरा था. अपने सरल स्वभाव के चलते वे बड़ी आसानी से लोगों से घ

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हमारे पिताजी और मेरी स्मृतियाँ -अमरेश चन्द्र

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 मेरा बचपन अधिकांशतः अमरपुरा में बीता है इस कारण प्रथम 10 वर्ष तक मैं पिताजी के अनुशासन और स्नेह से प्रायः वंचित रहा. परन्तु मेरे जीवन पर पिताजी का गहरा प्रभाव रहा है. पिताजी की बहुत सी बातें हैं जो

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मैं और मेरे पिताजी - चंद्रमाला शौर्य

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 मैं अपने पिताजी कि लाडली बेटी थी . जहाँ तक मुझे याद है वो मुझे बताते थे, मेरे जन्म पर वे पुरे गाँव में लड्डू बटवाए थे | चुकि मैं अपने तीनों भईया से छोटी थी इसलिए मैं पुरे परिवार की लाडली बन कर रही | 

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मेरे ससुर जी और मैं – कुमारी सुषमा

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 मेरी शादी अमरपुरा के श्री राम नरेश सिंह के मंझले पुत्र कुणाल योगेश चन्द्र से तय हुई थी. इस शादी में अगुआ मेरे चचेरे जीजा जी करहारा के श्री बलराज सिंह थे जो कि मेरे पति के मौसेरे भाई भी हैं. मेरी शाद

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श्रधेय श्री नरेश बाबू के शोकसभा (25.10.18) में आए कुछ आगंतुकों के आपके प्रति उद्गार

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 1. आँखों में अश्क लिये ; इधर-उधर ढूंढता हूँ | जब नहीं पाता हूँ ; तो खुद को समझाता हूँ || तेरी यांदों को हृदय में संजोय ; अश्क को घूंट –घूंट पीता हूँ ||”  -अजित कुमार सिन्हा, अमरपुरा   2. “सन 1956

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