मेरी शादी अमरपुरा के श्री राम नरेश सिंह के मंझले पुत्र कुणाल योगेश चन्द्र से तय हुई थी. इस शादी
में अगुआ मेरे चचेरे जीजा जी करहारा के श्री बलराज सिंह थे जो कि मेरे पति के मौसेरे भाई भी हैं. मेरी शादी 14 दिसंबर 2004 में हुई थी. शादी से पहले पहली बार लड़की दिखाने के लिए चिड़िया घर, पटना में 17 जून 2004 को बुलाया गया था.
पसंद आने पर शादी तय कर दी गई थी. उस समय मेरे होने वाले ससुर वहां नहीं आये थे. वे 28 जुलाई 2004 को मुझे और मेरा घर देखने छतोई, कुर्था आये थे. उनके साथ आमोद जी, सुरेश भैया एवं दयानंद चाचा आये थे. पहली बार मैं उस दिन उनसे मिली. वे सभी परिवार से मिलकर खुश हुए थे. नए होने वाले समधी के रूप में उनका जोरदार स्वागत किया गया था. खाने-पीने की भी अच्छी व्यवस्था की गई थी. वे लोग शनिवार के शाम में वह पहुंचे थे. सुबह रविवार को लड़की देखे. पता
चला कि समधी जी रविवार को नमक नहीं खाते हैं. दो तरह का खाना बनना शुरू हो गया. एक नमक डला हुआ खाना बना, तथा दूसरा मैं नहा कर बिना नमक डला मीठा खाना बनाई. खाना खाते-खाते अगल-बगल चटपटा खाना देखकर मेरे
ससुर जी भी नमक वाले खाना खाने लगे. जब ससुर जी खाना खा कर दालान पर चले गए. तो मेरे बाबूजी हँसते-हँसते बोले, ” नरेश बाबू तो खाना देखकर, नमक वाला भी खाना खा लिये.” मैं बोली, “ मुझे नहाकर खाना बनाना फालतू हुआ.” सब ठीक ठाक रहा. उसी समय छेका के लिए सावन चतुर्दर्शी को 29 अगस्त 2004 की तारीख तय कर दी गई. बिदाई के समय सभी को शर्ट, पैंट देकर विदा किया गया.
दूसरी बार मैं उनसे छेका के समय बिरला मंदिर, पटना में मिली.. तिलक का कार्यक्रम 10 दिसंबर को था. मेरे ससुर जी अपने चचेरे भाइयों को भी इतनी इज्जत देते थे कि उन्होंने अपने मंझले लड़के के शादी में तिलक के समय अपने बड़े चचेरे भाई श्री राम प्रसाद सिंह को अपनी जगह तिलक के रश्म के लिए बैठाये थे. तिलक में सभी का अच्छे से स्वागत किया गया था. सुबह में सभी अतिथियों को छोले-बटूरे खिलाकर विदा किया गया. शादी के लिए भैया बारात लेकर छतोई नहीं जाना चाहते थे उन्हें लगता था कि कुर्था नक्सल प्रभावित क्षेत्र है. वे पटना होटल में शादी का कार्यक्रम करवाना चाहते थे. उनकी दादी को लगता था कुर्था बहुत दूर है तथा कहा करती थी कि दक्षिण में 80 कोस दूर शादी तय किये हो. मेरे बाबूजी अपने समधी से बोले,“नरेश बाबू आप बेझिझक बारात ले कर आईये, किसी तरह का इधर डर नहीं है. मेरे घर में मेरी सबसे छोटी बेटी की शादी है. मुंह छिपाकर पटना में जाकर शादी कैसे कर सकता हूँ, लोग क्या कहेंगे, किस-किस को क्या जवाब दूंगा.” ये सब सुनकर मेरे ससुरजी तैयार हो गए और धूम-धाम से 14 दिसंबर को बारात लेकर छतोई पहुँच गए. बारात में
ऑर्केस्ट्रा का भी इंतजाम था. बारातियों का खूब स्वागत किये. अच्छे से शादी संपन हो गई. सुबह में सभी बारातियों को मालपुआ खिलाकर विदाई किया गया. जो ससुरजी को बहुत पसंद आया. मैं शादी के बाद 15 दिसंबर को पहली बार अपने ससुराल गई. उस समय मैं एक महीने तक वहां रही. मैं, मेरे पति, ससुर जी, दादी और ननद साथ में रहती थी. मेरे
देवर आमोदजी उस समय पटना रहते थे. वे शनिवार, रविवार को आते थे. माँ 18 दिसंबर को ही आंख दिखाने के लिए भैया के साथ दिल्ली चली गई थी. और करीब 5 फ़रवरी 2005 को दिल्ली से अमरपुरा वापस आई थी. उनदिनों मैं जबतक ससुराल में रही खाना बनाती थी. दादी थोड़ी मदद कर देती थी. मैं अपने ससुर जी को पापा कहा करती थी. मैं पापा (अपने ससुर) को डरते-डरते खाना खिलाती थी. क्योंकि मुझे पापा का खाना का पसंद पता नहीं था. मैं दादी से पापा के खाने का पसंद पूछते रहती थी. मेरे बनाये खाना पापा को पसंद आता था. और धीरे-धीरे अपना पसंद बताने लगे थे.
मैं अक्तूबर 2010 में सोहम के जन्म से पहले तक अक्सर ससुराल जाया करती थी और वहाँ रहती थी. बीच-बीच में अपने पति के पास एवं मायके भी जाया करती थी. शादी के समय मेरे पति उज्जैन में रहते थे. सोहम का
जन्म इंदौर में हुआ था. उस समय हमलोगों के साथ आमोदजी भी वहीँ रहते थे. सोहम के जन्म के समय माँ 25 सितम्बर को इंदौर आई थी एवं 15 अक्टूबर को आमोद जी के साथ घर वापस लौट गई थी. जब भी मैं ससुराल आती थी तो पापा दिन का खाना खाकर बैठते तो मुझसे बातें किया करते थे. वे अपने पूर्वजों और घराने के बारे में बताते थे. वे अपने बाबूजी, माँ, चारों बच्चे तथा अपनी पत्नी के बारे में बताते रहते थे. उन्हें बातें करना पसंद था. फ़ोन पर भी हमेशा बातें करते रहते थे. अपने बेटे से तो जल्दी ही बातें खत्म कर लेते थे.लेकिन मैं ही देर तक उनसे बातें करती थी. वे मेरे बच्चों के पढाई के बारे में
और मायके के लोग के बारे में पूछते रहते थे. मेरे ससुरजी का मेरे बाबूजी के साथ बहुत अच्छा सम्बन्ध था. वे बोलते थे कि ये
समधी ही मेरे जैसे हैं. दोनों का सब कुछ एक-दुसरे से मिलता है. सबको मदद करना, अर्जक संघ को मानने वाले, जगदेव प्रसाद के समर्थक और मिलनसार हम दोनों हैं. मेरे बाबूजी की अचानक हृदयघात के चलते मृत्यु 7 फ़रवरी 2008 को भोर में हुई थी. उस समय मैं मायके में ही थी. मेरी माँ का एवं मेरा रो-रोकर बुरा हाल हो गया था. ये खबर सुनकर मेरे ससुरजी बहुत दुखी हुए थे. खबर मिलते ही वे सोनुजी के साथ बाइक से मेरे मायके छतोई आ गए थे. मेरे पति उस समय कलकत्ता में मास्टर डिग्री कोर्स कर रहे थे. जो कि दुसरे दिन दाह-संस्कार के समय पहुंचे थे.
मैं जब भी ससुराल जाती थी तो पापा के पसंद का खाना बनाकर उन्हें खिलाती थी. गुड़ का जलेबी दादाजी के पुण्यतिथि पर बनाती थी. उसी से पूजा होता और पड़ोसियों के प्रसाद के रूप में जाता था. मैं जब भी वहां जाती थी, वे लिट्टी जरुर बनवाते थे और बोलते, पहले तो मैं पन्द्रह से ज्यादा लिट्टी खा जाता था, पर अब नहीं पचता है.” मैं जिन्दगी भर उनको इज्जत
देती रही तथा वे भी मेरे मिलनसार व्यवहार से हमेशा खुश रहते थे.
सुकून का कुछ जन्मदिन एवं सोहम का पहला जन्म दिन ससुराल में ही मनाई थी. दादी भी सोहम के पहला जन्मदिन
मनाने में शामिल थी. पापा बहुत खुश होते थे. पहले हमलोग हमेशा पर्व में घर पहुँचती थे. पापा को जब फ़ोन करती थी तो घर आने का पूछते रहते थे. जब हमलोग घर जाते थे तो बच्चों से पढाई के बारे जरुर पूछा करते थे. बच्चों को किताब पढ़कर सुनाने तथा कुछ लिखने के लिए बोलते थे. वे बच्चों से पूछते थे कि बड़ा होकर क्या बनना है.
13 अप्रैल 2012 को दादी की मृत्यु हो गई. 10 अप्रैल को जब मैं घर पर फोन की तो पता चला कि दादी अब खाना भी नहीं खा रही हैं. हमलोग उसी दिन तत्काल रेलवे टिकट बुक कर लिये. 11 अप्रैल को हमलोग घर के लिए रवाना हो गए. लेकिन टिकट कन्फर्म न हो सका. ट्रेन में बहुत भीड़ थी. मेरे पति की तबियत ख़राब हो गई थी. हमलोग 13 अप्रैल को सुबह घर पहुँच गए. हमलोग दादी से मिलने गए तो माँ बोली कि कुछ देर पहले दादी रामायण सुनकर सो गई हैं. हमलोग दादी को
जगाने की कोशिश किये लेकिन नहीं जगी क्योंकि वो चिर निंद्रा में सो चुकी थी. हमलोग पछताते रह गए. उस समय दादी के भतीजा सरबदीपुर के मोहन चाचा भी आये हुए थे.
फ़रवरी 2016 में पापा, माँ एवं भैया के साथ मेरे पास मेवात आये थे तो हमसभी साथ में मथुरा, वृन्दावन एवं आगरा
घुमने गए थे. आगरा में ताजमहल देखने के अलावा हमलोग राधा स्वामी आश्रम में रुके थे क्योंकि उस समय मेरी दीदी के बेटी के ससुर बेदौली के श्री वीरेंदर बाबू अपनी पत्नी के साथ वहां गए हुए थे. पापा ही मेरी दीदी की बेटी की शादी में अगुआ थे. मुझे सभी परिवार के साथ घूमना अच्छा लगा था. हम सभी मेडिकल कॉलेज के पास अरावली पहाड़ पर एवं शिव मंदिर भी घुमने गए थे.
मुझे मेरे देवर की शादी के समय पापा के साथ का एक मनोरंजक घटना याद है. 24 नवम्बर 2016 को शादी थी, हम सभी
बारात में गए थे. हमारे यहाँ शादी में साली द्वारा अपने नए जीजा का जूता चोरी का रश्म होता है. पापा और लोगों के साथ जलमासा में बैठे थे. ‘द्वार’ लगाने जाने से पहले पापा अपना जूता पहनने लगे तो उनका एक जूता नहीं मिल रहा था. सभी लोग तथा पापा के साला साहब भी जूता ढूँढने में लगे थे. अचानक उनके मंझले साला साहब का ध्यान अपने पैरों पर गया. उनके एक पैर में अपना सैंडल तथा दुसरे पैर में पापा का जूता था. सभी लोग ये तमाशा देखकर खूब हँसे थे. यहाँ तो दुल्हे के पिताजी की जूता चोरी उनके साला द्वारा हो गई थी. वैसे शादी के समय मेरे देवर के जूते चोरी की रश्म भी
उनके सालियों ने की थी. बाद में घर आने के बाद पापा के छोटी साली ने हँसते हुए पापा से जूता चोरी के एवज में इनाम ली.
इस तरह ये घटना यादगार बन गई. अंतिम बार पापा छतोई जून 2017 में मुझे अमरपुरा लाने के लिए गए थे. वहां सभी से
मिलकर खुश हुए थे. मैं अंतिम बार पापा से 7 अप्रैल 2018 को मिली. वे 6 अप्रैल को करनाल आये थे तथा 7 अप्रैल को ही वापस चले गए थे उन्हें यहाँ क्वार्टर एवं कैंपस बहुत अच्छा लगा था. वे यहाँ से कुरुक्षेत्र घुमने गये. दुसरे दिन पापा को बस स्टैंड तक छोड़ने मेरे पति और बच्चे सुकून एवं सोहम भी गए. जाने से थोड़ी देर पहले ही बिल्डिंग के नीचे उतरकर वे बोले की बच्चों के साथ मेरा फोटो खिंच दीजिए. मैंने फोटो खिंची तथा कार में बैठाकर विदा कर दी. ये मुझे नहीं पता था कि ये मेरे तरफ से अंतिम विदाई थी. 13 अक्तूबर 2018 को पापा पौने 10 बजे रात में हृदयाघात के चलते अपने निवास
स्थान अमरपुरा में संसार को अलविदा कर दिए. ये बुरी खबर सुनकर हमलोग बहुत दुखी हुए थे. तथा तुरंत ही हमलोग घर के लिए रवाना हो गए थे. मैं सच्चे भाव से उनको श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ तथा ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ उनकी आत्मा को शांति मिले.