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अध्याय 12: मेरा बेटा

21 अगस्त 2023

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'अधूरी कहानी' की तरह इसकी प्रेरणा भी मैने हिन्दू-मुस्लिम समस्या में से पाई है। पंजाब में रहा हूं और इस समस्या की भयंकरता को मैंने देखा ही नहीं भोगा भी है। कैसे-कैसे इस समस्या ने मेरे मस्तिष्क पर प्रभाव डाला उसीका परिणाम यह कहानी है।

सिविल अस्पताल का नया सर्जन डाक्टर हसन जैसे ही कमरे में दाखिल हुआ, उसने किवाड़ बन्द कर लिए। ठण्डी हवा का झोंका, जो साथ-साथ अन्दर घुस आया था, क्षण भर के लिए उसके पिता को कंपाता हुआ गायब हो गया । डाक्टर ने एक गहरी सांस खींची और हाथ के दस्ताने उतारते हुए कहा, 'अब्बा, बड़ी खतरनाक हालत है !'

अब्बा जो पलंग पर लेटे थे, 'हूँ' करके रह गए। डाक्टर ने चुपचाप श्रोवर- कोट उतारा और खूंटी पर टांग दिया, फिर अंगीठी के पास जा खड़ा हुआ, बाहर सनसन करती हुई हवा चल रही थी और उस ठंड को, जिसके थपेड़े खाते हुए वह अभी लौटा था, याद करके उन्हें अब भी कंपकंपी भ्रा जाती थी । एकाएक धब्बा बोल उठे, 'अब तक कितने आदमी मर चुके होंगे ?'

डाक्टर ने जवाब दिया, 'अस्पताल में कुल तीस लाशें आई हैं ।'

'मोर जख्मी ?'

'सौ हो सकते हैं।'

'मुसलमान ज्यादा होंगे ?"

डाक्टर क्षण भर रुका, फिर हाथों को मलता हुआ बोला, 'कुछ नहीं कहा जा सकता ।'

'फिर भी ?'

वह भिका जैसे कुछ सोचना चाहता हो । अब्बा तब तक उसके मुंह की तरफ़ देखते रहे । उसने हाथों को आाग के श्रागे किया और कहा, 'हो सकता है, हिन्दू ज्यादा हों ।'

फिर कई क्षरण कोई नहीं बोला। सिर्फ़ हवा दरवाजे पर थपेड़े मारती रही । अब्बा के मुख पर अनेक भाव श्राए और गए, उनके तने हुए चेहरे की नसें और भी तन गईं, एकाएक बैठे-बैठे उन्होंने कहा, 'तो कोई उम्मीद नहीं ?" 'किस बात की ?' हसन ने चौंककर पूछा ।

' फ़ैसले की ।'

‘फ़ैसला ?' डाक्टर जबरदस्ती मुस्कराया श्रीर फिर जोश में बोला, 'अब्बा, हज़ार साल इस तरह लड़ते रहने पर भी फ़ैसला नहीं हो सकता । असली बात यह है कि वे फ़ैसला करना ही नहीं चाहते, वे लड़ना चाहते हैं और लड़ते रहेंगे, इसीलिए वे एक दूसरे की बात समझने से इनकार करते हैं।'

'इनकार करते हैं ? '

'हां अब्बा, मैं तो इसे इनकार करना ही मानता हूं। समझना चाहें तो झगड़ा ही क्या है ?”

अब्बा ने एक बार अपने बेटे को देखा, फिर कहा, 'शायद तुम ठीक कहते हो ।'

'शायद नहीं अब्बा, मैं बिल्कुल ठीक कहता हूं ।'

तभी किसीने दरवाजा खटखटाया, डाक्टर चौंका ।

पूछा, 'कौन है ?'

जवाब आया, 'जी, अस्पताल में डाक्टर शर्मा ने आपको बुलाया है ।' 'क्यों ?'

'एक नया केस प्राया है साब ! '

'तो ?'

'साब, उन्होंने कहा है, जख्मी की हालत खतरनाक है, आपका माना ज़रूरी है ।'

अब्बा ने सुनकर गुस्से से कहा, 'क्या वाहियात बात है, अभी भाए हो । खाना न पीना। मरने दो उसको ।'

डाक्टर बोला, 'मरना तो है ही अब्बा, आज मौत के फरिश्ते ने हम सबको अपने परों के साये में समेट लिया है।'

और फिर किवाड़ खोले, ठण्डी हवा तेजी से अन्दर घुसी, उन्होंने कांपते हुए कहा, 'खाना खा सकता हूं ?"

श्राने वाला अस्पताल का जमादार था, सिकुड़ते हुए जवाब दिया, 'साब, वह तो जल्दी बुलाते हैं ।'

डाक्टर ने लम्बी सांस खींची, कहा, 'अच्छा तो कह दो, अभी श्राता हूं ।' और उसने जल्दी से किवाड़ बन्द कर लिए, सीधे अंगीठी के पास आया और कहा, 'खून जमा देने वाली सरदी पड़ रही है, और वे लोग लड़े जा रहे हैं, वहशी, हैवान, दोज़खी कुत्ते !' साथ ही साथ दस्ताने पहिनता रहा फिर श्रोवर कोट उठाया और चलते-चलते कहा, 'मैं कहता हूं अब्बा, वे हैवान हैं, वे फैसला नहीं कर सकते ।'

...

अब्बा अगरचे क्रोध में भरे हुए थे पर न जाने क्या हुआ कि हसन की बात सुनकर हंस पड़े । बोले, 'हैवान बड़ी जल्दी फैसला करता है बेटे !'

वह कुछ जवाब देता कि इस बार अन्दर के दरवाजे पर आहट हुई, वह मुड़ा, देखा, सामने उसकी बीवी खड़ी है। उसने गरम शाल लपेट रखी है और उसके सुन्दर मुख पर क्रोध भरी मुस्कराहट है। पास आने पर वह कुछ नाराजी से बोली, 'अभी आए और चल दिए, क्या मुसीबत है ?"

'खुदा जाने क्या होने वाला है बेगम ।'

'खाना नहीं खाओगे ?'

'कैसे खाऊं, बुलावा आ गया है।'

बेगम के हाथ में कुछ बिस्कुट थे, उन्हें डाक्टर के ओवर कोट की जेब में डालते हुए कहा, 'चाय तो पी लेते ।'

डाक्टर मुस्कराया बोला, 'तुम बहुत अच्छी हो बेगम ।'

और फिर उसके मुंह पर भाई हुई एक लट को पीछे करते हुए वह जल्दी से मुड़ा और कहा, 'अब नहीं रुक सकता बेगम ! देर हो गई तो शायद पछ- ताना पड़ेगा ।'

बेगम ने कुछ जवाब नहीं दिया, उसका सुन्दर मुखड़ा परेशानी से उदास हो गया था। दुखी मन से उसने डाक्टर को जाते देखा और देखती ही रह गई । डाक्टर दरवाजा खोलकर जल्दी-जल्दी कदम रखता हुमा बाहर निकल गया ।

बूटों की तेज आवाज के साथ सनसनाती हुई हवा एक बार तेजी से उठी और फिर धीमी पड़ने लगी । चटकनी लगाकर अब्बा फिर पलंग पर ना बैठे, तभी पास के कमरे से एक हल्की लड़खड़ाती हुई आवाज आई। डाक्टर हसन के बाबा ने पूछा, 'अनवर, हसन आया था, अब फिर कहां गया ?"

'अस्पताल !' 'क्यों ?'

'क्यों क्या, कोई श्रौर जख्मी आ गया है, यह काफ़िर न जीते हैं, न जीने देते हैं ।'

बात इतनी तलखी से कही गई थी कि बाबा कुछ जवाब नहीं दे सके, नौकर पास बैठा था, उससे कहा, 'जा, पूछ तो उसने कुछ खाया कि नहीं, और कुछ न हो तो बिस्कुट वग़ैरा लेकर वहीं दे श्रा, जा..'

उधर डाक्टर हसन जैसे ही अस्पताल में दाखिल हुआ, डाक्टर शर्मा ने बेचैनी से कहा, 'हसन, तुम आगए, जल्दी करो, वह कमरा नम्बर ६ में है और आपरेशन का सामान तैयार है ।'

हसन ने ज़रा शिकायत भरे ढंग से कहा, 'ऐसी क्या बात है, खाना तक नहीं खाने दिया ।'

'क्या करूं हसन, हम लोगों का काम ही ऐसा है ।'

'केस क्या बहुत सीरीयस है ?"

'हां, केस बहुत सीरियस है हसन, उसके बदन का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है, जिसपर चोट न आई हो । चोट भी ऐसी है कि देखकर दिल कांप उठता है । '

'होश में है ?"

'आह, होश ? मुझे अचरज है कि वह जिन्दा कैसे है ?"

'क्या उसका जिन्दा रहना जरूरी है ?" हसन ने उसी तरह कहा, 'उसके मर जाने पर क्या दुनिया मिट जाएगी ?"

शर्मा बोला, 'मैं जानता हूं, पर जब तक वह मर नहीं जाता, तब तक उसे जिन्दा रखने का बोझ हमपर श्रा पड़ा है, क्या करें ?"

वे चल रहे थे और बातें भी करते जाते थे । वे घायलों के वार्ड में दाखिल हो चुके थे और दर्दभरी चीख-पुकारें सुनाई पड़ने लगी थीं, दरवाजा खोलते- खोलते हसन ने पूछा, 'वह है कौन ?'

'एक बूढ़ा हिन्दू है ।'

'यहीं का रहने वाला है ?"

'नहीं, परदेसी है । जेब में जो कागज मिले हैं उनसे पता लगता है कि वह कानपुर का रहने वाला है और उसका नाम रामप्रसाद है ।'

हसन ने धीरे से दोहराया, 'रामप्रसाद, कानपुर, बस ?” 'बस ।'

उन लोगों ने कपड़े बदले और फिर नर्सों और कम्पाउण्डरों से घिरे हुए उस जख्मी के ऊपर झुक गए, जो बीसों जरूम खाकर आपरेशन की मेज पर बेहोश पड़ा हुआ था । उसकी सांस बहुत ग्राहिस्ता-आहिस्ता चल रही थी और अधखुली प्रांखें दिल में डर पैदा करती थीं ।

प्रापरेशन खत्म करके जब वे बाहर निकले तो पूरे पांच घंटे बीत चुके थे । वे बेहद थके हुए थे और उनके तमाम बदन में दर्द हो रहा था। वे उस हवा में इतने डूब चुके थे कि दूर तक साथ-साथ चलते रहने पर भी वे एक दूसरे से नहीं बोले। शाम हो चुकी थी, पर हवा की सनसनाहट उसी तरह गूंज रही थी। उसके थपेड़े खाकर वे कभी कोट का कालर ठीक करते, कभी कदम तेज करके गरमी पैदा करना चाहते। उसी वक्त एकाएक डाक्टर शर्मा ने धीरे से कहा, जैसे नींद में बड़बड़ाते हो, 'कैसा अजीब केस है ।'

डाक्टर हसन ने भी धीरे से कहा, पर मुझे खुशी है, हम उसे बचा सकेंगे ।' 'शायद ।'

'नहीं शर्मा,' हसन ने पूरे भरोसे से कहा, 'मुझे यकीन होता है, वह बच जाएगा ।'

डाक्टर शर्मा ने हसन की घोर देखा फिर मुस्कराकर कहा, 'तुम्हें यकीन होता है, क्योंकि तुमने उसके लिए परिश्रम किया है।'

'वह केस ही ऐसा था, उसे देखकर मुझे लगा कि इसे बचना चाहिए''''' 'क्योंकि उसके बचने में तुम्हारी विद्या का इम्तहान है ।'

डाक्टर हसन ने एकाएक डाक्टर शर्मा को देखा, उसे जान पड़ा वह ठीक कह रहा है, केस जितना खतरनाक था, उसको बचाने का खयाल भी उतना ही ज्यादा था ।

यह जानकर डाक्टर हसन को गहरा सन्तोष हुआ और उसने कहा, 'मेहनत तो तुमने भी की है शर्मा ।'

' पर तुम्हारी तरह नहीं ।'

हसन ने इस बात का जवाब नहीं दिया, पहले की तरह चुपचाप चलता रहा । उसका घर सामने दिखाई पड़ रहा था। उसीको देखकर वह बोला, 'मैं समझता हूं, घर जाने से पहले तुम एक प्याली चाय पीना पसन्द करोगे ?'

शर्मा ने मुस्कराकर कहा, 'ज़रूर करूंगा ? सारा बदन टूट रहा है ।' हसन हंसा, बोला, 'और इस बात की क्या गारन्टी है कि हमें अभी फिर उसी कमरे में नहीं लौटना पड़ेगा ?'

'हां, कौन कह सकता है ?"

'लेकिन शर्मा, उस आदमी का पूरा पता मालूम होना चाहिए। देखने में किसी बड़े घर का जान पड़ता है।'

शर्मा ने उसी तरह कहा, 'मैंने पुलिस को पूरी रिपोर्ट दे दी है। वह पता लगा लेगी और न भी लगे तो क्या है, न जाने कौन-कौन मरता है ।' 'वह नहीं मरेगा शर्मा, उसपर श्राज मैंने बाजी लगाई है।'

शर्मा मुस्कराया, तब और भी जरूरत नहीं है । '

घर आ गया, किवाड़ खोलते हुए डाक्टर हसन ने कहा, 'बैठो शर्मा, मैं चाय के लिए कहता हूं ।'

और फिर अब्बा की ओर मुड़कर कहा, 'अब्बा, वाकई वह बड़ा खतरनाक केस था, लेकिन उम्मीद है कि वह बच जाएगा। शर्मा और मैं अब तक उसी पर लगे थे ।'

शर्मा ने हसन के अब्बा को प्रदाब अर्ज़ किया। जवाब देकर अब्बा बोले, 'कौन है ? ' .

'कोई बड़ा आदमी है ।'

'एक बूढ़ा हिन्दू है । अच्छे घर का जान पड़ता है ।'

'यहीं का रहने वाला है ?"

शर्मा ने कहा, 'जी नहीं, परदेसी है। जो कागजात उसकी जेब में मिले हैं, उनसे पता चलता है कि वह कानपुर का रहने वाला है भौर उसका नाम रामप्रसाद है ।'

अब्बा एकाएक चौंके, 'क्या क्या बताया रामप्रसाद'''कानपुर'''?' 'जी ।'

'और कुछ ?” 'जी नहीं !'

'उसके साथ कोई और नहीं है ?"

'जी नहीं ।'

हसन लौट आया था धौर अब्बा की बेचनी को ध्यान से देख रहा था, बोला, 'क्या श्राप उसे जानते हैं ?"

अब्बा का चेहरा तन चला था और उनकी प्रांखों में गुस्से की हल्की लकीरें उभर घाई थीं । उन्होंने अनजाने ही तलखी से कहा, 'वह मरा नहीं है ?"

शर्मा ने जवाब दिया, 'मरने में कुछ कसर तो नहीं थी, परन्तु डाक्टर हसन ने अपनी होशियारी से उसे बचा लिया है ।'

अब्बा ने अब हसन की तरफ गौर से देखा और देखते रहे। हसन को उनका यह व्यवहार बहुत अजीब-सा मालूम हुआ । उसने अब्बा के पास जाकर पूछा, 'अब्बा, क्या भाप उन्हें जानते हैं ?'

..

जैसे बिना सुने उन्होंने कहा, 'रामप्रसाद कानपुर उसके मुंह पर दाईं तरफ एक मस्सा है ।

'है।'

'उसका रंग गोरा है और उसकी शकल ''''? '

'उसकी शकल,' हसन ने एकाएक अब्बा की तरफ देखा । जैसे बिजली कौंधी हो, आपरेशन करते समय उसके मन में यह विचार श्राया था कि इसकी शकल तो अब्बा से मिलती है। अब्बा उसी तेजी से बोले, 'हां, मेरी तरफ देखो, उसकी शकल कुछ-कुछ मुझसे मिलती है ?"

हसन कांपा, 'अब्बा'...

अब्बा अपनी सुध-बुध खो रहे थे। उनके चेहरे की झुर्रियों में नफरत उभरती प्रा रही थी । उन्होंने जलती हुई प्रांखों से हसन की तरफ देखा धोर कहा, 'हां, मैं कानपुर के रामप्रसाद को जानता हूं और मैं उससे नफरत करता हूं।'

..

हसन जैसे पागल हो चला था, 'आप उससे नफरत करते हैं, क्यों '' ?' 'हां, मैं उससे नफरत करता हूं और उसके मरने का मुझे जरा भी रंज नहीं है ।'

वे बुरी तरह कांपने लगे थे। उनकी श्रांखों में क्रोध और उत्तेजना के कारण पानी भर श्राया था। पर हसन को जैसे कुछ याद भा रहा था । कुछ, वह जो प्यारा होकर भी कडुआ था, उसके अब्बा की इस बेचैनी का कारण था । 'अब्बा की बेचैनी - वह श्राहिस्ता से अपने आप से बोला, 'नहीं, यह केवल अब्बा की बेचैनी नहीं है, यह तो ...."

ठीक उसी समय अन्दर के कमरे के किवाड़ भड़भड़ा कर खुल गए। सबकी नज़रें उस श्रोर उठीं, देखा, नौकर के कन्धे पर हाथ रखे डाक्टर हसन के बूढ़े दादा अन्दर चले आए हैं। उनके बाल सफेद हो चुके थे और कमर झुक गई थी । उनके हाथ-पैर लड़खड़ाते थे और प्रांखें देखने से इन्कार कर चुकी थीं। उन्हें देखकर हसन के अब्बा घबराकर उठे और दोनों हाथों से थामकर उन्हें पलंग पर ले आए। बोले, 'आज आप इतनी सरदी में क्यों उठे ।'

दादा ने कुछ नहीं सुना और लड़खड़ाते हुए कहा, 'अनवर तुमने अभी किसका नाम लिया था। कौन आया है ?"

'कोई नहीं, अब्बा ।' हसन के अब्बा अनवर ने शान्ति से जवाब दिया, 'यहां तो हसन के साथी शर्मा साहब बैठे हैं ।'

'नहीं अनवर, मैंने अच्छी तरह सुना, तुम उसका नाम ले रहे थे ।'

डाक्टर शर्मा एक अजीब भूलभुलैयां में फंस गए थे । वे कभी हसन की श्रोर देखते कभी अब्बा को, और कभी बाबा को । पर उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । हसन चुपचाप जेब में हाथ डाले बाबा पर नजर गड़ाए हुए था । उसके मुख पर अब थकान नहीं थी, बल्कि एक गहरे दर्द ने उसे परेशान कर दिया था । इसके खिलाफ उसके अब्बा की नफरत गहरी होती जा रही थी भौर बाहर हवा उसी तेजी से सर पटक रही थी । अनवर ने अब्बा को श्राराम से सहेज कर पलंग पर लिटा दिया और फिर धीरे-धीरे चारों ओर से कम्बल ढकने लगे ।

दादा उसी तरह बोले, 'अनवर, तू बोलता क्यों नहीं ?'

'अब्बा'..."

'हां वह कहां है ? तू उसका नाम क्यों ले रहा था ?"

अनवर की भावाज कुछ लड़खड़ाई, उन्होंने कहा, 'अब्बा, वह यहां नहीं भाए ।'

'तो...?'

'अस्पताल में है ।'

-

दादा की भावाज एकाएक और भी दर्दनाक हो उठी, 'क्या क्या कहा- अस्पताल में ?....क्यों?'

जब हसन से नहीं रहा गया, तो आगे बढ़कर उसने कहा, 'हां दादा, कानपुर वाले रामप्रसाद अस्पताल में पडे हैं, जख्मी हो गए थे, लेकिन अब बेहतर हैं,' सुनकर दादा ने कम्बल को दूर फेंक दिया और लड़खड़ाते हुए बोले, 'रामप्रसाद जख्मी हो गया कैसे हुआ किसने किया—'' ?' 'शहर में जो दंगा हो रहा है उसी में ...." 'मुसलमानों ने उसे मारा', दादा ने अब सब कुछ समझकर कहा, और क्षण भर के लिए ऐसे हो गए जैसे प्रारणों ने साथ छोड़ दिया है। फिर उनकी श्रांखों से प्रांसू बहने लगे, भावाज भर गई, बोले, 'अनवर, उसे मुसलमानों ने मार डाला और तुमने मुझे बताया भी नहीं, तुमने ।'

'दादा, मैं उनको जानता नहीं था।'

'पर तूने कहा, वह अभी जिंदा है ?' 'हां दादा ।'

'अस्पताल में ?'

'हां दादा '

'तो हसन, मेरे बच्चे !' उन्होंने उठने की कोशिश करते हुए कहा, 'तू मुझे उसके पास ले चल, मैं एक बार उसे देखूंगा, वह मेरा बेटा है, मेरा बड़ा बेटा ।' कहते-कहते दादा फूट-फूटकर रोने लगे, उनसे उठा नहीं गया, कटे हुए पेड़ की तरह वहीं लुढ़क गए, अनवर ने उन्हें देखा धौर पुकार उठे, 'हसन, जल्दी करो धब्बा को गश भा गया है।'

हसन न कांपा, न घबराया, धागे बढ़कर उसने श्रालमारी में से दवा निकाली श्रौर उसे प्याले में डालते डालते बोला, 'शर्मा, क्या तुम इंजेक्शन तैयार नहीं कर दोगे ?'

'जरूर कर दूंगा।' शर्मा, जो अब सब कुछ समझ गया था, बोला श्रौर उठकर स्प्रिंट में सुई साफ़ करने लगा। हसन ने दवा दादा के गले में डाली । फिर पुकारा, 'दादा !'

'कोई आवाज नहीं ।'

'दादा प्रा...'

अनवर ने पुकारा, 'अब्बा''''''

धीरे-धीरे उनको होश श्राया । होंठ फड़फड़ाए, बोले, 'कहां है वह ? मेरा बेटा... मेरा बेटा....'

'अब्बा'....'

'मैं उसके पास जाऊंगा ।'

हसन ने कान के पास मुंह ले जाकर धीरे से कहा, 'अभी चलते हैं दादा ! आप जरा अपने को संभालिए तो... ! '

उन्होंने उसी तरह कांपते हुए कहा, 'मैं होश में हूं, मेरे बच्चे, मैं उसके पास जाऊंगा, श्राखिर वह मेरा बेटा है, कोई ग़ैर नहीं, मैं मुसलमान हूं मौर वह हिन्दू, वह मुझसे, मेरे बच्चों से नफरत करता है, पर ''' पर वह भी मेरा बच्चा है । मैं उससे नफरत नहीं करता हसन हसन ।'

'हां' दादा ।'

'हसन, मैं उससे पूछूंगा, मैं मुसलमान हो गया तो क्या हुआ, हमारा बाप-बेटे का नाता तो नहीं टूट सकता, श्राख़िर उसकी रगों में अब भी मेरा खून बहता है, इतना ही जितना अनवर की रंगों में बहता है, शायद ज्यादा।'

उनकी आवाज फिर धीमी पड़ रही थी। वह रो-रो उठते थे। दोनों डाक्टर उनके ऊपर झुके हुए थे और अनवर ने उनकी नाड़ी संभाल रखी थी ।

बाहर अंधेरा बढ़ा रहा था और हवा शान्त पड़ रही थी, अन्दर बेगम आंखों में प्रांसू भरे, दुखी दिल से, चाय लिए बैठी थीं, और वह चाय न जाने aa की ठण्डी होकर काली पड़ गई थी।

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रचनाएँ
धरती अब भी घूम रही है
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‘पद्यमभूषण’ से सम्मानित लेखक विष्णु प्रभाकर का यह कहानी-संकलन हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुआ है। इसमें लेखक ने जिन चुनिंदा सोलह कहानियों को लिया है उनकी दिलचस्प बात यह है कि अपनी हर कहानी से पहले उन्होंने उस घटना का भी उल्लेख किया है जिसने उन्हें कहानी लिखने की प्रेरणा दी।
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भूमिका

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 इस संग्रह मे मेरी सोलह कहानियां जा रही है । मैंने २०० वहानिया लिखी है, जिनमें से इनका चुनाव एक विशेष दृष्टि से किया गया है । इनमें से प्रत्येक के बारे में मैं अलग से लिख चुका हू । इसके बाद और क्या

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अध्याय 1: धरती अब भी घूम रही है

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अध्याय 2: अगम अथाह

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 स्वतन्त्रता प्राप्ति से कुछ पूर्व से लेकर कुछ बाद तक जो नरमेध यज्ञ इस देश हुआ 'उसको मैने बहुत पास से देखा है। उसीकी एक झलक इस कहानी में हैं । अपनी ओर से मैने इसमें बहुत कम कहा है । गाड़ी ने सीटी द

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अध्याय 3: रहमान का बेटा

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 पंजाब के एक छोटे-से कस्बे में सरकारी नौकरी करते हुए मैने वहां के निम्न वर्ग को काफी पास से देखा। इधर-उधर उनमें जो चेतना जाग्रत हो रही थी उसका अनुभव किया और एक दिन यह कहानी लिख बैठा । एक ही बैठक में

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अध्याय 4: गृहस्थी

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पहली अन्तर्राष्ट्रीय कहानी - प्रतियोगिता में जिन हिन्दी कहानियों को पुरस्कार मिला है उसमें गृहस्थी को चौथा पुरस्कार मिला। इस कहानी के पात्रों को मैंने बहुत पास से देखा है। इससे ज्यादा इसके बारे मे मै

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अध्याय 5: नाग-फांस

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अध्याय 6: सम्बल

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 यात्रा करने का मुझे शौक है। किसी यात्रा में ऊपर के बर्थ पर पड़ा सो रहा था तब एकाएक जागकर सुना कि नीचे की बर्थ पर बैठे हुए दो व्यक्ति बड़े करुण स्वर में किसी व्यक्ति का मृत्यु की चर्चा कर रहे हैं। औ

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अध्याय 7: ठेका

20 अगस्त 2023
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 पहली कहानी की तरह इस कहानी की प्रेरणा भी समाज में फैले नाना विध भ्रष्टाचार से मिली। यह किसी एक व्यक्ति की कहानी नही है बल्कि अनेकानेक व्यक्तितो का प्रतिनिधित्व करने वाले एक ठेकेदार की कहानी है। साध

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अध्याय 8: जज का फैसला

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 इस कहानी का आधार भी एक विचार है और इस विचार के कई रूप हो सकते है । मैं इन सब रूपों को लेकर लिखना चाहता था लेकिन अभी तक लिख नहीं पाया। यह प्रेम की उत्कटता का एक रूप है। इस कहानी का रेडियो रूपान्तर भ

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अध्याय 9: कितना झूठ

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यह मेरे अपने जीवन का एक पृष्ठ है। निशिकांत की प्रांखें रह-रहकर सजल हो उठतीं और वह मुंह फेरकर सड़क की श्रोर देखने लगता, मानो अपने प्रांसुत्रों को पीने की चेष्टा कर रहा हो । सड़क पर सदा की तरह अनेक नर

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अध्याय 10: अधूरी कहानी

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हिन्दू-मुस्लिम समस्या भारत की एक शाश्वत समस्या बन गई है। पाकिस्तान बन जाने पर भी इस समस्या का हल नही हुआ। इस कहानी में मैंने उस समस्या की जड़ में जाने का प्रयत्न किया है। बेशक समस्या का यह एक पहलू है

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'आश्रिता' एक विचार का परिणाम है। इस संग्रह में जितनी कहानियां संगृहीत हैं उनमें शायद यह सबसे पहले लिखी गई है। इसका रचनाकाल १६३७ है। उन दिनों मेरा जैनेन्द्र जी से परिचय हुआ ही हुआ था। मुझे याद है इस कह

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अध्याय 12: मेरा बेटा

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अध्याय 16: शरीर से परे

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